ऐसे दीपक को बुझाये क्या हवा -
तूफां में भी जो सदा जलता रहा ।
हृदय-देहरी पर , हथेली ने ढका
मुश्किलों का दौर यूं टलता रहा ।
तेल की बूँदे सदा रिसती रहीं-
अस्थियाँ-चमड़ी-वसा गलता रहा ।
अब अगर ईंधन चुका तो क्या करे
कब से 'रविकर' तन-बदन तलता रहा ।
खून के वे आखिरी कतरे चुए -
(2)
जब यार चार मिल जाते हैं |
तो अपनी ही सदा चलाते हैं ||
दुनिया उनको बुड़बक लगती-
नौ - नौ त्यौहार मनाते हैं ||
मदिरा का गर पान कर लिया--
अपनी महिमा ही गाते हैं ||
बचिए ऐसे सिर खाऊ से --
ये घर की नाक कटाते हैं ||
No comments:
Post a Comment