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Saturday 10 December 2011

भगवती शांता परम सर्ग-5 : इति


चंपा-सोम
कई दिनों का सफ़र था, आये चंपा द्वार |
नाविक के विश्राम का, बटुक उठाये भार ||

राज महल शांता गई, माता ली लिपटाय |
मस्तक चूमी प्यार से, लेती रही बलाय ||

गई पिता के पास फिर, पिता रहे हरसाय |
स्वस्थ पिता को देखकर,फूली नहीं समाय ||

क्षण भर फिर विश्राम कर, गई सोम के कक्ष |
रूपा पर मिलती वहाँ, धक्-धक् करता वक्ष ||

गले सहेली मिल रही, पर आँखों में चोर |
सोम हमारे हैं कहाँ, अचरज होता  घोर ||

किन्तु सोम आये नहीं, की परतीक्षा खूब |
शांता शाळा को चलीं, सह रूपा के ऊब ||

शाला में स्वागत हुआ, मन प्रफुल्लित होय |
अपनी कृति को देखकर, जैसे साधक सोय ||

आत्रेयी आचार्या, गले लगाती आय |
बाला सब संकोच से, खुद को रहीं छुपाय ||

नव कन्याएं देखतीं, कौतूहल वश खूब |
सन्यासिन के वेश में, पूरी जाती ड़ूब ||

आनन्-फानन में जमे, सब उपवन में आय |
होती संध्या वंदना, रूपा कह समझाय ||

परिचय देवी का दिया, दिया ज्ञान का बार |
महाविकट दुर्भिक्ष से,  सबको  गई उबार || 

यह है अपनी शांता,  इनका  आशीर्वाद |
कन्या शाला चल पड़ी, गूंजा शुभ अनुनाद ||

पुत्तुल-पुष्पा थीं बनी, तीन वर्ष में मित्र |
मात-पिता के शोक में, स्थिति बड़ी विचित्र ||
ज़िंदा  है  माँ  जानता, इसका मिला सुबूत ।
आज पौत्र को पालती, पहले पाली पूत ।
पहले पाली पूत, हड्डियां घिसती जाएँ ।
करे काम निष्काम, जगत की सारी माएं ।
 किन्तु अनोखेलाल, कभी तो हो शर्मिन्दा ।
दे दे कुछ आराम, मान कर मैया ज़िंदा ।। 
कौला-सौजा राखती, कन्याओं का ध्यान |
पाक-कला सिखला रहीं, भाँति-भाँति पकवान ||

कामकाज  में  लीन  है,  सुध  अपनी विसराय |
उत्तम प्राकृत मनुज  की,  ईश्वर  सदा  सहाय ||

भले नागरिक वतन को, करते हैं खुशहाल |
बुरे   हमेशा   चाहते,  दंगे   क़त्ल    बवाल ||

दोनों बालाएं मिलीं, शांता ले लिपटाय |
आंसू पोंछे प्रेम से, रही शीश सहलाय ||

क्रीडा कक्षा का समय, बाला खेलें खेल |
घोड़ा आया सोम का, रूपा मिले अकेल ||

शांता को देखा वहां, आया झट से सोम |
छूता दीदी के चरण , दिल से कहता ॐ ||

चेहरे की गंभीरता,  देती इक सन्देश |
हलके में मत लीजिये, हैं ये चीज विशेष ||

दीदी अब घर को चलो, माता रही बुलाय |
कई लोग बैठे वहाँ,  काका  काकी आय ||

सौजा कौला मिल रहीं, रमणी है बेचैन |
दालिम काका भी मिले, आधी बीती रैन ||

नाव गाँव का कह रही, वो सारा वृतांत |
सौजा पूंछी बहुत कुछ, दालिम दीखे शांत ||
 
पर मन में हलचल मची, जन्मभूमि का प्यार |
 शाबाशी पाता बटुक, किया ग्राम उद्धार ||

रमणी से मिलकर करे, शांता बातें गूढ़ |
रूपा तो हुशियार है, बना सके के मूढ़ ||

अगले दिन रूपा करे, बैठी साज सिंगार |
जाने को उद्दत दिखे, बाहर राजकुमार ||

शांता आकर बैठती, करे ठिठोली लाग |
सखी हमारी जा रही, कहाँ लगाने आग ||

सुन्दरता को न लगे, बहना कोई दाग |
अपनी रक्षा खुद करे, रखे नियंत्रित राग ||

रूपा को न सोहता, असमय यह उपदेश |
आया अंग नरेश का, इतने में सन्देश ||

अजब गजब अंदाज है, बात करें चुपचाप ।
इक जगह पर हों खड़े, खुद की सुन पदचाप ।
 खुद की सुन पदचाप, गजब दीवानापन है ।
बारिश में ले भीग, प्रेम रस का आसन है ।
फिर मिलने की बात, आज मत करना भाई ।
सही जाय न आज, कहीं से यह रुसवाई ।।
रूपा को वो छोड़कर, गई पिता के पास |
चिंतित थोडा दीखते, चेहरा तनिक उदास ||

