width="100"

Wednesday 8 February 2017

सर्ग-२ भाग-1 जन्म-कथा

 सर्ग-२ 
भाग-1
जन्म-कथा 
हरिगीतिका 
भयभीत कौशल्या रहे चिंता-ग्रसित दिखती सदा । 
आतंक फैला शत्रु का, कैसे टले यह आपदा । 
कुलदेवता रक्षा करो, इस भ्रूण की तुम सर्वदा । 
अथ देवि-देवों को मनाती भाग्य में है क्या बदा ॥ 

दोहा 
धनदा-नन्दा-मंगला,  मातु कुमारी  रूप |
बिमला-पद्मा-वला सी, महिमा अमिट-अनूप ||

जीवमातृका  वन्दना, काट सकल जंजाल |
जीवमंदिरों को सुगढ़, माता रखो सँभाल ||

 संध्या को रनिवास में, रानी रह-रह रोय |
उच्छवास भरती रही, अँसुवन धरती धोय ||

दशरथ को दरबार में, हुई घड़ी भर देर |
कौशल्या दीखी नहीं, अन्दर घुप्प-अंधेर ||

तभी सुबकने की पड़ी, कानों में आवाज |
दासी पर होकर कुपित, डाँट रहे अधिराज ||

हुआ उजाला कक्ष में, मुखड़ा लिए मलीन |
रानी तड़पे भूमि पर, ज्यों तड़पत है मीन ||

राजा विह्वल हो गए, संग भूमि पर बैठ |
रानी को पुचकारते, सत्य-प्रेम की पैठ ||

 बोलो रानी बेधड़क, खोलो मन के राज |
 कौन रुलाया है तुम्हें, कौन किया नाराज ??

निकले अगर भड़ास तो, बढती जीवन-साँस । 
आँसू बह जाएँ अगर, घटे दर्द एहसास ।।

विधाता छंद
हरे हों जख्म या सूखे कभी जग को दिखाना मत।
गली-कूँचे नगरपथ पर कभी निज दर्द गाना मत।
मिले मरहम नहीं घर में, मगर मिलते नमक-मिर्ची।
बचा दामन निकल रविकर, कभी आँसू बहाना मत।।

मद्धिम स्वर फिर फूटता, हिचकी होती तेज |
अपने बच्चे को भला, कैसे रखूं सहेज ||

राजा सुनकर हर्ष से, रानी को लिपटाय |
कहते चिंता मत करो, करूं सटीक उपाय ||

जाते प्रातः काल वे , गुरु वशिष्ठ के पास |
थे सुमंत भी साथ में, जिन पर अति-विश्वास ||

ठोस योजना बन गई, दुश्मन धोखा खाय ||
रानी के इस गर्भ को, जग से रखें छुपाय  ||

अगले दिन दरबार में, आया यह सन्देश |
कौशल्या की मातु को, पीड़ा स्वास्थ-कलेस ||

डोली सजकर हो गई, कौला भी तैयार |
छद्म वेश में सेविका, बैठी अति-हुशियार ||

वक्षस्थल पर झूलता, वही पुराना हार |
जिसको लेकर था भगा, सुग्गासुर अय्यार ||

सेना के सँग हो विदा, डोली चलती जाय |
गिद्धराज ऊपर उड़े, पंखों को फैलाय || 

अभिमंत्रित कर महल को, कौशल्या के पास |
कड़ी सुरक्षा में रखा, दास-दासियाँ ख़ास ||

खर-दूषण के गुप्तचर, छोड़े अपनी खोह |
डोली के पीछे लगे, लेने को तब टोह ||

छद्म-वेश में माइके, धर कौशल्या रूप |
रानी हित दासी करे, अभिनय सहज अनूप ||

वर्षा-ऋतु फिर आ गई, सरयू बड़ी अथाह |
दासी उत्तर में रही, दक्षिण में उत्साह ||

देखूँ अब संतान को, हुई बलवती चाह |
दशरथ  सबपर  रख  रहे, चौकस कड़ी निगाह ||

सात मास बीते मगर, गोद-भराई भूल |
कनक महल रक्षित रहा, रानी के अनुकूल ||

पड़ा पर्व नवरात्रि का, सकल नगर उल्लास |
कौशल्या तो गर्भ से,  नहीं करे उपवास ||

रानी आँगन में जमी, काया रही भिगोय |
शरद पूर्णिमा हो चुकी, अमाँ अँधेरी होय ।।  

माटी की इस देह से, खाटी खुश्बू पाय ।
तन मन दिल चैतन्य हो, प्राकृत जग  हरषाय ।।

कुंडलियाँ  
देह देहरी देहरे,  दो, दो दिया जलाय ।
कर उजेर मन गर्भ-गृह, कुल अघ-तम दहकाय । 
कुल अघ तम दहकाय , दीप दस घूर नरदहा ।
गली द्वार पिछवाड़ , खेत खलिहान लहलहा ।
देवि लक्षि आगमन, विराजो सदा केहरी ।
सुख सामृद्ध सौहार्द, बसे कुल देह देहरी ।। 

