कौशिकी-कोसी
सृन्गेश्वर महादेव
भगिनी विश्वामित्र की, सत्यवती था नाम |
षोडश सुन्दर रूपसी, हुई रिचिक की बाम ||
दुनिया का पहला हुआ, यह बेमेल विवाह |
बुड्ढा खूसट ना करे, पत्नी की परवाह ||
वाणी अति वाचाल थी, हुआ शीघ्र बेकाम |
दो वर्षों में चल बसा, बची अकेली बाम ||
सत्यवती पीछे गई, स्वर्ग-लोक के द्वार |
कोसी बन क्रोधित हुई, होवे हाहाकार ||
उच्च हिमालय से निकल, त्रिविष्टक को पार |
अंगदेश की भूमि तक, है इसका विस्तार ||
असंतुष्ट सी बह रही, नहीं तनिक भी बोध |
जल-प्लावित करती रहे, जब - तब आवे क्रोध ||
अंगदेश का शोक है, रूप बड़ा विकराल |
ग्राम सैकड़ों लीलती, काल बजावे गाल ||
धरती पर लाती रही, बड़े गाद भण्डार |
गंगा जी में जा मिले, शिव का कर आभार ||
इसी भूमि पर कर रहे, ऋषि अभिनव प्रयोग |
ऋषि विविन्डक हैं यही, विनती करते लोग ||
उन्हें पराविज्ञान का, था अद्भुत अभ्यास |
मन्त्रों की शक्ति प्रबल, सफल सकल प्रयास ||
इन्ही विविन्डक ने दिया, था दशरथ को ज्ञान |
शांता को दे दीजिये, गोद किसी की दान ||
सृंगी ऋषि, कुल्लू घाटी
ऋषि विविन्ड़क का प्रबल, परम प्रतापी पूत |
कुल्लू घाटी में पड़े, अब भी कई सुबूत ||
जेठ मास में आज भी, सजा पालकी दैव |
करते इनकी वंदना, सारे वैष्णव शैव ||
लकड़ी का मंदिर बना, कलयुग के महराज |
कल के सृंगी ही बने, देव-स्कर्नी आज ||
अट्ठारह करदू हुवे, उनमे से हैं एक |
कुल्लू घाटी विचरते, यात्रा करें अनेक ||
हमता डौरा-लांब्ती, रक्ती-सर गढ़-धोल |
डौरा कोठी पञ्च है, मालाना तक डोल ||
छ सौ तक हैं पालकी, कहते हैं रथ लोग |
सृंगी से आकर मिलें, सूखे का जब योग ||
मंत्रो पर अद्भुत पकड़, करके वर्षों शोध |
षोडश सुन्दर रूपसी, हुई रिचिक की बाम ||
दुनिया का पहला हुआ, यह बेमेल विवाह |
बुड्ढा खूसट ना करे, पत्नी की परवाह ||
वाणी अति वाचाल थी, हुआ शीघ्र बेकाम |
दो वर्षों में चल बसा, बची अकेली बाम ||
सत्यवती पीछे गई, स्वर्ग-लोक के द्वार |
कोसी बन क्रोधित हुई, होवे हाहाकार ||
उच्च हिमालय से निकल, त्रिविष्टक को पार |
अंगदेश की भूमि तक, है इसका विस्तार ||
असंतुष्ट सी बह रही, नहीं तनिक भी बोध |
जल-प्लावित करती रहे, जब - तब आवे क्रोध ||
अंगदेश का शोक है, रूप बड़ा विकराल |
ग्राम सैकड़ों लीलती, काल बजावे गाल ||
धरती पर लाती रही, बड़े गाद भण्डार |
गंगा जी में जा मिले, शिव का कर आभार ||
इसी भूमि पर कर रहे, ऋषि अभिनव प्रयोग |
ऋषि विविन्डक हैं यही, विनती करते लोग ||
उन्हें पराविज्ञान का, था अद्भुत अभ्यास |
मन्त्रों की शक्ति प्रबल, सफल सकल प्रयास ||
निश्छल और विनम्र है, मंद-मंद मुस्कान |
मितभाषी मृदु-छंद है, उनका हर व्याख्यान ||
अभिव्यक्ति रोचक लगे, जागे मन विश्वास |
बाल-वृद्ध-युवजन जुड़े, आस छुवे आकाश ||
दूरदर्शिता का उन्हें, है अच्छा अभ्यास |
जोखिम से डरते नहीं, नहीं अन्धविश्वास ||
इन्ही विविन्डक ने दिया, था दशरथ को ज्ञान |
शांता को दे दीजिये, गोद किसी की दान ||
सृंगी ऋषि, कुल्लू घाटी
ऋषि विविन्ड़क का प्रबल, परम प्रतापी पूत |
कुल्लू घाटी में पड़े, अब भी कई सुबूत ||
जेठ मास में आज भी, सजा पालकी दैव |
करते इनकी वंदना, सारे वैष्णव शैव ||
लकड़ी का मंदिर बना, कलयुग के महराज |
कल के सृंगी ही बने, देव-स्कर्नी आज ||
अट्ठारह करदू हुवे, उनमे से हैं एक |
कुल्लू घाटी विचरते, यात्रा करें अनेक ||
हमता डौरा-लांब्ती, रक्ती-सर गढ़-धोल |
डौरा कोठी पञ्च है, मालाना तक डोल ||
छ सौ तक हैं पालकी, कहते हैं रथ लोग |
सृंगी से आकर मिलें, सूखे का जब योग ||
मंत्रो पर अद्भुत पकड़, करके वर्षों शोध |
वैज्ञानिक अति श्रेष्ठ ये, मिला पिता से बोध ||
गुफा में पानी -नाहन
नाहन के ही पास है, गुफा एक सिरमौर |
जप-तप करते शोध इत, जब सूखे के दौर ||
सृन्गेश्वर की थापना, कम कोसी का कोप |
सृंगी ऋषि ने था किया, भूमि शिवा को सौंप ||
शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम ||
जप-तप करते शोध इत, जब सूखे के दौर ||
सृन्गेश्वर की थापना, कम कोसी का कोप |
सृंगी ऋषि ने था किया, भूमि शिवा को सौंप ||
शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम ||
अंगदेश का क्षेत्र यह, महिमामय अस्थान |
शांता-रूपा साथ माँ, आती करय परनाम ||
शांता और रिस्य-सृंग
शांता थी गमगीन, खोकर काका को भली |
मौका मिला हसीन, लौटी चेहरे पर हंसी ||
सबने की तारीफ़, वीर रमण के दाँव की |
सहा बड़ी तकलीफ, मगर बचाई जान सब ||
राजा रानी आय, हालचाल लेकर गए |
करके सफल उपाय, वैद्य ठीक करते उसे ||
हुआ रमण का व्याह, नई नवेली दुल्हनी |
पूरी होती चाह, महल एक सुन्दर मिला ||
नीति-नियम से युक्त, जिये जिन्दगी धीर धर |
हंसे ठठा उन्मुक्त, परहितकारी कर्म शुभ ||
हंसे ठठा उन्मुक्त, परहितकारी कर्म शुभ ||
रहते दोनों भाय, माता बच्चे साथ में |
खुशियाँ पूरी छाय, पाले जग की परंपरा ||
मनसा रहा बनाय, रमण एक सप्ताह से |
सृन्गेश्वर को जाय, खोजे रहबर साधु को ||
शांता जानी बात, रूपा संग तैयार हो |
माँ को नहीं सुहात, कौला सौजा भी चलीं ||
दो रथ में सब बैठ, घोड़े भी संग में चले |
रही शांता ऐंठ, मेला पूरा जो लगा ||
रही सोम को देख, चंपा बेटे से मिलीं |
मूंछों की आरेख, बेटे की लागे भली ||
बेटा भी तैयार, महादेव के दर्श हित |
होता अश्व सवार, धीरे से निकले सभी ||
नौकर-चाकर भेज, आगे आगे जा रहे |
इंतजाम में तेज, सभी जरूरत पूरते ||
पहुंचे संध्या काल, सृन्गेश्वर को नमन कर |
डेरा देते डाल, अगले दिन दर्शन करें ||
सुबह-सुबह अस्नान, सप्त-पोखरों में करें |
पूजक का सम्मान, पहला शांता को मिला ||
कमर बांध तलवार, बटुक परम भी था खड़ा |
सन्यासी को देखते, लगा इन्हें हुस्कारने ||
कमर बांध तलवार, बटुक परम भी था खड़ा |
सन्यासी को देखते, लगा इन्हें हुस्कारने ||
रूपा शांता संग, गप्पें सीढ़ी पर करे |
हुई देखकर दंग, रिस्य सृंग को सामने ||
तरुण ऊर्जा-स्रोत्र, वल्कल शोभित हो रहा |
अग्नि जले ज्यों होत्र, पावन समिधा सी हुई ||
गई शांता झेंप, चितवन चंचल फिर चढ़ी |
मस्तक चन्दन लेप, शीतलता महसूस की ||
ऋषिवर को परनाम, रूपा बोली हृदय से |
शांता इनका नाम, राजकुमारी अंग की ||
हाथ जोड़कर ठाढ़, हुई शांता फिर मगन |
वैचारिक यह बाढ़, वापस भागी शिविर में ||
पूजा लम्बी होय, रानी चंपा की इधर |
शिव को रही भिगोय, दुग्ध चढ़ाये विल्व पत्र ||
रमण रहे थे खोज, मिले नहीं वे साधु जी |
था दुपहर में भोज, विविन्डक आये शिविर ||
गया चरण में लोट, रमण देखते ही उन्हें |
मिटते उसके खोट, जैसे घूमें स्वर्ग में ||
बोला सबने ॐ, भोजन की पंगत सजी |
बैठा साथे सोम, विविन्डक ऋषिराज के ||
संध्या सारे जाँय, कोसी की पूजा करें |
शांता रही घुमाय, रूपा को ले साथ में ||
अति सुन्दर उद्यान, रंग-विरंगे पुष्प हैं |
सृंगी से अनजान, चर्चा करने लग पड़ीं ||
तरह तरह के प्रेम हैं, अपना अपना राग |
मन का कोमल भाव है, जैसे जाये जाग |
जैसे जाये जाग, वस्तु वस्तुता नदारद |
पर बाकी सहभाग, पार कर जाए सरहद |
जड़ चेतन अवलोक, कहीं आलौकिक पावें |
लुटा रहे अविराम, लूट जैसे मन भावे |
मन का कोमल भाव है, जैसे जाये जाग |
जैसे जाये जाग, वस्तु वस्तुता नदारद |
पर बाकी सहभाग, पार कर जाए सरहद |
जड़ चेतन अवलोक, कहीं आलौकिक पावें |
लुटा रहे अविराम, लूट जैसे मन भावे |
लगते राजकुमार, सन्यासी बन कर रहें ||
करके देख विचार, दाढ़ी लगती है बुरी ||
खट-पट करे खिडाव, देख सामने हैं खड़े |
छोड़-छाड़ वह ठाँव, रूपा सरपट भागती ||
शांता शान्ति छोड़, असमंजस में जा पड़ी |
जिभ्या चुप्पी तोड़, करती है प्रणाम फिर ||
मैं सृंगी हूँ जान, ऋषी राज के पुत्र को |
करता अनुसंधान, गुणसूत्रों के योग पर ||
मन्त्रों का व्यवहार, जगह जगह बदला करे |
सब वेदों का सार, पुस्तक में संग्रह करूँ ||
पिता बड़े विद्वान, मिले विरासत में मुझे |
उनके अनुसंधान, जिम्मेदारी है बड़ी ||
कर शरीर का ख्याल, अगर सवारूँ रात दिन |
पूरे कौन सवाल, दुनिया के फिर करेगा ||
बदले दृष्टिकोण, रिस्य सृंग का प्रवचन |
बाहें रही मरोड़, हाथ जोड़ प्रणाम कर ||
लौटी रूपा देख, बढे सृंग आश्रम गए |
अपनी जीवन रेख, शांता देखे ध्यान से ||
लौट शिविर में आय, अपने बिस्तर पर पड़ी |
कर कोशिश विसराय, सृंगी मुख भूले नहीं ||
ठीक करे बीमार, स्वयं भी रहे निरोगी |
उदाहरण ना अन्य, मिलें ना ऐसे योगी |
बड़ा भयंकर प्लेग, जहाँ गुम सिट्टी-पिट्टी |
गई व्यवस्था भाग, वहाँ बापू की मिट्टी ||
बिना लिए आभार, कृपा की करते वृष्टी |
दादा दादी देव, दुआ दे दुर्लभ दृष्टी |
सच्चे रिश्ते मुफ्त, हमेशा भला इरादा |