करें शिकायत सोम की, चंचलता इक दोष |
राज काज हित चाहिए, सदा सर्वदा होश ||

आयु मेरी बढ़ रही, शिथिल हो रहे अंग |
किन्तु सोम न सीखता, राज काज के ढंग ||

उडती-उडती इक खबर, करती है हैरान |
रूपा का सौन्दर्य ही, खड़े करे व्यवधान ||

हुआ राजमद सोम को, करना चाहे द्रोह |
रूपा मम पुत्री सरिस, रोकूँ कस अवरोह ||

तानाशाही सोम की, चलती अब तो खूब |
राजपुरुष जब निरंकुश, देश जाय तब डूब ||

मंत्री-परिषद् में अगर, रहें गुणी विद्वान |
राजा पर अंकुश रहे,  नहीं बने शैतान ||

पञ्च रतन का हो गठन, वही उठाये भार | 
करें सोम की वे मदद, करके उचित विचार ||

शांता कहती पिता से, दीजे उत्तर तात |
दे सकते क्या सोम को, रूपा का सौगात ||

करिए इनके व्याह फिर, चुनिए मंत्री पाँच |
महासचिव की आन पे, ना आवे पर आँच ||

सहमति में जैसे हिला, महाराज का शीश |
शांता की कम हो गयी, रूपा के प्रति रीस ||

उत्तर मिलता है कभी, कभी अलाय बलाय ।
प्रश्नों का अब क्या कहें, खड़े होंय मुंह बाय ।
खड़े होंय मुंह बाय, नहीं मन मोहन प्यारे ।
सब प्रश्नों पर मौन, चलें वैशाखी धारे ।
वैशाखी की धूम, लुत्फ़ लेता है रविकर ।
यूँ न प्रश्न उछाल, समय पर मिलते उत्तर ।।
तुरत बुलाया भूप ने,  आया जल्दी सोम |
दीदी पर पढ़ते नजर, रोमांचित से रोम ||

डुग्गी सारे देश में, एक बार बज जाय |
पांच रत्न चुनने हमें, कसके ठोक बजाय ||

राज कुंवर लेने लगे, जैसे लम्बी सांस |
दीदी की आई नहीं, अगली बातें रास ||

एक पाख में कर रहे, हम सब तेरा व्याह |
कह सकते हो है अगर, कोई अपनी चाह ||

पिता श्री क्यों कर रहे, इतनी जल्दी लग्न |
फिर रूपा के ख्याल में, हुआ अकेला मग्न ||

शुरू हुई तैयारियां, दालिम खुब हरसाय |
नेह निमंत्रण भेजते, सबको रहे बुलाय ||

रूपा तो घर में रहे, सोम उधर घबरात |
नींद गई चैना गया, रह रहकर अकुलात ||

टूटा दर्पण कर गया, अर्पण अपना स्नेह ।
बोझिल मन आँखे सजल, देखा कम्पित देह ।
देखा कम्पित देह, देखता रहता नियमित ।
होता हर दिन एक, दर्द नव जिस पर अंकित ।
कर पाता बर्दाश्त, नहीं वह काजल छूटा।
रूठा मन का चैन, और यह दर्पण टूटा ।। 

शादी के दो  दिन बचे, आये अवध-भुवाल |
कौशल्या के साथ में, राम लखन दोउ लाल ||

सृंगी तो आये नहीं, पहुंचे पर ऋषिराज |
पूर्ण कुशलता से हुआ, शादी का आगाज ||

जब हद से करने लगा, दर्द सोम का पार |
दीदी से जाकर मिला, विनती करे हजार ||
 
दीदी कहती सोम से, सुन ले मेरी बात |
शर्त दूसरी पूर कर, करे व्यर्थ संताप ||

मन की गाँठों से सदा, बढ़ता दुःख अवसाद ।
मन की गाँठे खोल दे, पाए मधुरिम स्वाद ।
पाए मधुरिम स्वाद, गाँठ का पूरा कोई ।
चले गाँठ-कट चाल, पकड़ के खुपड़ी रोई ।
रविकर लागे श्रेष्ठ, सदा ही गाँठ जोड़ना ।
अपना मतलब गाँठ, जानते दुष्ट छोड़ना ।। 
कौशल्या के पास फिर, गया सोम उस रात |
माता देखे  व्यग्रता, मन ही मन मुस्कात ||