किरीट  सवैया ( S I I  X  8 )
झल्कत झालर झंकृत झालर झांझ सुहावन रौ  घर-बाहर ।
  दीप बले बहु बल्ब जले तब आतिशबाजि चलाय भयंकर ।
 दाग रहे खलु भाग रहे विष-कीट पतंग जले घनचक्कर ।
नाच रहे खुश बाल धमाल करे मनु तांडव  जै शिव-शंकर ।।

धीरे धीरे सर्दियाँ , रही धरा को घेर |
शीत लहर चलने लगी, यादें रही उकेर ||

पीड़ा झूठे प्रसव की, रखे होंठ को भींच |
रानी सिसकारी भरे, नहीं जानता नींच ||

रानी हर दिन टहलती, करती  नित व्यायाम |
पौष्टिक भोजन खा करे, हल्के-फुल्के काम ||

कोसलपुर में उस तरफ, दासी का वह खेल |
खर-दूषण का गुप्तचर, रहा व्यर्थ ही झेल ||

शुक्ल फाल्गुन पंचमी, मद्धिम बहे बयार |
सूर्यदेव सिर पर जमे, ईश्वर का आभार ||

पुत्री आई महल में, कौशल्या की गोद |
राज्य ख़ुशी से झूमता, छाये मंगल-मोद ||

एक पाख के बाद में, खबर पाय दस-सीस |
खर दूषण को डांटता, सुग्गा सुर पर रीस ||

कन्या के इस जन्म से, रावण पाता चैन |
डपटा क्षत्रपगणों को, निकसे तीखे बैन || 

छठियारी में सब जमे, पावें सभी इनाम |
स्वर्ण हार पाए वहां, दासी का शुभ काम ||

गिद्धराज गिद्धौर को, कर दशरथ का काम | 
सम्पाती से जा मिले, करते शोध तमाम || 

दूरबीन  का कर रहे, वे प्रयोग भरपूर | 
प्रक्षेपित कर यान को, भेजें दूर-सुदूर ||

शिशु की मालिश के लिए, पहुंची कौला धाय |
एक पैर को जब  छुवा , सुता उठी अकुलाय ||

कौशल्या ने वैद्य को, झटपट लिया बुलाय |
जांच परख समुचित करे, तथ्य कहे सकुचाय ||

एक पैर में दोष है, है अस्वस्थ शरीर । 
सुनकर यह अप्रिय वचन, रानी सहती पीर ||

भाग-2

सम गोत्रीय विवाह
फटा कलेजा भूप का, निकली मुख से आह  |
सुता हमारी स्वस्थ हो, करने लगे सलाह  ||

तन्हाई गम फिक्र ले, सकल जिंन्दगी घेर।
बिन मेहनत कुछ न मिले, किन्तु मिले ये ढेर।।

रात-रात भर देखते, उसकी दुखती टांग |
सपने में भी आ जमे, नटनी करती स्वांग ||

हरिगीतिका 
 तब मार्ग-दर्शन के लिए गुरुगृह स्वयं दशरथ गए ।
कर दंडवत संतान के आसन्न दुख कहते भये ।
गुरुवर कहें कुल वैद्य चर्चित को बुला संसार के ।
हों वैद्य सारे देश के हों वैद्य सागर पार के ।


पीड़ा बेहद जाय बढ़, अंतर-मन अकुलाय ।
जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय ।।

 उद्यम करता आदमी, लगे हमेशा ठीक  |
पूजा ही यह कर्म है, बाकी लगे अनीक  ||

वैज्ञानिक ऋषि वैद्य को, रहे भेज सन्देश ।
हरकारों को जब मिला, राजा का आदेश ॥ 

नीमसार की भूमि पर, मंडप बड़ा सजाय |
श्रावण की थी पूर्णिमा, रही चांदनी छाय ||

रक्षा बंधन पर्व कर, जमे चिकित्सक वीर |
जांच कुमारी की करें, होता विकल शरीर ||

विषय बहुत ही साफ़ था, वक्ता थे शालीन |
सबका क्रम निश्चित हुआ, हुए कर्म में लीन ||