रखे सकल परिवार, सदा अक्षुण मर्यादा |
मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||
व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता हुई विचारमग्न, सच्चे सरल उसूल ||
गुरुकुल के आचार्य का, प्रस्तुत है उदबोध ||
नारी शिक्षा पर रखें, अपने शाश्वत शोध ||
दस शिक्षक के तुल्य है, इक आचार्य महान |
सौ आचार्यों से बड़ा, पिता तुम्हारा जान ||
और हजारों गुनी है, इक माता की शान |
उनकी शिक्षा सर्वदा, उत्तम और महान ||
गार्गी मैत्रेयी सरिस, आचार्या कहलांय |
गुरु पत्नी आचार्यिनी, कही सदा ही जाँय ||
कात्यायन की वर्तिका, में सीधा उल्लेख |
महिला लिखती व्याकरण, अति प्रभावी लेख ||
महिला शिक्षा पर करे, जो भी खड़े सवाल |
पतंजलि को देखिये, आग्रह- पूर्व निकाल ||
शांता जी ने है किया, बड़ा अनोखा कार्य |
देता खुब आशीष हूँ, मै उनका आचार्य ||
भेजूंगा कल पाठ्यक्रम, पांच साल का ज्ञान |
तीन वर्ष में ये करें, कन्या गुण की खान ||
शांता का सन्देश
सृन्गेश्वर से आय के, हुई जरा चैतन्य |
छोड़ विषय को सोचने, लगी शांता अन्य ||
तिनका मुँह में दाब के, मुँह में उनका नाम ।
सौ जोजन का सफ़र कर, पहुंचाती पैगाम ।
पहुंचाती पैगाम, प्रेम में पागल प्यासी ।
सावन की ये बूंद, बढाए प्यास उदासी ।
पंछी यह चैतन्य, किन्तु तन को न ताके ।
यह दारुण पर्जन्य, सताते जब तब आके ।।
तिनका मुँह में दाब के, मुँह में उनका नाम ।
सौ जोजन का सफ़र कर, पहुंचाती पैगाम ।
पहुंचाती पैगाम, प्रेम में पागल प्यासी ।
सावन की ये बूंद, बढाए प्यास उदासी ।
पंछी यह चैतन्य, किन्तु तन को न ताके ।
यह दारुण पर्जन्य, सताते जब तब आके ।।
रिश्तों की पूंजी बड़ी , हर-पल संयम वर्त |
पूर्ण-वृत्त पेटक रहे , असली सुख संवर्त ||
सोम हुवे युवराज जब, उसको आया ख्याल ||
बिना पुत्र के है बुरा, अवध राज का हाल ||
गुरु वशिष्ठ को भेजती, अपना इक सन्देश |
तीव्रगति से पहुँचता, शांता दूत विशेष ||
रिस्य सृंग के शोध का, था उसमें उल्लेख |
गुरु वशिष्ठ हर्षित हुए, विषयवस्तु को देख ||
चितित दशरथ को बुला, बोले गुरू वशिष्ठ ||
हर्षित दशरथ कर रहे, कार्य सभी निर्दिष्ट ||
तैयारी पूरी हुई, रथ को रहे उडाय |
रिस्य सृंग के सामने, झोली को फैलाय ||
हमको ऋषिवर दीजिये, अब अपना आशीष |
चरणों में हैं लोटते, पटके अपना शीश ||
राजन धीरज धारिये, काहे होत अधीर |
सृन्गेश्वर को पूजिये, वही हरेंगे पीर ||
मैं तो साधक मात्र हूँ, शंकर ही हैं सिद्ध |
दोनों हाथों से पकड़, बोले उठिए वृद्ध ||
सात दिनों तक आपकी, करूँगा पूरी जाँच |
सृन्गेश्वर के सामने, शिव पुराण नित बाँच ||
सात दिनों का तप प्रबल, औषधिमय खाद्यान |
दशरथ पाते पुष्टता, मिटे सभी व्यवधान ||
सूची इक लम्बी लिखी, सृंगी देते सौंप ||
बुड्ढी काया में दिखी, तरुणों जैसी चौप ||
कुछ प्रायोगिक कार्य हैं, कोसी की भी बाढ़ |
इंतजाम करके रखो, आऊं माह असाढ़||
ख़ुशी-ख़ुशी दशरथ गए, रौनक रही बताय |
देरी के कारण उधर, रानी सब उकताय ||
अवधपुरी के पूर्व में, आठ कोस पर एक |
बहुत बड़े भू-खंड पर, लागे लोग अनेक ||
सुन्दर मठ-मंदिर बना, पोखर बना विशेष |
हवन कुंड भी सज रहा, पहुंचा सारा देश ||
थी अषाढ़ की पूर्णिमा, पुत्र-काम का यग्य |
सुमिर गजानन को करें, रिस्य सृंग से विज्ञ ||
शांता भी आई वहां, रही व्यवस्था देख |
फुर्सत में थी बाँचती, सृंगी के अभिलेख ||
समझे न जब भाष्य को, बिषय तनिक गंभीर |
फुर्सत मिलते ही मिलें, सृंगी सरयू तीर ||
देखें जब अभ्यासरत, रिस्य रिसर्चर रोज |
नए-नए सिद्धांत को, प्रेषित करते खोज ||
समझे न जब भाष्य को, बिषय तनिक गंभीर |
फुर्सत मिलते ही मिलें, सृंगी सरयू तीर ||
देखें जब अभ्यासरत, रिस्य रिसर्चर रोज |
नए-नए सिद्धांत को, प्रेषित करते खोज ||
प्रेम प्रस्फुटित कब हुआ, जाने न रिस्य सृंग |
वहीँ किनारे भटकता, प्रेम-पुष्प पर भृंग ||
कई दिनों तक यग्य में, रहे व्यस्त सब लोग |
नए चन्द्र दर्शन हुए, आया फिर संयोग ||
पूर्णाहुति के बाद में, अग्नि देवता आय |
दशरथ के शुभ हाथ में, रहे खीर पकडाय ||
दशरथ ग्रहण कर रहे, कहें बहुत आभार |
आसमान में देवता, करते जय जयकार ||
कौशल्या करती ग्रहण, आधी पावन खीर |
कैकेयी भी ले रही, होकर बड़ी अधीर ||
दोनों रानी ने दिया, आधा आधा भाग |
रहा सुमित्रा से उन्हें, अमिय प्रेम अनुराग ||
चैत्र शुक्ल नवमी तिथी, प्रगट हुवे श्री राम |
रही दुपहरी खुब भली, तनिक शीत का घाम ||
गोत्र दोष को काटते, रिस्य सृंग के मन्त्र |
कौशल्या सुदृढ़ करे, अपना रक्षा तंत्र ||
कैकेयी के भरत भे, हुई मंथरा मग्न |
हुवे सुमित्रा के युगल,लखन और शत्रुघ्न ||
लंका में रावण उधर, जीत विश्व बरबंड |
मानव को जोड़े नहीं, बाढ़ा बहुत घमंड ||
देव यक्ष गन्धर्व को, जीता हुआ मदांध |
स्वर्ग जीत के टाँगता, यम को उल्टा बाँध ||
लंका में रावण उधर, जीत विश्व बरबंड |
मानव को जोड़े नहीं, बाढ़ा बहुत घमंड ||
देव यक्ष गन्धर्व को, जीता हुआ मदांध |
स्वर्ग जीत के टाँगता, यम को उल्टा बाँध ||
नर-वानर बूझे नहीं, माने कीट पतंग |
अनदेखी करने लगा, करे विश्व बदरंग ||
अंग अंग लेकर विकल, गई शांता अंग |
और इधर रिस्य सृंग की, शोध कर रही भंग ||
कौशल्या कन्या पाठशाला
अंगराज के स्वास्थ्य को, ढीला-ढाला पाय |
चम्पारानी की ख़ुशी, सारी गई बिलाय ||
शिक्षा पूरी कर चुके, अपने राजकुमार |
अस्त्र-शस्त्र सब शास्त्र में, पाया ज्ञान अपार ||
व्यवहार-कुशल नीतिज्ञ, वय अट्ठारह साल |
राजा चाहें सोम से, पद युवराज सँभाल ||
शांता आगे बढ़ करे, सारे मंगल कार्य |
बटुक परम साथे लगा, सेवे वह आचार्य ||
गुरुजन के सानिध्य में, उसको होता बोध |
दीदी से कहने लगा, दूर करें अवरोध ||
प्रारम्भिक शिक्षा हुई, थी शांता के संग |
पूरी शिक्षा के बिना, मानव रहे अपंग ||
सुनकर के अच्छा लगा, देती आशीर्वाद |
सृन्गेश्वर भेजूं तुझे, समारोप के बाद ||
आया उसको ख्याल इक, रखी बाँध के गाँठ |
कन्याशाला से बढ़ें, अंगदेश के ठाठ ||
सोम बने युवराज तो, आया श्रावण मास |
सूत्र बाँधती भ्रात कर, बहनों का दिन ख़ास ||
आई श्रावण पूर्णिमा, सूत्र बटुक को बाँध |
गई सोम को बाँधने, मन में निश्चित साँध ||
विवरण मनभावन लगा, सावन दगा अबूझ |
नाटक नौटंकी ख़तम, ख़तम पुरानी सूझ |
ख़तम पुरानी सूझ, उलझ कर जिए जिंदगी |
अपने घर सब कैद, ख़तम अब दुआ बंदगी |
गुड़िया झूला ख़त्म, बची है राखी बहना |
मेंहदी भी बस रस्म, अभी तक गर्मी सहना ||
नाटक नौटंकी ख़तम, ख़तम पुरानी सूझ |
ख़तम पुरानी सूझ, उलझ कर जिए जिंदगी |
अपने घर सब कैद, ख़तम अब दुआ बंदगी |
गुड़िया झूला ख़त्म, बची है राखी बहना |
मेंहदी भी बस रस्म, अभी तक गर्मी सहना ||
राज महल में यह प्रथम, रक्षा बंधन पर्व |
सोम बने युवराज हैं, होय बहन को गर्व ||
चम्पारानी थी खड़ी, ले आँखों में प्यार |
शांता अपने भ्रातृ की, आरति रही उतार ||
रक्षाबंधन बाँध के, शांता बोली भाय |
मोती-माणिक राखिये, यह सब नहीं सुहाय ||
दीदी खातिर क्या करूँ, पूँछें जब युवराज |
कन्या-शाला दीजिये, सिद्ध कीजिये काज ||
बोले यह संभव नहीं, यह शिक्षा बेकार |
पढ़कर कन्या क्या करे, पाले-पोसे नार ||
कन्याएं बेकार में, समय करेंगी व्यर्थ ||
गृह कार्य सिखलाइये, शिक्षा का क्या अर्थ ||
माता ने झटपट किया, उनमे बीचबचाव |
शिक्षित नारी से सधे, देश नगर घर गाँव ||
वेदों के विपरीत है, नारी शिक्षा बोल |
उद्दत होते सोम्पद, शालाएं मत खोल ||
बोली मैंने भी पढ़ी, शांता कर प्रतिवाद |
वेद-भाष्य रिस्य सृंग का, कोई नहीं विवाद ||
गौशाला को हम चले, बाकी काम अनेक |
श्रावण बीता जाय पर, हुई न वर्षा एक ||
त्राहि-त्राहि परजा करे, आया अंग अकाल |
खेत धान के सूखते, ठाढ़े कई सवाल ||
भीषण गर्मी से थका, मन-चंचल तन-तेज |
भीग पसीने से रही, मानसून अब भेज |
मानसून अब भेज, धरा धारे जल-धारा |
जीव-जंतु अकुलान, सरस कर सहज सहारा |
पद के सुन्दर भाव, दिखाओ प्रभु जी नरमी |
यह तीखी सी धूप, थामिए भीषण गरमी ||
भीषण गर्मी से थका, मन-चंचल तन-तेज |
भीग पसीने से रही, मानसून अब भेज |
मानसून अब भेज, धरा धारे जल-धारा |
जीव-जंतु अकुलान, सरस कर सहज सहारा |
पद के सुन्दर भाव, दिखाओ प्रभु जी नरमी |
यह तीखी सी धूप, थामिए भीषण गरमी ||
धीरे धीरे सावन आये। समय हमेशा अधिक लगाये ।
व्याकुल जीवन तपती धरती । नाजुक विटप लताएँ मरती ।।
कुदरत अब सिंगार करे है । मस्तक पर नव मुकुट धरे है ।
नव पल्लव संबल पाते हैं । लिपट चिपट कर चढ़ जाते हैं ।।
हरियाली सब का मन मोहे । रविकर दिनभर भटके-टोहे ।
मेघ गर्जना बिजली दमकी । कविवर क्यूँ आँखें न चमकी ??