जो मुश्किल में रख सके, मन में अपने धीर |
वही सोच सकता तनय, इक सच्ची तदवीर ||

कौला के जाकर छुओ, सादर दोनों पैर |
ध्यान रहे पर बात यह, जाओ मुकुट बगैर ||
 
उद्दत जैसे ही हुआ, झुका सामने सोम |
कौला पीछे हट गई, जैसे गिरता व्योम ||

अवधपुरी की रीत है, पूजुंगी कल पांव |
छूकर मेरे पैर को,  काहे पाप चढ़ाव ||

कन्याएं देवी सरिस, और जमाता मान |
पैर पूंज दे व्याह में, माता कन्यादान ||

हर्षित होकर के भगा, सीधे दीदी पास |
जैसे खोकर आ रहा, अपने होश-हवाश ||
नेह-निमंत्रण 
परसे  नैना  |
जन्म-जन्म के 
करषे  नैना | |  

प्रियतम को अब
तरसे    नैना  |
कितने  लम्बे-
अरसे   नैना ||

हौले  -  हौले 
बरसे    नैना |
जाते अब तो 
मर से  नैना  ||

अब आये क्यूँ   
घर  से  नैना |
जरा जोर से 
हरसे  नैना ||
दीदी के छूकर चरण, घुसता अपने कक्ष |
हर्षित होकर नाचता, जाना कन्या पक्ष ||

बहन-नारि-गुरु-सखी बन, करे पूर्ण सद्कर्म |
भाव समर्पण का सदा, बनता जीवन-धर्म ||

रानी सन्यासिन बने, दासी राजकुमारि |
जीती हर किरदार खुश, नारी विगत बिसारि ||

नारी सबल समर्थ है, कितने बदले रूप |
सामन्जस बैठाय ले, लगे छांह या धूप ||

शारीरिक शक्ति तनिक, नारी नर से क्षीन |
अंतर-मन मजबूत तन, सहनशक्ति परवीन ||

पञ्च-रत्न 
शादी होती सोम से, शांता का आभार |
कौला दालिम खुश हुए, पाती रूपा प्यार ||
चाहत की कीमत मिली, अहा हाय हतभाग ।
इक चितवन देती चुका, तड़पूं अब दिन रात ।

तड़पूं अब दिन रात,  आँख पर आंसू छाये ।

दिल में यह तश्वीर, गजब हलचलें मचाये ।

देती कंटक बोझ, इसी से पाई राहत । 

कर्म कर गई सोझ, कोंच के नोचूं चाहत ।।
समाचार लेते रहे, शांता सृंगी व्यस्त  |
दुरानुभूती माध्यम, सूर्यदेव जब अस्त ||

परम बटुक को मिल रहा, राजवैद्य का नेह |
साधक आयुर्वेद का, करता अर्पित देह ||
कविता कर कर के करे, कवि कुल आत्मोत्थान ।
जैसे योगी तन्मयी, करे ईश का ध्यान ।
करे ईश का ध्यान, शान में पढ़े कसीदे ।
भावों में ले ढाल, ढाल से  सौ उम्मीदें  ।
रोके तेज कटार, व्यंग वाणों को रविकर ।
कायम रख ईमान, हमेशा कविता कर कर ।।
कौशल्या उत्सुक बड़ी, कन्याशाला घूम |
मन को हर्षित कर गई, बालाओं की धूम ||

गोदी की इक बालिका, आकर करे कमाल |
संस्कारित शिक्षित करे, दो सौ ललना पाल ||

हर बाला इक वंश है, फूले-फले विशाल |
होवे देवी मालिनी,  हरी भरी हर डाल ||

शाळा को हर एक वर्ष, सौ पण का अनुदान |
कौशल्या कहकर चली, बिटिया बड़ी महान ||

राम-लखन के साथ में, शांता समय बिताय |
दूल्हा-दुल्हन की डगर, हक़ से छेके जाय ||

स्वर्णाभूषण त्याग दी,  आडम्बर सब त्याग |
भौतिकता से  है  नहीं,  दीदी  को  अनुराग ||

