है शुष्क हो रही मृदुल प्रकृति, दहके अम्बर में तीक्ष्ण रवि |
दुःख छुपा रहे निज अंतर में, हैं व्याकुल प्राणी जीव सभी ||
दयनीय दशा वह मलिन कृषक, हो जाता क्षुब्ध व्यथित सा है |
शुष्कता देख निज जीवन की, लगता वह चकित-थकित सा है ||
नयनों से बहते आँसू क्या, आर्द्रता खेत में लायेंगे ?
क्यों इनको व्यर्थ बहाते ये, क्या जीवन भर तडपायेंगे ??
है अश्रु भाग्य में लिखा हुआ, अबला के आँचल में रहना |
पर सूख चुकी है दुग्ध धार, हो चुके बन्द आँसू बहना ||
था दुखी बहुत इनका अतीत, इस वर्तमान ने और धकेला |
कल्पना कल्प की करिए क्या ? रहेगा" रविकर" यही झमेला ||
खुश नेता 'क्रेता' विक्रेता, अभिनेता इनकी तुलना में |
वो कृषक बछेरू कीचड़ में, पर पप्पी-पूसी पलना में ||
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