गौशाला में आ रहा, बेबस गोधन खूब |
पानी जो बरसा नहीं, जाए जन मन ऊब ||
सूखे के आसार हैं, बही नहीं जलधार ।
हैं अषाढ़ सावन गए, कर भादौं उपकार ।।
हैं अषाढ़ सावन गए, कर भादौं उपकार ।।
मन का पंछी दूर तक, उड़ उड़ वापस आय ।
सावन की मनहर छटा, फिर भी मन तड़पाय ।
फिर भी मन तड़पाय, साथ यादें ही आती ।
सुन लो तुम चितलाय, झूल सावन जो गाती ।
भीगे भीगे शब्द, करे हैं ठेलिमठेला ।
रहा अधर में झूल, भीगता नहीं अकेला ।।
दूर दूर से आ रहे, गंगाजी के तीर ||
देखों उनकी दुर्दशा, करत घाव गंभीर ||
छोड़े अपने बैल सब, गाय देत गौशाल |
जोहर पोखर सूखते, बाढ़ा बड़ा बवाल ||
गरज हमारी देख के, गरज-गरज घन खूब ।
बिन बरसे वापस हुवे, धमा-चौकड़ी ऊब ।
धमा-चौकड़ी ऊब, खेत-खलिहान तपे हैं ।
तपते सड़क मकान, जीव भगवान् जपे है ।
त्राहिमाम हे राम, पसीना छूटे भारी ।
भीगे ना अरमान, भीगती देह हमारी ।।
सब शिविरों में आ रहे, होता खाली कोष |
कन्या शाला के लिए, मत दे बहना दोष ||
इतने में दालिम दिखा, बोला जय युवराज |
मंत्री-परिषद् बैठती, कुछ आवश्यक काज ||
पढ़ चेहरे के भाव को, दालिम समझा बात ||
शांता बिटिया है दुखी, दुखी दीखती मात ||
दालिम से कहने लगी, परम बटुक की चाह |
पढने की इच्छा प्रबल, दीजे तनिक सलाह ||
जोड़-घटाना जानता, जाने वह इतिहास |
वह भी तो सेवक बने, मात-पिता जब दास ||
लगी कलेजे में यही, उतरी गहरे जाय |
सोचें न उत्कर्ष की, शांता कस समझाय ||
दुखते दिल से पूछती, अच्छा कहिये तात |
राजमहल के चार कक्ष, इधर कहाँ इफरात ||
चम्पा-रानी भी कहें, हाँ दालिम हाँ बोल |
कन्या-शाला को सके, जिसमें बिटिया खोल ||
हाथ जोड़ करके कहे, यहाँ नहीं अस्थान |
महल हमारा है बड़ा, मिला हमें जो दान ||
शांता उछली जोर से, हर्षित निकले चीख |
कन्या-शाला के लिए, मांगे शांता भीख ||
शर्मिंदा क्यूँ कर रहीं, हमको ख़ुशी अपार |
ठीक-ठाक करके रखूं, कल मैं कमरे चार ||
माता को लेकर मिली, गई पिता के कक्ष |
अपनी इच्छा को रखा, सुनी राजसी पक्ष ||
सैद्धांतिक सहमति मिली, सौ पण का अनुदान |
कौशल्या शाळा खुली, हो नारी उत्थान ||
दूर दूर के कारवाँ, उनके संग परिवार ||
रूपा शांता संग में, करने गई प्रचार ||
रूपा शांता संग में, करने गई प्रचार ||
रुढ़िवादियों ने वहाँ, पूरा किया विरोध |
कई प्रेम से मिल रहे, कई दिखाते क्रोध ||
घर में खाने को नहीं, भटक रहे हो तीर |
जाने कब दुर्भिक्ष में, छोड़े जान शरीर ||
नौ तक की कन्या यहाँ, छोडो मेरे पास |
भोज कराउंगी उन्हें, पूरे ग्यारह मास ||
इंद्र-देवता जब करें, खुश हो के बरसात |
तब कन्या ले जाइए, मान लीजिये बात ||
गृहस्वामी सब एक से, जोड़-गाँठ में दक्ष |
मिले आर्थिक लाभ तो, समझें सम्मुख पक्ष ||
धरम-भीरु होते कई, कई देखते स्वार्थ |
जर जमीन जोरू सकल,इच्छित मिलें पदार्थ ||
गृहस्वामी सब एक से, जोड़-गाँठ में दक्ष |
मिले आर्थिक लाभ तो, समझें सम्मुख पक्ष ||
धरम-भीरु होते कई, कई देखते स्वार्थ |
जर जमीन जोरू सकल,इच्छित मिलें पदार्थ ||
चतुर सयानी ये सखी, मीठा मीठा बोल |
तेरह कन्यायें जमा, देती शाला खोल ||
एक कक्ष में दरी थी, उस पर चादर डाल |
तेरह बिस्तर की जगह, पंद्रह की तैयार ||
कक्ष दूसरा बन गया, फिर भोजन भंडार |
कार्यालय तीजा बना, कक्षा बनता चार ||
जिम्मेदारी भोज की, कौला रही उठाय |
सौजा दादी बन गई, बच्चों की प्रिय धाय ||
शांता पहली शिक्षिका, रूपा का सहयोग |
तख्ती खड़िया बँट गई,जमा हुवे कुछ लोग ||
रानी माँ आकर करें, शाळा शुभ-आरम्भ |
आड़े पर आता रहा, कुछ पुरुषों का दम्भ ||
जिम्मेदारी का वहन, करती बहन सटीक |
मौके पर मिलती खड़ी, बेटी सबसे नीक |
बेटी सबसे नीक, पिता की गुड़िया रानी |
चले पकड़ के लीक, बेटियां बड़ी सयानी |
रविकर का आशीष, बेटियाँ बढ़ें हमारी |
मातु-पिता जा चेत, समझ निज जिम्मेदारी ||
नित्य कर्म करवा रहीं, सौजा रूपा साथ |
आई रमणी रमण की, लगा रही खुद हाथ ||
पहले दिन की प्रार्थना, सादर शारद केर |
एकदन्त की विनय से, कटते बाधा-फेर ||
स्वस्थ बदन ही सह सके, सांसारिक सब भार |
बुद्धी भी निर्मल रहे, बढ़े सकल परिवार ||
रूपा के व्यायाम से, बच्चे थक के चूर ||
शुद्ध दूध मिलता उन्हें, घुघनी भी भरपूर ||
पहली कक्षा में करें, बच्चे कुछ अभ्यास ||
गोला रोटी सा करे, रेखा जैसे बांस ||
एक घरी अभ्यास कर, गिनती सीखे जांय ||
दस तक की गिनती गिनें, रूपा रही बताय ||
सृंगी के अभिलेख से, सीखी थी इक बात |
पारेन्द्रिय अभ्यास से, हुई स्वयं निष्णात ||
दोपहर में छुट्टी हुई, पंगत सभी लगाय |
हाथ-पैर मुंह धोय के, दाल-भात सब खाय ||
एक एक केला मिला, करते सब विश्राम |
कार्यालय में आय के, करे शांता काम ||
खेलों की सूची दिया, रूपा को समझाय |
दो घंटे का खेल हो, संध्या इन्हें जगाय ||
गौशाला से दूध का, भरके पात्र मंगाय |
संध्या में कर वंदना, रोटी खीर जिमाय ||
सौजा दादी से कही, एक कहानी रोज |
बच्चों को बतलाइये, रखिये दिन में खोज ||
किलकारी में हैं छुपे, जीवन के सब रंग ।
राज-महल में शांता, बैठी ध्यान लगाय |
पावन मन्त्रों को जपे, दूरानुभूति आय ||
सृंगी के मस्तिष्क की, मिलती इन्हें तरंग ||
वार्ता होने लग पड़ी, रोमांचित हर अंग ||
सादर कर परनाम फिर, पूछी सब कुशलात ||
अंगदेश के बोलती, अपने सब हालात |
मिलता जब आशीष तो, जाय नेह में डूब |
बटुक परम भेजूं वहाँ, पढना चाहे खूब ||
स्वीकार करते ऋषी, करती ये अनुरोध |
एक शिक्षिका भेजिए, देवे कन्या-बोध ||
माता खट-खट कर रहीं, ये बातों में लीन |
टूटा जो संपर्क तो,तड़पी जैसे मीन ||
इक अति छोटे शब्द पर, बड़े बड़े विद्वान ।
युगों युगों से कर रहे, टीका व व्याख्यान ।
टीका व व्याख्यान, सृष्टि को देती जीवन ।
दालिम को जाकर मिली, अगले दिन समझाय |
परम बटुक गुरुकुल चले, हर्षित पढने जाय ||
वय है चौदह वर्ष की, पढने में था तेज |
आगे शिक्षा के लिए, रही शांता भेज ||
प्रीति होय न भय बिना, दंड बिना ना नीति ।
शिक्षा मिले न गुरु बिना, सद्गुण बिना प्रतीति ।
इक हफ्ते में आ गई, माँ का लेकर रूप |
नई शिक्षिका करे सब, शाळा के अनुरूप ||
एक कक्ष में दरी थी, उस पर चादर डाल |
तेरह बिस्तर की जगह, पंद्रह की तैयार ||
कक्ष दूसरा बन गया, फिर भोजन भंडार |
कार्यालय तीजा बना, कक्षा बनता चार ||
जिम्मेदारी भोज की, कौला रही उठाय |
सौजा दादी बन गई, बच्चों की प्रिय धाय ||
शांता पहली शिक्षिका, रूपा का सहयोग |
तख्ती खड़िया बँट गई,जमा हुवे कुछ लोग ||
रानी माँ आकर करें, शाळा शुभ-आरम्भ |
आड़े पर आता रहा, कुछ पुरुषों का दम्भ ||
जिम्मेदारी का वहन, करती बहन सटीक |
मौके पर मिलती खड़ी, बेटी सबसे नीक |
बेटी सबसे नीक, पिता की गुड़िया रानी |
चले पकड़ के लीक, बेटियां बड़ी सयानी |
रविकर का आशीष, बेटियाँ बढ़ें हमारी |
मातु-पिता जा चेत, समझ निज जिम्मेदारी ||
नित्य कर्म करवा रहीं, सौजा रूपा साथ |
आई रमणी रमण की, लगा रही खुद हाथ ||
पहले दिन की प्रार्थना, सादर शारद केर |
एकदन्त की विनय से, कटते बाधा-फेर ||
उबटन से ऊबी नहीं, मन में नहीं उमंग ।
पहरे है परिधान नव, सजा अंग-प्रत्यंग ।
सजा अंग-प्रत्यंग , नहाना केश बनाना ।
काजल टीका तिलक, इत्र मेंहदी रचवाना ।
मिस्सी खाना पान, महावर में ही जूझी ।
करना निज उत्थान, बात अब तक ना बूझी ।।
स्वस्थ बदन ही सह सके, सांसारिक सब भार |
बुद्धी भी निर्मल रहे, बढ़े सकल परिवार ||
रूपा के व्यायाम से, बच्चे थक के चूर ||
शुद्ध दूध मिलता उन्हें, घुघनी भी भरपूर ||
पहली कक्षा में करें, बच्चे कुछ अभ्यास ||
गोला रोटी सा करे, रेखा जैसे बांस ||
रिश्ते रिसियाते रहे, हिरदय हाट बिकाय ।
परिचित बेगाने हुए, ख़ुशी हेतु भरमाय ।
ख़ुशी हेतु भरमाय, नहीं अंतर-मन देखा।
धर्म कर्म व्यवसाय, बदल ब्रह्मा का लेखा ।
दीदी का उपदेश, सरल सा चलो समझते ।
दिल में रखे सहेज, कीमती पावन रिश्ते ।।एक घरी अभ्यास कर, गिनती सीखे जांय ||
दस तक की गिनती गिनें, रूपा रही बताय ||
सृजन-शीलता दे जला, तन-मन के खलु व्याधि ।
बुरे बुराई दूर हों, आधि होय झट आधि ।।
सृंगी के अभिलेख से, सीखी थी इक बात |
पारेन्द्रिय अभ्यास से, हुई स्वयं निष्णात ||
दोपहर में छुट्टी हुई, पंगत सभी लगाय |
हाथ-पैर मुंह धोय के, दाल-भात सब खाय ||
एक एक केला मिला, करते सब विश्राम |
कार्यालय में आय के, करे शांता काम ||
खेलों की सूची दिया, रूपा को समझाय |
दो घंटे का खेल हो, संध्या इन्हें जगाय ||
गौशाला से दूध का, भरके पात्र मंगाय |
संध्या में कर वंदना, रोटी खीर जिमाय ||
सौजा दादी से कही, एक कहानी रोज |
बच्चों को बतलाइये, रखिये दिन में खोज ||
किलकारी में हैं छुपे, जीवन के सब रंग ।
सबसे अच्छा समय वो, जो बच्चों के संग ।
जो बच्चों के संग, खिलाएं पोता पोती ।
दीपक प्रति अनुराग, प्यार से ताकें ज्योती ।
दीदी दादी होय, दीखती दमकी दृष्टी ।
ईश्वर का आभार, गोद में खेले सृष्टी । राज-महल में शांता, बैठी ध्यान लगाय |
पावन मन्त्रों को जपे, दूरानुभूति आय ||
तिनका मुँह में दाब के, मुँह में उनका नाम ।
सौ जोजन का सफ़र कर, पहुंचाती पैगाम ।
पहुंचाती पैगाम, प्रेम में पागल प्यासी ।
सावन की ये बूंद, बढाए प्यास उदासी ।
पंछी यह चैतन्य, किन्तु तन को न ताके ।
यह दारुण पर्जन्य, सताते जब तब आके ।।सृंगी के मस्तिष्क की, मिलती इन्हें तरंग ||
वार्ता होने लग पड़ी, रोमांचित हर अंग ||
सादर कर परनाम फिर, पूछी सब कुशलात ||
अंगदेश के बोलती, अपने सब हालात |
मिलता जब आशीष तो, जाय नेह में डूब |
बटुक परम भेजूं वहाँ, पढना चाहे खूब ||
स्वीकार करते ऋषी, करती ये अनुरोध |
एक शिक्षिका भेजिए, देवे कन्या-बोध ||
माता खट-खट कर रहीं, ये बातों में लीन |
टूटा जो संपर्क तो,तड़पी जैसे मीन ||
इक अति छोटे शब्द पर, बड़े बड़े विद्वान ।