दीदी बोली कीजिये, शर्त दूसरी पूर |
शाळा हरदिन जायगी, रूपा सखी जरूर ||

जिम्मेदारी दीजिये, खींचों नहीं लकीर  |
नारी में शक्ती बड़ी, बदल सके तक़दीर ||

कन्याएं दो सौ वहां, अभिभावक दो एक |
शाला की चिंता हरे, रूपा मेरी नेक ||

बना व्यवस्था चल पड़ी, वह शाळा की ओर |
आत्रेयी को सौंपती, पञ्च-रत्न की डोर ||

आचार्या करने लगी, प्रश्न-पत्र तैयार |
कई चरण की जाँच से, होना होगा पार ||

नियत तिथि पर आ रहे, लेकर सब उम्मीद |
कन्याशाला में टिके,  पढ़ उद्धृत-ताकीद ||

पहला दिन आराम का, हुई ना कोई जाँच |
नगर भ्रमण कोई करे, कोई पुस्तक बाँच ||

कोई बैठा बाग़ में, कोई गंगा तीर |
खेल करे मैदान में, कई सयाने वीर ||

मिताहार कोई वहां, मिताचार से प्यार |
कुछ तो भोजन भट्ट हैं, और कई लठमार ||

सूची इक जारी हुई, बाइस वापस जाव |
बाकी इक्कावन बचे, काया जाँच कराव ||

तेरह इसमें छट गए, अड़तिस गंगा तीर |
डूबी पानी में उधर, ग्यारह की तकदीर ||

सत्ताईस की लेखनी, बाइस हों उत्तीर्ण |
पाँच जनों के हो रहे, ऐसे भाग-विदीर्ण ||

राज महल में मिल गया, सबको एकल कक्ष |
अपने अपने विषय में, थे ये पूरे दक्ष ||

बाइस पहले जो छटे, शाला के प्रति द्वेष |
शिक्षा के प्रति थी नहीं, उनमें रुची विशेष ||

राजकाज के काम दो, दिए एक से जाँय |
तीन दिनों में एक को, आओ सब निपटाय ||

प्रतिवेदन प्रस्तुत करो, लिखकर वापस आय |
एक परीक्षा बचेगी, तेरह  को  बिलगाय ||

गुप्तचरों की सूचना, वा प्रस्तुत आलेख |
महामंत्री ने चुने, प्रतिभागी नौ  देख ||

अगले दिन दरबार में, बैठे अंग नरेश |
नौ के नौ आयें वहां, धर दरबारी भेष ||

साहस संयम शिष्टता, अनुकम्पा औदार्य |
मितव्ययी निर्बोधता, न्याय-पूर्ण सद्कार्य ||

क्षमाशीलता सादगी, सहिष्णुता गंभीर |
सच्चाई प्रफुल्लता, निष्कपटी मन धीर ||

स्वस्ती मेधा शुद्धता, हो चारित्रिक ऐक्य |
दानशीलता आस्तिक, अग्र-विचारी शैक्य ||

सर्वगुणी सब विधि भले, सब के सब उत्कृष्ट |
अंगदेश को गर्व है, गर्व करे यह सृष्ट ||

जाँच-परखकर कर रहे, सबको यहाँ नियुक्त |
एक वर्ष के बाद में, होंय चार जन मुक्त ||

तीन मास बीते यहाँ, आया फिर वैशाख |
शांता सृन्गेश्वर चली, मन में धीरज राख ||

कन्याओं से मिल लिया, पुष्पा-पुत्तुल पास |
रमणी को देकर चली, एक हिदायत ख़ास ||

 बटुक रमण फिर से चला, दीदी को ले साथ |
शिक्षा विधिवत फिर करे, जय हो भोले नाथ ||

आश्रम की रौनक बढ़ी, सास-ससुर खुश होंय |
सृंगी अपने शोध में, रहते  हरदम खोय ||

शांता सेवा में जुटी, परम्परा निर्वाह |
करे रसोईं चौकसी, भोजन की परवाह ||

शिष्य सभी भोजन करें, पावें नित मिष्ठान |
करें परिश्रम वर्ग में, नित-प्रति बाढ़े ज्ञान ||

वर्षा-ऋतु में पूजती, कोसी को धर ध्यान |
सृन्गेश्वर की कृपा से, उपजे बढ़िया धान ||

