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Thursday 16 June 2011

कृषक बछेरू कीचड़ में

है शुष्क  हो रही मृदुल प्रकृति, दहके अम्बर में तीक्ष्ण रवि |
दुःख छुपा रहे निज अंतर में,  हैं व्याकुल प्राणी जीव सभी  ||

दयनीय दशा वह मलिन कृषक, हो जाता क्षुब्ध व्यथित सा है |
शुष्कता देख निज जीवन की, लगता वह चकित-थकित सा है ||

नयनों   से  बहते  आँसू   क्या,  आर्द्रता  खेत  में  लायेंगे ?
क्यों इनको व्यर्थ  बहाते  ये, क्या  जीवन  भर  तडपायेंगे ??

है अश्रु  भाग्य  में  लिखा  हुआ,  अबला के  आँचल में रहना |
पर  सूख चुकी  है  दुग्ध  धार, हो  चुके  बन्द  आँसू  बहना  ||

 था  दुखी बहुत  इनका अतीत, इस वर्तमान  ने और धकेला |
कल्पना कल्प की करिए क्या ? रहेगा" रविकर" यही झमेला ||

खुश  नेता  'क्रेता'  विक्रेता,  अभिनेता  इनकी   तुलना  में |
वो  कृषक  बछेरू  कीचड़ में,  पर  पप्पी-पूसी  पलना  में  ||

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