युगों युगों से कर रहे, टीका व व्याख्यान ।
टीका व व्याख्यान, सृष्टि को देती जीवन ।
न्योछावर मन प्राण, सँवारे जिसका बचपन ।
हो जाता वो दूर, सभी सिक्के हों खोटे ।
कितनी वो मजबूर, कलेजा टोटे टोटे ।।
दालिम को जाकर मिली, अगले दिन समझाय |
परम बटुक गुरुकुल चले, हर्षित पढने जाय ||
वय है चौदह वर्ष की, पढने में था तेज |
आगे शिक्षा के लिए, रही शांता भेज ||
प्रीति होय न भय बिना, दंड बिना ना नीति ।
शिक्षा मिले न गुरु बिना, सद्गुण बिना प्रतीति ।
इक हफ्ते में आ गई, माँ का लेकर रूप |
नई शिक्षिका करे सब, शाळा के अनुरूप ||
अंग-देश में अकाल
शांता बिटिया वेद में, रही पूर्णत: दक्ष |
शिल्प-कला में भी निपुण, मंत्री के समकक्ष ||
उपवन में बैठी करें, राजा संग विचार |
अंगदेश को किस तरह, पूजे यह संसार ||
चर्चा में दोनों हुए, पूर्णतया तल्लीन |
सुख शान्ति से युक्त हो, धरती कष्ट विहीन ||
अंग भूमि से दूर हो, असुरों का संत्रास |
दूर भूख भय से रहे, करने बड़े प्रयास ||
लेने आश्रम के लिए, आये विप्र महान |
वर्षा ऋतु का आगमन, कृषी का सामान ||
अनदेखी राजा करे, क्रोधित होते साधु |
घोर उपेक्षा तू करे, है अक्षम्य अपराधु ||
हरे-भरे इस राज्य में, होगी न बरसात |
शापित करके चल पड़े, कर तगड़ा आघात ||
जाते देखा विप्र को, दूर हुआ अज्ञान |
क्षमा मांगते भूपती, जूं न रेंगे कान ||
भादों की बरसात भी, ठेंगा रही दिखाय |
शिल्प-कला में भी निपुण, मंत्री के समकक्ष ||
उपवन में बैठी करें, राजा संग विचार |
अंगदेश को किस तरह, पूजे यह संसार ||
चर्चा में दोनों हुए, पूर्णतया तल्लीन |
सुख शान्ति से युक्त हो, धरती कष्ट विहीन ||
अंग भूमि से दूर हो, असुरों का संत्रास |
दूर भूख भय से रहे, करने बड़े प्रयास ||
लेने आश्रम के लिए, आये विप्र महान |
वर्षा ऋतु का आगमन, कृषी का सामान ||
अनदेखी राजा करे, क्रोधित होते साधु |
घोर उपेक्षा तू करे, है अक्षम्य अपराधु ||
हरे-भरे इस राज्य में, होगी न बरसात |
शापित करके चल पड़े, कर तगड़ा आघात ||
जाते देखा विप्र को, दूर हुआ अज्ञान |
क्षमा मांगते भूपती, जूं न रेंगे कान ||
भादों की बरसात भी, ठेंगा रही दिखाय |
बूंद बूंद को तरसती, धरती फट फट जाय ||
झाड़ हुए झंखाड़ सब, बची पेड़ की ठूठ |
कृषक बिचारा क्या करे, छूटी हल की मूठ ||
खाने को लाले पड़े, कंठ सूखते जाँय |
खिचड़ी दोने में बटे, गंगा माय सहाय ||
जीव जंतु अकुला रहे, तड़पें छोड़ें प्राण |
त्राहि-त्राहि त्रिशुच सहे, त्रायमाण दे त्राण ||
अंगदेश की अति-कठिन, कड़ी परीक्षा होय |
नगर सेठ मंत्री सभी, रहे काम में खोय ||
शाला में हर दिन बढ़ें, कन्याएं दो-चार |
चार कक्ष करने पड़े, और अधिक तैयार ||
शांता ने अपना दिया, सारा कोष लुटाय |
सन्यासिन सी बन रहे, कन्या रही पढ़ाय ||
दुःख की घड़ियाँ गिन रहे, घडी-घडी सरकाय ।
धीरज हिम्मत बुद्धि से, जाएगा विसराय ।
जाएगा विसराय, लगें फिर सर में गोते ।
धीरज हिम्मत बुद्धि से, जाएगा विसराय ।
जाएगा विसराय, लगें फिर सर में गोते ।
लो मन को बहलाय, धीर सज्जन न खोते ।
चक्र समय शाश्वत , घूम लाये दिन बढ़िया ।
होना मत कमजोर, गिनों कुछ दुःख की घड़ियाँ ।।
भीषण गर्मी से हुई, कुछ बाला बीमार |
वैद्य-राज की औषधी, माँ का देत दुलार ||
मिट्टी की पट्टी करे, जहाँ रोग उपचार |
गांधी जी का शुद्ध चित्त, ठीक करे बीमार |
गांधी जी का शुद्ध चित्त, ठीक करे बीमार |
ठीक करे बीमार, स्वयं भी रहे निरोगी |
उदाहरण ना अन्य, मिलें ना ऐसे योगी |
बड़ा भयंकर प्लेग, जहाँ गुम सिट्टी-पिट्टी |
गई व्यवस्था भाग, वहाँ बापू की मिट्टी ||
कौला हर दिन शाम को, कहती कथा बुझाय |
तरह तरह के स्वांग से, सबका मन बहलाय ||
संसाधन सा जानिये, संयुत कुल परिवार |
गाढ़े में ठाढ़े मिलें, बिना लिए आभार |
गाढ़े में ठाढ़े मिलें, बिना लिए आभार |
बिना लिए आभार, कृपा की करते वृष्टी |
दादा दादी देव, दुआ दे दुर्लभ दृष्टी |
सच्चे रिश्ते मुफ्त, हमेशा भला इरादा |
रखे सकल परिवार, सदा अक्षुण मर्यादा |
कभी कभी बादल घिरें, गरजे खुब चिग्घाड़ |
बरसें दूजे देश में, जाँय कलेजा फाड़ ||
बड़े पुन्य का कार्य है, संस्कार आभार ।
तपे जेठ दोपहर की, मचता हाहाकार ।
मचता हाहाकार, पेड़-पौधे कुम्हलाये ।
जीव जंतु जब हार, बिना जल प्राण गँवाए ।
हे मूरत तू धन्य , कटोरी जल से भरती ।
दो मुट्ठी भर कनक , हमारी विपदा हरती ।।
तपे जेठ दोपहर की, मचता हाहाकार ।
मचता हाहाकार, पेड़-पौधे कुम्हलाये ।
जीव जंतु जब हार, बिना जल प्राण गँवाए ।
हे मूरत तू धन्य , कटोरी जल से भरती ।
दो मुट्ठी भर कनक , हमारी विपदा हरती ।।
अनुष्ठान जप तप करें, पर ईश्वर प्रतिकूल |
ऊपर उड़ते गिद्ध-गण, नीचे उड़ती धूल ||
धीरे धीरे कम हुआ, सूरज का संताप |
मार्गशीर्ष की शीत से, रहे लोग अब काँप ||
कैकय का गेंहूँ वणिक, बेचें ऊंचे दाम |
अवधराज पर बांटते, सबको धान तमाम ||
१)
अत्याधिक हुशियार हैं, दुनिया मूर्ख दिखाय।
जोड़-तोड़ से हर जगह, लेते जगह बनाय ।।
२)
सचमुच में हुशियार हैं, हित पहलें ले साध ।
कर्म वचन में धार है , बढ़ते रहें अबाध ।।
३)
इक बन्दा सामान्य है, साधे जीवन मूल ।
कुल समाज भू देश हित, साधे सरल उसूल ।
४)
इस श्रेणी रविकर पड़ा, महामूर्ख अनजान ।
दुनियादारी से विलग, माने चतुर सयान ।।
अंगदेश पर जो पड़ी, यह दुर्भिक्षी मार |
आगामी गर्मी भला, कैसे होगी पार ||
अंतर-मन से बतकही, होती रहती मौन ।
सिंहावलोकन कर सके, हो अतीत न गौण ।
हो अतीत न गौण, जांच करते नित रहिये ।
सिंहावलोकन कर सके, हो अतीत न गौण ।
हो अतीत न गौण, जांच करते नित रहिये ।
चले सदा सद्मार्ग, निरंतर बढ़ते रहिये ।
परखो हर बदलाव, मुहब्बत अपनेपन से ।
रहे अबाध बहाव, प्रेम-सर अंतर्मन से |
लोग पलायन कर रहे, राजा हैं मजबूर |
बड़े मनीषी हैं जमा, सृन्गेश्वर में दूर ||
किया आकलन काल का, ढूंढा सहज उपाय |
रिस्य सृंग का ब्याह शुभ, शांता से हो जाय ||
लेकर इस सन्देश को, परम बटुक हैं जात |
साधू दुल्हा सोच के, माँ चम्पा अकुलात ||
शाला आये सोम्पद, रूपा से टकरात |
सुन्दरता ऐसी लगी, जैसे हो अभिजात ||
नथुनी संग सुनार के, करती नित गुणगान ।
सुन्दर काया जो दिया, भूली वो नादान ।
भूली वो नादान, नाक नथुनी का अन्तर ।
लागे भला सुनार, याद न करती ईश्वर ।
अगर कटे यह नाक, करेगी क्या तू बाला ।
प्रकट करो आभार, प्रभू जो नाक सम्भाला ।।
कार्यालय में जा जमे, दीदी पहुंची जाय |
विषम परिस्थिति पर वहां, वे दोनों बतलाय ||
सावन में भी न हुई, अब तक इक बरसात |
दीदी की आज्ञा मिले, आये तभी बरात ||
भाई मेरी शर्त दो, पूरी करिए आप |
मुझको न एतराज है, मिटे विकट संताप ||
शाळा का इक भवन हो, मिले बड़ा अनुदान |
संरक्षक बन कर रहें, हो सबका कल्याण ||
तन मन धन जीवन करूँ, दीदी तेरे नाम |
शर्त दूसरी भी कहो, निपटाने हैं काम ||
रूपा लेकर आ गई, पानी के दो पात्र |
चेहरे पर थी विद्वता, थी शांता की छात्र ||
सिलवट पर पिसता रहा, याद वाद रस प्रेम ।
ऐ लोढ़े तू रूठ के, भाँड़ रहा है गेम ।
भाँड़ रहा है गेम, नेम शाश्वत अब टूटे ।
वासर ज्यूँ अखरोट, नहीं तेरे बिन फूटे ।
पाता था नित चैन, लुढ़क जो बदले करवट ।
बिन तेरे दिन रैन, तड़पता रहता सिलवट ।।
शांता बोली फिर कभी, रख दूंगी यह बात |
आगे काम बढ़ाइए, हो जाये बरसात ||
बंधन काटे ना कटे, कट जाए दिन-रैन ।
विकट निराशा से भरे, आशा दीदी बैन ।
आशा दीदी बैन, चैन मन को ना आये ।
विकट निराशा से भरे, आशा दीदी बैन ।
आशा दीदी बैन, चैन मन को ना आये ।
न्योछावर सर्वस्व, बड़ी बगिया महकाए ।
फूलों को अवलोक, लोक में खुशबू तेरी ।
नारी मत कर शोक, मान ले मैया मेरी ।।
शांता बाहर ज्यों गई, पड़ी सोम की दृष्ट |
मित्रों ने सच ही कहा, रूपा है उत्कृष्ट ||
कैसी शाळा चल रही, कितनी कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||
जाते हैं युवराज तो, कर उनको परनाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक कर काम ||
बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||
गुरुवर दीदी के लिए, भेजे हैं रुद्राक्ष |
रूपा जानी यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||
हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ |
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||
संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||
परम बटुक के साथ में, जाँय सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||
लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||
परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष ||
दीदी ने भेजा प्रभू , यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||
लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय |
सुन्दर क्यारी साजिए, राखूँ पौध बनाय ||
कैसी शाळा चल रही, कितनी कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||
जाते हैं युवराज तो, कर उनको परनाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक कर काम ||
बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||
गुरुवर दीदी के लिए, भेजे हैं रुद्राक्ष |
रूपा जानी यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||
हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ |
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||
संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||
परम बटुक के साथ में, जाँय सोम युवराज |
बिबिंडक के शरण में, होंय सिद्ध सब काज ||
लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||
परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष ||
गुरुवर की होवे कृपा, मिले मार्ग-निर्देश |
शंकर के दर्शन सुलभ, चढ़ने में क्या क्लेश ??