शांता की बदली इधर, पहले वाली चाल |
धीरे धीरे पग धरे, चलती बड़ा संभाल ||

खान-पान में हो रहा, थोडा सा बदलाव |
खट्टी चीजें भा रहीं,  बदल गए अब चाव ||

सासू माँ रखने लगीं, अपनी दृष्टी तेज |
प्रफुल्लित माता रखे,  चीजें सभी सहेज ||

पुत्री सुन्दर जन्मती, बाजे आश्रम थाल |
सेवा सुश्रुषा करे, पोसे बहुत संभाल ||

तीन वर्ष पूरे हुए, शिक्षा पूरी होय |
दीदी से मिलकर चले, बटुक अंग फिर रोय || 

फिर पूरे परिवार से, करके नेक सलाह |
माँ दादी को साथ ले, पकड़ें घर की राह || 

आश्रम इक सुन्दर बना, करते हैं उपचार |
साधुवाद है वैद्य जी, बहुत बहुत आभार ||

तीन वर्ष बीते इधर, मिला राज सन्देश |
वैद्यराज का रिक्त पद, तेरे लिए विशेष ||
 
क्षमा-प्रार्थना कर बचे, नहीं छोड़ते ग्राम |
आश्रम फिर चलता रहा, प्रेम सहित अविराम ||

रक्षाबंधन पर मिली, शांता घर पर आय |
भागिनेय दो गोद में, दीदी रही खेलाय ||

पुत्तुल के संग वो रखी, पाणिग्रहण प्रस्ताव |
मेरी सहमति है सदा, पुत्तुल की बतलाव ||

शांता लेकर बटुक को, चम्पानगरी जाय |
पुत्तुल के इनकार पर, रही उसे समझाय ||
 
नश्वर जीवन कर दिया, इस शाळा के नाम |
बस नारी उत्थान हित, करना मुझको काम ||

पुष्पा से एकांत में, मिलती शांता जाय |
वैद्य बटुक से व्याह हित, मांगी उसकी राय ||

शरमाई बाहर भगी, मिला मूल संकेत |
मंदिर में शादी हुई, घरवाला अनिकेत ||

रूपा से मिलकर हुई दीदी बड़ी प्रसन्न |
गोदी में इक खेलता, दूजा है आसन्न ||

पञ्च रत्न की सब कथा, पूछी फिर चितलाय |
डरकर नकली असुर से, भाग चार जन जाँय ||

पञ्च-रतन को एक दिन, दे अभिमंत्रित धान | 
खेती करने को कहा, देकर पञ्च-स्थान ||

बढ़िया उत्पादन हुआ, मन सा निर्मल भात |
खाने में स्वादिष्टतम, हुआ न कोई घात ||


राज काज मिल देखते, पंचरत्न सह सोम |
महासचिव का साथ है, कुछ भी ना प्रतिलोम ||


पिताश्री ने एक दिन, सबको लिया बुलाय |
पंचरत्न में चाहिए, स्वामिभक्त अधिकाय ||


चाटुकारिता से बचो, इंगित करिए भूल |
राजधर्म का है यही, सबसे बड़ा उसूल ||

औरन की फुल्ली लखैं , आपन  ढेंढर  नाय
ऐसे   मानुष   ढेर  हैं,   चलिए  सदा  बराय||

निर्बुद्धि की जिन्दगी, सुख-दुःख से अन्जान |
निर्बाधित जीवन जिए,  डाले  न व्यवधान  ||

बुद्धिवादी परिश्रमी,  पाले  घर  परिवार |
मूंछे  ऐठें  रुवाब से,  बैठे  पैर  पसार  ||

बुद्धिजीवी  का  बड़ा, रोचक  है  अन्दाज |
जिभ्या ही करती रहे, राज काज आवाज ||

बुद्धियोगी  हृदय  से,  लेकर  चले समाज |
करे भलाई जगत का, दुर्लभ हैं पर आज ||
लेकर सेवा भावना, देखो भाग विभाग |
पैदा करने में लगो, जनमन में अनुराग ||

मात-पिता से पूछ के, कुशल क्षेम हालात |
संतुष्टि पाती वहां, शांता वापस जात ||


कुशल व्यवस्थापक बनी, हुई भगवती माय |
पाली नौ - नौ  पुत्रियाँ,  आठो  पुत्र पढाय ||


एक से बढ़कर एक थे, संतति सब गुणवान |
शोध भाष्य करते रहे, पढ़ते वेद - पुरान ||

वैज्ञानिक वे श्रेष्ठ सब, मन्त्रों पर अधिकार |
अपने अपने ढंग से, सुखी करें संसार ||