शंकर के दर्शन सुलभ, चढ़ने में क्या क्लेश ??
चढ़ने में क्या क्लेश, सीड़ियाँ चढ़ते जाएँ ।
जय जय जय गुरुदेव, खटाख़ट बढ़ते जाएँ ।
बुद्धू पंगु-गंवार, भक्त भोला भा रविकर ।
सर-सरिता गिरि-खोह, कहाँ बाधा हैं गुरुवर ।।दीदी ने भेजा प्रभू , यह इक मुट्ठी धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||
लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय |
सुन्दर क्यारी साजिए, राखूँ पौध बनाय ||
वार्षिक-उत्सव
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीयी ज्ञान से, रही शांता देख ||
धयान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||
चाहे तारे तोड़ना, तोड़ ना मेरी चाह ।
रख इक टुकड़ा हौसला, वाह वाह भइ वाह ।।
धयान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
अबला की पर-निर्भरता, सहे सदा आघात ||
नव महिने में जो भरे, मानव तन में प्राण |
ग्यारह में क्यों न करे, अपना नव-निर्माण ||
मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||
व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता हुई विचारमग्न, सच्चे सरल उसूल ||
सावन में पूरे हुए, पहले ग्यारह मास |
बालाओं के लिए थे, ये अलबेले ख़ास ||
कन्याएं साक्षर हुईं, लिख लेती निज नाम |
फल-फूलों के चित्र से, खेलें वे अविराम ||
ग्यारह महिने में पढ़ीं दो वर्षों का पाठ |
तीन पांच भी बूझती, बारह पंजे साठ ||
करने में सक्षम हुईं, अपने जोड़ -घटाव |
दिन बीते कुल तीन सौ, बापू वापस आव ||
आई श्रावण पूर्णिमा, राखी हैं तैयार |
सूत कात के रुई से, ताक रही हैं द्वार ||
मात-पिता के साथ में, भाई कुल दो-चार |
सब कन्याएं लें मना, राखी का त्योहार ||
स्नेह-सूत्र को बाँध के, बालाएं अकुलायं |
बापू उनको फिर कहीं, वापस न ले जाँय ||
दो कन्याएं रो रहीं, मिला नहीं परिवार |
कैसे हैं माता-पिता, कैसे देत विसार ||
पता किया जब हाल तो, मिला दुखद सन्देश |
दक्षिण दिश को थे गए, असुरों के परदेश ||
वक्त वक्त की बात है, बढ़िया था वह दौर |
समय बदलता जा रहा, कुछ बदलेगा और |
कुछ बदलेगा और, आग से राख हुई जो |
पानी धूप बयार, प्यार से तनिक छुई जो |
मिट जायेगा दर्द, सर्द सी सिसकारी में |
ढक जाएगा गर्द, और फिर लाचारी में |
शांता अब देने लगी, उनपर वेशी ध्यान |
कैसे भी पूरे करूँ, इनके सब अरमान ||
अपने गहने भी किये, इस शाळा को भेंट |
दो कपड़ों में रह रही, खुद को पुन: समेट ||
दो कन्याएं रो रहीं, मिला नहीं परिवार |
कैसे हैं माता-पिता, कैसे देत विसार ||
पता किया जब हाल तो, मिला दुखद सन्देश |
दक्षिण दिश को थे गए, असुरों के परदेश ||
वक्त वक्त की बात है, बढ़िया था वह दौर |
समय बदलता जा रहा, कुछ बदलेगा और |
कुछ बदलेगा और, आग से राख हुई जो |
पानी धूप बयार, प्यार से तनिक छुई जो |
मिट जायेगा दर्द, सर्द सी सिसकारी में |
ढक जाएगा गर्द, और फिर लाचारी में |
शांता अब देने लगी, उनपर वेशी ध्यान |
कैसे भी पूरे करूँ, इनके सब अरमान ||
अपने गहने भी किये, इस शाळा को भेंट |
दो कपड़ों में रह रही, खुद को पुन: समेट ||
बारह बाला घर गईं, थी जो दस से पार |
कर के सब की वंदना, देकर के आभार ||
नीति नियम रक्खी बना, दस तक शिक्षा देत |
कथा जुबानी सिखा के, प्रति अधिकार सचेत ||
दस की बाला को सिखा, निज शरीर के भेद |
साफ़ सफाई अहम् है, काया स्वच्छ सुफेद ||
वाणी मीठी हो सदा, हरदम रहे सचेत |
चंडी बन कर मारती, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||
बाखूबी वह जानती, सद-स्नेहिल स्पर्श |
गन्दी नजरें भापती, भूले न आदर्श ||
दस की बाला को सिखा, निज शरीर के भेद |
साफ़ सफाई अहम् है, काया स्वच्छ सुफेद ||
वाणी मीठी हो सदा, हरदम रहे सचेत |
चंडी बन कर मारती, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||
बाखूबी वह जानती, सद-स्नेहिल स्पर्श |
गन्दी नजरें भापती, भूले न आदर्श ||
सालाना जलसा हुआ, आये अंग-नरेश |
प्रस्तुतियां सुन्दर करें, भाँति-भाँति धर भेस ||
इक नाटक में था दिखा, निपटें कस दुर्भिक्ष |
तालाबों की महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||
जब अकाल को झेलता, अपना सारा देश |
कालाबाजारी विकट, पहुंचाती है ठेस ||
बर्बादी खाद्यान की, लो इकदम से रोक |
जल को अमृत जानिये, कन्या कहे श्लोक ||
गुरुकुल के आचार्य का, प्रस्तुत है उदबोध ||
नारी शिक्षा पर रखें, अपने शाश्वत शोध ||
दस शिक्षक के तुल्य है, इक आचार्य महान |
सौ आचार्यों से बड़ा, पिता तुम्हारा जान ||
और हजारों गुनी है, इक माता की शान |
उनकी शिक्षा सर्वदा, उत्तम और महान ||
गार्गी मैत्रेयी सरिस, आचार्या कहलांय |
गुरु पत्नी आचार्यिनी, कही सदा ही जाँय ||
कात्यायन की वर्तिका, में सीधा उल्लेख |
महिला लिखती व्याकरण, अति प्रभावी लेख ||
महिला शिक्षा पर करे, जो भी खड़े सवाल |
पतंजलि को देखिये, आग्रह- पूर्व निकाल ||
शांता जी ने है किया, बड़ा अनोखा कार्य |
देता खुब आशीष हूँ, मै उनका आचार्य ||
भेजूंगा कल पाठ्यक्रम, पांच साल का ज्ञान |
तीन वर्ष में ये करें, कन्या गुण की खान ||
अब राजा अनुदान को, चार गुना कर जाँय |
शांता सन्यासिन बनी, जीवन रही बिताय ||
शाळा की चिंता लिए, दुरानुभूती साध |
सृंगी से करने लगी, चर्चा परम अगाध ||
त्याग प्रेम बलिदान की, नारी सच प्रतिमूर्ति ।
दफनाती सारे सपन, सरल समस्या-पूर्ति ।
सरल समस्या-पूर्ति , पाल पति-पुत्र-पुत्रियाँ ।
आश्रित कुल परिवार, चलाती कुशल स्त्रियाँ ।
दफनाती सारे सपन, सरल समस्या-पूर्ति ।
सरल समस्या-पूर्ति , पाल पति-पुत्र-पुत्रियाँ ।
आश्रित कुल परिवार, चलाती कुशल स्त्रियाँ ।
निभा रही दायित्व, किन्तु अधिकार घटे हैं ।
हरते जो अधिकार, पुरुष वे बड़े लटे हैं ।।
हरते जो अधिकार, पुरुष वे बड़े लटे हैं ।।
विस्तृत चर्चा हो गई, एक पाख ही हाथ |
छूटेगा सचमुच सकल, कन्याओं का साथ ||
करे व्यवस्था रोज ही, सुदृढ़ अति मजबूत |
सृन्गेश्वर की शिक्षिका, पाती शक्ति अकूत ||
आचार्या प्रधान बन, लेत व्यवस्था हाथ |
सौजा कौला साथ में, रूपा का भी साथ ||
ब्रह्मावादिन आत्रेयी, करती अग्निहोत्र |
बालाओं की बन रही, संस्कार की स्रोत्र ||
साध्यवधू शांता करे, सृगेश्वर का ध्यान |
सखियों के सहयोग से, कार्य हुए आसान ||
वरुण देव करते रहे, मिटटी महा पलीद |
रहती बंजर कोख, कर्म कुछ अच्छे कर ले |
बड़ा हृदय-विस्तार, गढ़न गढ़ करके भर ले |
कोमल-आर्द्र स्वभाव, उगेंगे अंकुर प्यारे |
मत चल हरदम दांव, सही कर रखो किनारे ||
आशंका चिंता-भँवर, असमंजस में लोग ।
चिंतामणि की चाह में, गवाँ रहे संजोग ।
गवाँ रहे संजोग, ढोंग छोडो ये सारे ।
मठ महंत दरवेश, खोजते मारे मारे ।
एक चिरंतन सत्य, फूंक चिंता की लंका ।
हँसों निरन्तर मस्त, रखो न मन आशंका ।।
शांता-सृंगी विवाह
इन्तजार इस व्याह का, करते राजा-रंक |
अति लम्बे दुर्भिक्ष का, झेला दारुण-डंक ||
इन्तजार की इन्तिहा, इम्तिहान इतराय ।
मिलो यार अब तो सही, विरह सही न जाय ।।वरुण देव करते रहे, मिटटी महा पलीद |
रिस्य रिसर्चर सृंग से, जागी अब उम्मीद ||
शांता के सद्कर्म से, अब होगा कल्याण |
तड़प-तड़प जीते रहे, बच जायेंगे प्राण ||
रीति-कर्म होने लगे, वैवाहिक संस्कार |
राजमहल के सामने, लागी भीड़ अपार ||
भंडारे में आ रहे, दूर दूर से लोग |
पांच दिनों से खा रहे, सारे नियमित भोग ||
सृन्गेश्वर में सज गई, शंकर सी बारात |
परम बटुक लेकर चला, वर्षा की सौगात ||
दुल्हे संग इक पोटली, रही बगल में साज |
तरह तरह के साज से, गुंजित मधु-आवाज ||
दस बारह दिन से यहाँ, गरजें बादल खूब |
बेमतलब के नाट्य से, रही शांता ऊब ||
गरज हमारी देख के, गरज-गरज घन खूब ।
बिन बरसे वापस हुवे, धमा-चौकड़ी ऊब ।
धमा-चौकड़ी ऊब, खेत-खलिहान तपे हैं ।
तपते सड़क मकान, जीव भगवान् जपे है ।
त्राहिमाम हे राम, पसीना छूटे भारी ।
भीगे ना अरमान, भीगती देह हमारी ।।
जैसे चंपा नगर में, करता वर परवेश |
भूरे बादल छा गए, जस ताकें आदेश ||