सास-ससुर सब सौंप के, गए देव अस्थान |
राजकाज सब साध के, देकर के वरदान ||

वन खंडेश्वर को गए, बिबंडक महराज |
भिंड आश्रम को सजा, करे वहां प्रभु-काज ||

आठ पौत्रों से मिले, सब है बेद-प्रवीन |
बड़े भिंड के हो गए, आश्रम में आसीन ||
 
सौंपें सारे ज्ञान को, बाबा बड़े महान |
स्वर्ग-लोक जाकर बसे, छोड़ा यह अस्थान ||

भिन्डी ऋषि के रूप में, हुए विश्व विख्यात |
सात राज्य में जा बसे, पौत्र बचे जो सात ||

Trees in front of under ground Temple, Shringi Rishi

एक अवध में जा बसे, सरयू तट के पास |
बरुआ सागर आ गया, एक पुत्र को रास ||

विदिशा जाकर बस गए, सबसे छोटे पूत |
पुष्कर की शोभा बढ़ी, बाढ़ा वंश अकूत ||




आगे जाकर यह हुए, छत्तीस कुल सिंगार |
छ-न्याती भाई यहाँ, अतुलनीय विस्तार ||


बसे हिमालय तलहटी, चौरासी सद्ग्राम |
वंशज सृंगी के यहाँ, रहते हैं अविराम ||

सृंगी दक्षिण में गए, पर्वत बना निवास |
ज्ञान बाँट करते रहे, रही शांता पास ||

वंश-बेल बढती रही, तरह तरह के रूप |
कहीं मनीषी बन रमे, हुए कहीं के भूप ||


मंत्रो की शक्ती प्रबल, तंत्रों पर अधिकार |
कलियुग के प्रारब्ध तक, करे वंश व्यवहार ||


हुए परीक्षित जब भ्रमित, कलियुग का संत्रास |
स्वर्ण-मुकुट में जा घुसा, करता बुद्धी नाश  ||


सरिता तट पर एक दिन, लौटे कर आखेट |
लोमस ऋषि से हो गई, भूपति की जब भेंट ||


बैठ समाधि में रहे, राजा समझा धूर्त |
मरा सर्प डाला गले, जैसे शंकर मूर्त ||



वंशज देखें सृंग के, भर अँजुरी में नीर |
मन्त्रों से लिखते भये, सात दिनों की पीर ||


यही सर्प काटे तुम्हें, दिन गिनिये अब सात |
गिरे राजसी कर्म से, सहो मृत्यु आघात ||


मन्त्रों की इस शक्ति का, था राजा को भान |
लोमस के पैरों पड़ा, वह राजा नादान ||
 i

लेकिन भगवत-पाठ सुन, त्यागा राजा प्रान |
यह पावन चर्चित कथा, जाने सकल जहान ||


जय जय भगवती शांता परम

6 comments:

  1. अवधपुरी की रीत है, पूजुंगी कल पांव |
    छूकर मेरे पैर को, काहे पाप चढ़ाव ||

    कन्याएं देवी सरिस, और जमाता मान |
    पैर पूंज दे व्याह में, माता कन्यादान ||

    आदरणीय रविकर जी जय श्री राम ...बहुत सुन्दर और ज्ञान वर्धक .....निम्न बहुत ही शिक्षा प्रद ...
    भ्रमर ५

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  2. किस्तों में डाला करो महाराज!

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  3. वंशज देखें सृंग के, भर अँजुरी में नीर |
    मन्त्रों से लिखते भये, सात दिनों की पीर ||
    खंड क्या प्रबंध का कलेवर लिए है यह काव्य संभावनाओं से भरपूर .बधाई इसे अनुपम तरीके से संपन्न करने पर .

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  4. बहुत सुंदर प्रस्तुति,बेह्तरीन पोस्ट और ज्ञानवर्धक पोस्ट ..
    एक ब्लॉग सबका

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  5. बहुत सुन्दर जानकारियाँ ..लेकिन इतना बड़ा पढने के लिए बड़ा समय चाहिए थोडा थोडा परसने से हम ज्यादा खा सकते हैं न !
    प्रिय रविकर जी जय श्री राधे
    भ्रमर ५

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  6. फ़ैजाबाद से राम की सहोदरा शांता की कथा का प्रथम बार श्रवण किया, अनुपम कथा है। अखण्ड वाचन नहीं कर सकूँगा, इसलिये आते हैं एक डोमेस्टिक ब्रेक के बाद। शांता के बारे में और भी कहीं वर्णन है क्या?

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