सादर अगवानी करे, राजा राजकुमार |
बिबंडक ऋषि का सभी, करते हैं आभार ||
होय मंगलाचार इत, उत पानी बुंदियाय |
दादुर टर-टर बोलते, जीव-जंतु हर्षाय ||
रचना ईश्वर ने रची, तन मन मति अति-भिन्न |
प्राकृत के विपरीत गर, करे खिन्न खुद खिन्न |
प्राकृत के विपरीत गर, करे खिन्न खुद खिन्न |
इधर बराती चापते, छक के छप्पन भोग |
परम बटुक ढूंढे उधर, अच्छा एक सुयोग ||
साधारण से वेश में, पीयर धोती पाय |
धीरे धीरे शांता, बैठी मंडप आय ||
दृष्टि-भेद से उपजते, अपने अपने राम |
सत्य एक शाश्वत सही, वो ही हैं सुखधाम |
जमे पुरोहित उभय पक्ष, सुन्दर लग्न विचार |
गठबंधन करके भये, फेरे को तैयार ||
पहले फेरे के वचन, पालन-पोषण खाद्य |
संगच्छध्वम बोलते, बाजे मंगल वाद्य ||
स्वस्थ और सामृद्ध हो, त्रि-आयामी स्वास्थ |
भौतिक औ अध्यात्म सह, मिले मानसिक आथ ||
धन-दौलत शक्ति मिले, ख़ुशी मिले या दर्द |
भोगे मिलकर संग में, दोनों औरत-मर्द ||
इक दूजे का नित करें, आदर प्रति-सम्मान |
परिवारों के प्रति रहे, इज्जत एक समान ||
सुन्दर योग्य बलिष्ठ हो, अपने सब संतान |
कहें पांचवा वचन ये, विनवौं हे भगवान् ||
शान्ति-दीर्घ जीवन मिले, रहे हमारा साथ |
सिद्ध सदा करते रहें, इक दूजे के स्वार्थ ||
एक दूसरे के प्रती, समझदार साहचर्य |
वफादार बनकर रहें, बने रहें आदर्य ||
सातों वचनों को करें, दोनों अंगीकार |
बारिश की लगती झड़ी, होय मूसलाधार ||
वर्षा होती एक सी, उर्वर लेती सोख |
ऊसर सर सर दे बहा, रहती बंजर कोख |
ऊसर सर सर दे बहा, रहती बंजर कोख |
रहती बंजर कोख, कर्म कुछ अच्छे कर ले |
बड़ा हृदय-विस्तार, गढ़न गढ़ करके भर ले |
कोमल-आर्द्र स्वभाव, उगेंगे अंकुर प्यारे |
मत चल हरदम दांव, सही कर रखो किनारे ||
तीन दिनों तक अनवरत, भारी वर्षा होय |
घुप्प अँधेरा छा रहा, धरती दिया भिगोय ||
किच-किच होता महल में, लगे ऊबने लोग |
भोजन की किल्लत हुई, खले लाग संयोग ||
सूर्य-देवता ने दिया, दर्शन चौथे रोज |
मस्ती में सब झूमते, नव- आशा नव-ओज ||
वैवाहिक सन्दर्भ में, शुरू हुई फिर बात |
विधियाँ सब पूरी हुईं, विदा होय बारात ||
शांता ने सादर कहा, सुनिए प्रिय युवराज |
कन्याशाळा के भवन, का कैसा है काज ||
मुझे देखनी है प्रगति, ले चलिए अस्थान |
सृंगी-रूपा भी चले, आत्रेयी मेहमान ||
आधा से ज्यादा बना, दो एकड़ फैलाव |
सृंगी बोले बटुक से, वह थैली ले आव ||
गीली थैली जब तलक, बटुक वहां पर लाय |
चार क्यारियाँ स्वयं ही, सृंगी रहे बनाय ||
शांता ने रुद्राक्ष के, बदले भेजा धान |
औषधियेय प्रभाव से, डाली इसमें जान ||
मन्त्रों से ये सिद्ध हैं, उच्च-कोटि के धान |
अन्नपूर्णा की कृपा, सदा सर्वदा मान ||
चार क्यारियों में इन्हें, रोपें स्त्री चार ||
बारह-मासी ये उगें, जस जिसका व्यवहार ||
कन्याओं को नित मिले, मन-भर बढ़िया भात ||
द्रोही गर इनको छुवे, होय तुरत आघात ||
आत्रेयी रूपा सहित, शांता रमणी जाय |
अपनी अपनी क्यारियाँ, सुन्दर देत सजाय ||
बोलें भैया सोम्पद, इक-हजार अनुदान |
नियमित मिलिहै कोष से, रुके नहीं अभियान ||
दीदी मैंने शर्त ये, पूरी कर दी आज |
दूजी अपनी शर्त का, खोलो अबतो राज |
जुटे बहुत से लोग हैं, रहे राज अब राज |
कभी बाद में मैं कहूँ, क्या तुमको एतराज ||
दीदी मैं तो आपका, अपना छोटा भाय |
हर इच्छा पूरी करूँ, गंगे सदा सहाय ||
सृंगी के आशीष से, बहुरे मंगल-मोद |
हरी भरी होने लगी, अंगदेश की गोद ||
रूपा के सानिध्य में, चंचल राजकुमार |
आँख बचा कर सभी की, करता आँखें चार ||
नयन से चाह भर, वाण मार मार कर
ह्रदय के आर पार, झूरे चला जात है |
नेह का बुलाय लेत, देह झकझोर देत
झंझट हो सेत-मेत, भाग भला जात है |
बेहद तकरार हो, खुदी खुद ही जाय खो
पग-पग पे कांटे बो, प्रेम गीत गात है |
मार-पीट करे खूब, प्रिय का धरत रूप
नयनों से करे चुप, ऐसे आजमात है ||
शांता से छुपता नहीं, लेकिन यह व्यवहार |
रमणी को वह सौंपती, रूपा का सब भार ||
मिलन आस का वास हो, अंतर्मन में ख़ास ।
सुध-बुध बिसरे तन-बदन, गुमते होश-हवाश ।
गुमते होश-हवाश, पुलकती सारी देंही ।
तीर भरे उच्छ्वास, ताकता परम सनेही ।
वर्षा हो न जाय, भिगो दे पाथ रास का ।
अब न मुझको रोक, चली ले मिलन आस का ।।
मुश्किल में, दिल में मिले, बढ़े आत्म-विश्वास |
कंटक-पथ पर बढ़ चले, साथ मिले जो ख़ास |
साथ मिले जो ख़ास, रास हरदम आता है |
मात्र साथ एहसास, हमें रविकर भाता है |
जीवन इक संघर्ष, हमेशा विजय कामना |
बढ़ता मित्र सहर्ष, हाथ तू "सदा" थामना ||
बीस वर्ष का हो गया, लम्बा यहाँ प्रवास |
कंटक-पथ पर बढ़ चले, साथ मिले जो ख़ास |
साथ मिले जो ख़ास, रास हरदम आता है |
मात्र साथ एहसास, हमें रविकर भाता है |
जीवन इक संघर्ष, हमेशा विजय कामना |
बढ़ता मित्र सहर्ष, हाथ तू "सदा" थामना ||
बीस वर्ष का हो गया, लम्बा यहाँ प्रवास |
शांता आगे बढ़ चली, फिर से नए निवास ||
है कैसी यह बिडम्बना, नारी जैसे धान |
बार-बार बोई गई, बदल-बदल स्थान ||
धान कूट के फिर मिले, चावल निर्मल-श्वेत |
खेत-खेत की यात्रा, हो जाती फिर खेत ||
नादाँ अब तक खोज, बड़े वादे दावे थे |
राष्ट्र-भक्ति के गीत, सुरों में खुब गावे थे |
दृष्टि-दोष दम फूल, झूल रस्ते में जाते |
भूले सही उसूल, गलत अनुसरण कराते ||
आश्रम में शांता
परम बटुक संग में लगा, रिस्य सृंग पद भूल |
कौला का वियोग
अंग-अवध छूटे सभी, सृंगी के संग सैर |
शांता साध्वी सी बनी, चाहे सबकी खैर ||
झूठ-सांच की आग में, झुलसे अंतर रोज |
किन्तु हकीकत न सके, नादाँ अब तक खोज |
किन्तु हकीकत न सके, नादाँ अब तक खोज |
नादाँ अब तक खोज, बड़े वादे दावे थे |
राष्ट्र-भक्ति के गीत, सुरों में खुब गावे थे |
दृष्टि-दोष दम फूल, झूल रस्ते में जाते |
भूले सही उसूल, गलत अनुसरण कराते ||
कौला मुश्किल से सहे, हुई शांता गैर |
खट्टे-मिट्ठे दृश्य सब, गए आँख में तैर ||
चौपाई
रावण की दारुण अय्यारी | कौशल्या पर पड़ती भारी ||
कौशल्या का हरण कराये | पेटी में धर नदी बहाए ||
दशरथ संग जटायू धाये | पेटी सागर तट पर पाए ||
नारायण जप नारद आये | कौशल्या संग व्याह कराये ||
अवध नगर में खुशियाँ छाये | खर-दूषण योजना बनाये |
कौशल्या का गर्भ गिराया | पल-पल रावण रचता माया ||
सुग्गासुर आया इक पापी | गिद्धराज ने गर्दन नापी ||
नव-दुर्गा में खीर जिमाये | नन्हीं-मुन्हीं कन्या आये ||
रानी फिर से गर्भ धारती | कौला विपदा विकट टारती ||
कौशल्या का छद्म वेश धर | सात मास मैके में जाकर ||
रावण के षड्यंत्र काटती | कौशल्या को ख़ुशी बांटती ||
शांता खुशियाँ लेकर आये | कौला को भी पास बुलाये ||
खुशियों पर ग्रहण लग जाता | शांता का इक पैर पिराता ||
नीमसार में सारे आते | दूर-दूर से वैद्य बुलाते ||
दशरथ कौशल्या सम गोती | गोतज से बीमारी होती ||
कन्या को अब गोद दीजिये | औषधि का नित लेप कीजिये ||
अंगदेश के राजा आते | शांता को ले गोद खिलाते ||
चम्पारानी खुब हरसाती | सूनी बगिया खिल-खिल जाती ||
दशरथ सुन्दर नाव सजाते | दास दासियाँ भी भिजवाते ||
कौला बच्ची को बहलाती | रस्ते में दालिम को पाती ||
दालिम सौजा का सौतेला | लड़े बाघ से निपट अकेला ||
उससे भाई एक बचाए | एक पूत को बाघ मिटाए ||
राजा देता ग्राम निकाला | किन्तु स्वयं ही उसे संभाला ||
शांता का रक्षक बन जाता | किस्मत पर अपनी मुस्काता ||
शांता अंगदेश आ जाती | कौला औषधि रोज लगाती ||
नामकरण में दशरथ आये | शांता पहला कदम बढाए ||
दशरथ सुन्दर नाव सजाते | दास दासियाँ भी भिजवाते ||
कौला बच्ची को बहलाती | रस्ते में दालिम को पाती ||
दालिम सौजा का सौतेला | लड़े बाघ से निपट अकेला ||
उससे भाई एक बचाए | एक पूत को बाघ मिटाए ||
राजा देता ग्राम निकाला | किन्तु स्वयं ही उसे संभाला ||
शांता का रक्षक बन जाता | किस्मत पर अपनी मुस्काता ||
शांता अंगदेश आ जाती | कौला औषधि रोज लगाती ||
नामकरण में दशरथ आये | शांता पहला कदम बढाए ||
चम्पारानी गोद खिलाती | पुत्र सोम प्यारा सा पाती ||
कौला भी बन जाती माता | रूपा और बटुक का नाता ||
शांता से ज्यादा गहराता | बटुक पास में उसके जाता ||
गुरुकुल पढ़ने सोम जा रहे | नियमित घर आचार्य आ रहे ||
शांता को वे रोज पढ़ाते | रूपा और बटुक भी जाते ||
आठ साल में पूरी शिक्षा | शांता करती पास परीक्षा ||
वन विहार को शांता जाती | किन्तु महल में नहीं बताती ||
रूपा और बटुक भी जाए | काका अपनी जान लड़ाए ||
मिली ताड़का घेरी काका | काका बोला भाग तडाका ||
जान बची तो लाख उपाया | कई दिनों में काका आया ||
सृन्गेश्वर में सृंगी मिलते | दोनों के मन-हृदय पिघलते ||
शोध पे लम्बी चर्चा होती | पुत्रकाम का सूत्र पिरोती ||
दशरथ यग्य कराते द्वारे | चार पुत्र पा जाते प्यारे ||
पड़े मुसीबत राम सहारा | भरत लखन शत्रुघ्न दुलारा ||
पड़े मुसीबत राम सहारा | भरत लखन शत्रुघ्न दुलारा ||
शांता की जागी इक इच्छा | शुरू कराऊं नारी शिक्षा ||
कौशल्या शाला वह खोले | आचार्या बाला की हो ले ||
सूखा और अकाल अंग में | मरते जैसे लोग जंग में ||
पूरे साल सूखती धरती | शांता जन-जन के दुःख हरती ||
धरती के वस्त्र पीत, अम्बर की बढ़ी प्रीत
भवरों की हुई जीत, फगुआ सुनाइये ।
जीव-जंतु हैं अघात, नए- नए हरे पात
देख खगों की बरात, फूल सा लजाइये ।
चांदनी शीतल श्वेत, अग्नि भड़काय देत
कृष्णा को करत भेंट, मधुमास आइये ।
धीर जब अधीर हो, पीर ही तकदीर हो
उनकी तसवीर को , दिल में बसाइए ।।
दोहे
रो-गाकर करते विदा, छूटा फिर से देस |
किस्मत में उसके लिखा, बार बार परदेस ||
सभी हितैषी छूटते, रिश्ते बने नवीन |
परम बटुक ही है यहाँ, शिक्षा में लवलीन ||
पेटी इक श्रृंगार की, संग में मंगल-हार |
इक माला रुद्राक्ष की, सृंगी का उपहार ||
प्रियवर मैं समझी नहीं, भेजा जो रुद्राक्ष |
धारण करने से कहीं, काक होय ताम्राक्ष ||
समझे बिन कैसे धरी, फिर सन्यासिन रूप |
सुख सुविधा सारी तजी, त्याग भूप का कूप ||
निश्छल शांता की हँसी, लेती तब मन -मोह |
प्रतिदिन उनकी प्रीत है, करती सद-आरोह ||
शाळा को अर्पित किया, सारा मंगल कोष |
मंगल-मंगल हो रहा, मंगलमय संतोष ||
कन्या हर परिवेश में, पाए शिक्षा दान |
शिक्षित माता दे बना, सचमुच देश महान ||
आधी आबादी अगर, पाए न अधिकार |
सारे शासक-वर्ग को, है सौ-सौ धिक्कार ||
मैंने भेजा धान जब, हमको था यह भान |
रिस्य बूझ लेंगे तुरत, देंय उचित अस्थान ||
एक कदम आगे बढे, करवाया एहसास |
चार क्यारियों से किया, मात-पिता के पास ||
आश्रम में शांता
दो दिन का करके सफ़र, पहुंची कोसी तीर |
आश्रम में स्वागत हुआ, मिटी पंथ की पीर ||
अगला दिन अति व्यस्त था, अति-प्रात: उठ जाय |
आज्ञा लेकर सास की, नित्य कर्म निबटाय ||
कोशी की पूजा करे, कुलदेवी के बाद |
सृन्गेश्वर को पूजती, मन में अति-अह्लाद ||
सास ससुर के चरण छू, बना रही पकवान |
आश्रम के सब जन बने, शांता के मेहमान ||
बड़ी रसोई में जले, चूल्हे पूरे सात |
दही बड़े जुरिया बनी, उरद-दाल सह भात ||
आलू-गोभी की पकी, सब्जी भी रसदार |
मेवे वाली खीर से, छाई वहाँ बहार ||
दस पंगत लम्बी लगी, कुल्हड़ पत्तल साज |
भोजन लगी परोसने, अन्नपूर्णा आज ||
परम बटुक संग में लगा, रिस्य सृंग पद भूल |
अतिथि हमारे देवता, सबको किया क़ुबूल ||
परम बटुक से खुश सभी, शारद सदा सहाय |
एक बार के पाठ से, गूढ़ विषय आ जाय ||
पढ़े चिकित्सा शास्त्र वो, विषय बहुत ही गूढ़ ||
परंपरा के ज्ञान पर, होकर के आरूढ़ ||
मन मानव कल्याण में, धन दौलत को भूल |
दीन-दुखी बीमार की, सेवा बने उसूल ||
नए शोध पर रख रहा, अपनी तीक्ष्ण निगाह |
कम कैसे हो सकेगी, अति-दर्दीली आह|
दीदी की ससुराल में, बनकर सच्चा भाय |
सेवा सुश्रुषा करे, गुरुकुल को महकाय ||
दूर-दूर से आ रहे, याचक-दाता द्वार |
रोगी भी करवा रहे, आश्रम में उपचार ||
कुछ प्रतिनिधि विनती करें, कृपा कीजिये नाथ |
घाटी की बिगड़ी दशा, नहीं सूझता पाथ ||
देव हिमाचल भूमि में, बिगढ़ रहे हालात |
वर्षा ऋतु आधी गई, हुई नहीं बरसात ||
खाने के लाले पड़े, नंगे होंय पहाड़ |
हिंसक जीवों की वहाँ, गूंजे लगी दहाड़ ||
देव मनुज गन्धर्व सब, ऋषिवर परजा तोर |
घाटी की विपदा हरो, जन जन रहा अगोर ||
ऋषी बिबंडक ने कहा, रखिये मन में धीर |
जल्दी ही मिट जाएगी, यह त्रिशुच की पीर ||
सृंगी से कहने लगे, हुआ पूर इक साल |
शांता को भिजवाइए, अब अपनी ससुराल ||
कार्य यहाँ के पूर्ण कर, करिए अब प्रस्थान |
बड़ी समस्या का करें, समुचित शीघ्र निदान ||
हाथ जोड़कर बोलते, सृंगी मन की बात |
सहमत ऋषिवर हो गए, बतिया बड़ी सुहात ||
जाय संभालो राज को, शांता को ले जाव |
पड़े रास्ते में अवध, भाई से मिलवाव ||
मात पिता के चरण छू, परम बटुक ले साथ |
रामचंद्र को भेंटते , देव भूमि के पाथ ||
चरण छुवे भ्राता सभी, पाते आशीर्वाद |
शांता को आते रहे, पूरे रस्ते याद ||
दशरथ, तीनों रानियाँ, आवभगत में लाग |
इन अभिनव मेहमान से, भाग अवध के जाग ||
सारी परजा आ गई, करती जय जयकार |
उपहारों का लग गया, बहुत बड़ा अम्बार ||
सृंगी शांता बोलते, हम सन्यासी लोग |
चीजें संचय न करें, करे नहीं अति भोग ||
कृपा करके दीजिये, अनुमति हे श्रीमान |
ढूंढ़ जरूरतमंद को, बांटो यह सामान ||
कौशल्या मानी नहीं, मेवा फल मिष्ठान |
दो दिन खातिर संग में, बाँधीं कुछ पकवान ||
पलकों पर बैठा रहे, देवभूमि के लोग |
भीगी आँखें बरसती, वर्षा का संयोग ||
राजकाज में जा फंसे, रिस्य सृंग महराज |
प्रमुख सभी आने लगे, प्रेम-पालकी साज ||
कर सबको आश्वस्त तब, रिस्य रिसर्चर राज |
कर्म गूढ़ करने लगे, सिरमौरी को साज ||
रिस्य गुफा में कर रहे, बैठ लोक-कल्यान |
बटुक परम चढ़ता रहा, शिक्षा के सोपान ||
उधर अंग में मच रहा, उथल-पुथल गंभीर |
रूपा को लग ही गए, कामदेव के तीर ||
अंगराज अब स्वस्थ हैं, महामंत्री संग |
मुश्किल हल करते रहे, प्रगति-पंथ पर अंग ||
शाला में बाला बढीं, नया भवन बनवाय |
आचार्या बारह नई, माली श्रमिक बुलाय ||
इंतजाम उत्तम किया, फैले यश चहुँ ओर |
पुंड्रा बंग विदेह जन, शाला रहे अगोर ||
परिवर्तन आया सुखद, आगे बढ़ता अंग |
नीति-नियम से चल रही, शाला नूतन ढंग ||
सोम सदा आता रहा, कन्या-शाला पास |
रूपा से करता रहे, बातें चुप-चुप ख़ास ||
राजमहल जाने लगी, रूपा भी दो बार |
गंगा तट पर विचरती, आई नई बहार ||
लम्बे-लम्बे इन्तजार से, खुब तड़पाते हो |
गोदी में सिर रखकर प्रियतम गीत सुनाते हो |
देर से आने की झूठी, सब - गाथा गाते हो,
पलकें पोल खोलती फिर भी बात बनाते हो |
शब्दों के तुम बड़े खिलाड़ी भाव जमाते हो
अवसर पाकर अंगुली पकड़ी "पहुंचा" पाते हो |
प्यासी धरती पर रिमझिम सावन बरसाते हो
मन-झुरमुट में हौले से प्रिय फूल खिलाते हो |
एक-घरी रुक के खुद को जो व्यस्त बताते हो,
अनमयस्क से इधर उधर कर समय बिताते हो |
रह-रह कर के विरह-अग्नि बरबस भड़काते हो,
रह-रह करके पल-पल तन-मन आग लगाते हो |
फिर आने का वादा करके वापस जाते हो,
वापस जाकर के फिर से, ना प्यार दिखाते हो ||
कैसा अंतर्द्वंद यह, कैसा यह संताप |
चाहूँ तुम्हे पुकारना, पर रहती चुपचाप |
पर रहती चुपचाप, अश्रु-धारा को धारा |
रही रास्ता नाप, पुकारी नहीं दुबारा |
प्रीति नहीं अपनाय, गुजारिश ठुकराते हो |
पोता भाई पुत्र, इन्हें ही अपनाते हो |
कैसा अंतर्द्वंद यह, कैसा यह संताप |
चाहूँ तुम्हे पुकारना, पर रहती चुपचाप |
पर रहती चुपचाप, अश्रु-धारा को धारा |
रही रास्ता नाप, पुकारी नहीं दुबारा |
प्रीति नहीं अपनाय, गुजारिश ठुकराते हो |
पोता भाई पुत्र, इन्हें ही अपनाते हो |
सोम फ़िदा उसपर हुए, मीठीं बातें बोल |
रूपा के तनबदन में, रहे प्रेम-रस घोल ||
रूपा को व्याकुल करे, शांता केर विछोह |
भटके मन हो बावली, होय सोम से मोह ||
तरुण सोम चंचलमना, चल शाळा की ओर |
मानो कोई खींचता, कठपुतली की डोर ||
शांता नित करती रही, कन्या-शाळा याद |
प्राकृति पहुंचाई वहाँ, रूपा का उन्माद ||
अनमयस्क सी शांता, रहने लगी उदास |
कार्य सिद्ध करके ऋषी, लौटे शांता पास ||
बारिस की बूंदें गिरीं, बीत रहा इक माह |
मैके जाना चाहिए, शांता करे सलाह ||
फेरे की इक रस्म है, करिए उसको पूर |
नदी मार्ग से जाइए, अंगदेश अति दूर ||
हुई पालकी में विदा, ऊँचीं नीची राह |
धीरे-धीरे छूटते, गिरी कन्दरा गाह ||
तेज धार धीमी हुई, आया सम मैदान |
नाविक गण फिर थामते, यात्रा केर कमान ||
हुई पालकी में विदा, ऊँचीं नीची राह |
धीरे-धीरे छूटते, गिरी कन्दरा गाह ||
तेज धार धीमी हुई, आया सम मैदान |
नाविक गण फिर थामते, यात्रा केर कमान ||
निश्चित तिथि पर चल पड़ी, परम बटुक के साथ |
नाव सजा के बैठती, गंगा जल ले माथ ||
मंगल भावों का उदय, छाये परमानंद |
शुभ शुभ योगायोग है, विरह अग्नि हो मंद |
विरह अग्नि हो मंद, चंद दिन ही तो बाकी |
महके मधु मकरंद, मस्त महिमा अम्बा की |
मैया का आशीष, ख़त्म हो मन के दंगल |
मिटे विरह की टीस, होय सब मंगल मंगल ||
मंगल भावों का उदय, छाये परमानंद |
शुभ शुभ योगायोग है, विरह अग्नि हो मंद |
विरह अग्नि हो मंद, चंद दिन ही तो बाकी |
महके मधु मकरंद, मस्त महिमा अम्बा की |
मैया का आशीष, ख़त्म हो मन के दंगल |
मिटे विरह की टीस, होय सब मंगल मंगल ||
नाव-यात्रा
हरी भरी यह उर्वरा, गंगा का वरदान |
प्रभु की भक्ती से भरा, है चौरस मैदान ||
गंगा जी में मिल रहीं, छोटी नदियाँ आय |
यमुना आई दूर से, देख गंग हरषाय ||
सरस्वती भी हैं यहाँ, त्रिवेणी का धाम |
सुन्दर होती आरती, मुग्ध कर रही शाम ||
संगम पहली मर्तवा, देख प्रफुल्लित होय |
करती संध्या वंदना, अपना बदन भिगोय ||
रात यहीं विश्राम कर, सुबह बढ़ाई नाव |
काशी में दर्शन करे, तन-मन भक्ति-भाव ||
बाढ़ी गंगा जी गजब, थी अथाह जलरास |
नाव चलाने में मगर, बड़े कुशल सब दास ||
धीरे धीरे हो गया, सरयू संगम पार |
गंगा जी के पाट का, बढ़ा और विस्तार ||
धीरे धीरे हो गया, सरयू संगम पार |
गंगा जी के पाट का, बढ़ा और विस्तार ||
आश्विन में बूंदें पड़े, रात्री बाढ़े शीत |
नाविक आगे बढ़ रहे, गाते मीठे गीत ||
ना जाने कब नींद ने, लिया उन्हें भी घेर |
बालू भित्ती में फंसे, होने लगी कुबेर ||
दोपहर भी बीती वहां, लागे नाहीं दांव |
हिकमत करके हारते, कैसे निकले नाँव ||
टकराने से खुल गया, महत्वपूर्ण इक जोड़ |
पानी अन्दर घुस रहा, उलचें बाहें मोड़ ||
छेद नाव में होने से भी, कभी नहीं नाविक घबराया ।
जल-जीवन में गहरे गोते, सदा सफलता सहित लगाया ।
इतना लम्बा अनुभव अपना, नाव किनारे पर आएगी -
इन हाथों पर बड़ा भरोसा, बाधाओं को पार कराया ।।
पीछे से आती दिखी, एक बड़ी सी नाव |
मदद मांगते मित्रवर, तट पर नाव कराव ||
पूछतांछ करते पता, एक कोस पर गाँव |
यथाशीघ्र जाओ वहाँ, कारीगर ले आव ||
इक नाविक के संग में, परम बटुक अगवान |
शांता देती एक पण, लाने को सामान ||
दोनों तेजी से गए, गई घरी इक बीत |
दो ही आते दीखते, बदल गई क्या रीत ||
मानव मानव की करे, मदद सदा हरसाय |
मीठी बोली पर सखे, माटी मोल बिकाय ||
चले मरम्मत बिन नहीं, आगे मेरी नाव |
शांता बोली नाविकों, तम्बू चलो लगाव ||
आगंतुक को देखकर, शांता है हैरान |
परम बटुक उनमें नहीं, लगे निकलने प्रान ||
नाविक बोला माँ सुनों, भाई बड़ा महान |
महारुजा से ले बचा, तीन जनों की जान ||
घोर संक्रमण से ग्रसित, हुवे गाँव के लोग |
बदन तपे खुब ज्वर चढ़े, जाने कैसा रोग ||
कारीगर चरणन पड़ा, बचा लेव मम ग्राम |
शांता देकर सांत्वना, बोले भज हरिनाम ||
चार घरी में कर दिया, पूर्ण मरम्मत काम |
हाथ जोड़कर बोलता, रात करें विश्राम ||
अगले दिन प्रात: वहाँ, तट पर आये लोग |
गन्ना गुड़ चूड़ा चढ़ा, चढ़ा रहे सब भोग ||
साध्वी शांता के छुवें, आदर से सब पाँव |
एक वृद्ध से जब सुनी, गाँव सुपरिचित नाँव ||
क्या दालिम को जानते, वही रमण के भाय |
अंगदेश जाकर बसे, महाराज ले जाय ||
जय हो देवी शांता, करय लगे जयकार |
दालिम का ही पूत है, करे वहाँ उपचार ||
साध्वी शांता के छुवें, आदर से सब पाँव |
एक वृद्ध से जब सुनी, गाँव सुपरिचित नाँव ||
क्या दालिम को जानते, वही रमण के भाय |
अंगदेश जाकर बसे, महाराज ले जाय ||
जय हो देवी शांता, करय लगे जयकार |
दालिम का ही पूत है, करे वहाँ उपचार ||
और दुपहरी में दिखा, बटुक तनिक घबरात |
शांता को खुश देखकर, फिर थोडा मुस्कात ||
पीड़ा सहकर भी करो, दूजे का कल्याण |
यही चिकित्सक कर्म है, मत जाने दो प्राण ||
बटुक परम ज्यों जानता, यह बाबा का ग्राम |
बड़े बुजुर्गों को करे, छूकर पैर प्रणाम ||
बटुक परम ज्यों जानता, यह बाबा का ग्राम |
बड़े बुजुर्गों को करे, छूकर पैर प्रणाम ||
औषधि सबको दी बता, दिया सफाई सीख |
मुखिया को समझा दिया, ग्राम आश्वस्त दीख ||
विदा विदाई हो गई, चली दुबारा नाव |
पाल ठीक से बाँध के, थोड़ी गति बढ़ाव ||
इक पण तुमको था दिया, कहाँ गए तुम भूल |
रमण बिचारा कर रहा, अपनी भूल कुबूल ||
वापस पण करने लगा, शांता दी मुसकाय |
भाई रख ले पास में, काम समय पर आय ||
बटुक कहे दीदी रखो, मुझे पड़े न काम |
मैं तो हूँ शिक्षार्थी, भिक्षाटन हरिनाम ||
जब नाविक को चढ़ गया, रात्री अतिशय ताप |
जड़ी बटुक की कर गई, कम उसका संताप ||
रिश्तों से रिसता रहे, दंभ स्वार्थ शठ-नीत ।
दोनों मन विश्वास हो, श्रृद्धा प्रेम पुनीत ।
श्रृद्धा प्रेम पुनीत, बड़ी भंगुरता इनमे ।
लगे कांच जो ठेस, बिखर जाता है छिन में ।
आये मुश्किल काल, चाल न चलिए भैया ।
हाथ पकड़ हर हाल, चलो तुम चढ़ा घुडैया ।।
दोनों मन विश्वास हो, श्रृद्धा प्रेम पुनीत ।
श्रृद्धा प्रेम पुनीत, बड़ी भंगुरता इनमे ।
लगे कांच जो ठेस, बिखर जाता है छिन में ।
आये मुश्किल काल, चाल न चलिए भैया ।
हाथ पकड़ हर हाल, चलो तुम चढ़ा घुडैया ।।
पानी ढोने का करे, जो बन्दा व्यापार |
मुई प्यास कैसे भला, सकती उसको मार ||
लहरों के संग खेलना, लहरें जीवन देत |
लहरें ही हैं जिंदगी, यही बैल हल खेत ||
गंगा उत्तरवाहिनी, बना है सुन्दर घाट |
नाव किनारे पर लगा, घूमी शांता हाट ||
लहरों के संग खेलना, लहरें जीवन देत |
लहरें ही हैं जिंदगी, यही बैल हल खेत ||
गंगा उत्तरवाहिनी, बना है सुन्दर घाट |
नाव किनारे पर लगा, घूमी शांता हाट ||
परम बटुक करने लगे, राजनीति पर बात |
कितना होना चाहिए, कर का सद-अनुपात ||
उत्तरदायी राज्य-प्रति, या राजा प्रति होय |
मंत्री का क्या कार्य है, कहिये दीदी सोय ||
विधिसम्मत कैसे रहे, होय न्याय का राज |
राज-पुरुष के दोष पर, उठे कहाँ आवाज ||
प्रमुख विराजें ग्राम में, अंकुश का क्या रूप |
जन कल्याणी कार्य के, कैसे होंय स्वरूप ||
लम्बी चर्चा हो रही, विद्वानों की राय |
राज पक्ष प्रस्तुत करे, दीदी दे समझाय ||
वाह बहुत ख़ूब...बड़ी अच्छी श्रृंखला चल रही है...बधई
ReplyDeleteअच्छा तो अब महाकाव्य का विचार है?
ReplyDeleteमनमोहक पोस्ट, सादर आभार/बधाई
ReplyDeleteसुन्दर... सुन्दर... अति सुन्दर.
ReplyDeleteलिंक देने के लिए आपका आभार.
अत्यन्त सुन्दर एवं नव-विषय युक्त महाकाव्य बनता जारहा है.....बधाई...
ReplyDelete---वर्ड वेरीफ़िकेशन हटा लें....तीन गुना समय लगता है व कठिनाई होती है ..टिप्पणी में....
sundar rachan..... abhar
ReplyDeleteआभार ||
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteपोस्ट मन को प्रभावित करने में सार्थक रहा सार्थक पोस्ट आपका आभार.
ReplyDeleteआपका आभार.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ब्लांग सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteIs rachna ki jitani bhi prashansa ki jaye kam hai. Behtarin rachna jo saras evm bhodhgamya hai.
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन...
ReplyDeleteबहुत सुंदर लंबी रचना,......
ReplyDeleteमेरी नई रचना के लिए "काव्यान्जलि" मे click करे
आपकी लिखी रचना आज के विशेषांक ईंजीनियर श्री दिनेश चन्द्र गुप्त 'रविकर' में "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 23 फरवरी 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
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