उदघाटन करने चले, अंग-देश के भूप |
नन्हीं बाला का तभी, देखा सौम्य स्वरूप ||

स्वागत भाषण पढ़ करें, राज वैद्य अफ़सोस |
जन्म कथा सारी कही, रहे स्वयं को कोस ||

वक्ताओं ने फिर रखी, वर्षों की निज खोज |
सुबह-सुबह होती  रही, परिचर्चा ही रोज ||

दूर दूर से आ रहे, रोज कई बीमार  |
शिविरों में नित शाम को, करें बैद्य उपचार  ||

रहो छिडकते इत्र सा, मदद दया मुस्कान |
खुशबू सी फैले ख़ुशी, बढ़े जान-पहचान ||

 भर जीवन सुनता रहे, देखें दर्द अथाह | 
एक वैद्य की है सदा, सरल-विरल है राह ।।

चौथे दिन के सत्र में, बोले वैद्य सुषेन |
गोत्रज व्याहों की विकट, महा विकलता देन ||

राजा रानी अवध के, हैं दोनों गोतीय |
अल्पबुद्धि-विकलांगता, सम दुष्फल नरकीय ||

गुण-सूत्रों की विविधता, बहुत जरूरी चीज |
मात्र खीज पैदा करें, रविकर गोत्रज बीज  ||

 गोत्रज दुल्हन जनमती, एकल-सूत्री रोग |
 दैहिक सुख की लालसा, बेबस संतति भोग ||

साधु साधु कहने लगे, सब श्रोता विद्वान |
सत्य वचन हैं आपके, बोले वैद्य महान ||

अब तक के वक्ता सकल, करके अति संकोच |
मूल विषय को टाल के, रखें अन्य पर सोच ||

सारे तर्क अकाट्य थे, छाये वहाँ सुषेन |
भारी वर्षा थम गई, नीचे बैठी फेन ||

आदर से दशरथ कहें, वैद्य दिखाओ राह |
विषम परिस्थिति में हुआ, कौशल्या से ब्याह ||

नहीं चिकित्सा शास्त्र  में, इसका दिखे उपाय |
गोत्रज जोड़ी अनवरत, संतति का सुख खाय ||

इस प्रकार रखते भये, बातें वैद्य अनेक ।
ऋष्य विविन्डक ने कहा, मार्ग बचा है एक ॥

संतति हो ऐसी अगर, झेले अंग-विकार |
गोद किसी की दीजिये, रविकर मोह विसार ||

प्रभु की इच्छा से मिटें, कुल शारीरिक दोष |
धन्यवाद ज्ञापन हुआ, होती जय जय घोष ||

सवैया  
गोतज दोष नरेश लगे, तनया विकलांग बनावत है ।
माँ विलखे चितकार करे, कुल धीरज शाँति गंवावत है ।
वैद गुनी हलकान दिखे, निकसे नहिं युक्ति, बकावत है ।
औध-दशा बदहाल हुई, अघ रावण हर्ष मनावत है ।।  

अंगराज श्री  रोमपद , आये दशरथ पास |
अभिवादन पाकर कहें, करिए नहीं निराश ||

रानी इनकी वर्षिणी, कौशल्या की ज्येष्ठ | 
चम्पारानी बोलते, प्रजा मंत्रि-गण श्रेष्ठ ||

  ब्याह हुए बारह बरस, सूनी अब भी गोद |
बेटी प्यारी सौंपिए, मंगल मंगल-मोद ||

कैसे दे दें गोद में, दशरथ को संकोच । 
किन्तु बढे अवसाद अति, विकट समस्या सोच ॥  

कुंडलियां 

शान्त *चित्ति के फैसले, करें लोक कल्यान |
चिदानन्द संदोह से, होय आत्म-उत्थान |
होय आत्म-उत्थान, स्वर्ग धरती पर उतरे |
लेकिन चित्त अशान्त, सदा ही काया कुतरे |
चित्ति करे जो शांत, फैसले नहीं *कित्ति के |
होते कभी  न व्यर्थ, फैसले शान्त चित्ति के ||
चित्ति = बुद्धि 
कित्ति = कीर्ति / यश

कौशल्या हामी भरी, करती दिल मजबूत|
 अपनी बहना के लिए, अंग भेजती दूत ||

अंगराज भी खुश हुए, रानी को बुलवाय |
रस्म गोद करके सफल, उनकी गोद भराय ||

अंग-विकृत वो अंगजा, कर ली अंगीकार |
अंगराज दशरथ चले, फिर सुषेन के द्वार ||  

जब सुषेन के शिविर में, पहुंचे अवध नरेश |
चेहरे पर चिंता बड़ी, चर्चा चली विशेष ||

बोले वैद्य सुषेन जी, सुनिए हे महिपाल |
ऐसी संताने सहें,  बीमारी विकराल ||

 गोत्रज शादी को भले, भरसक दीजे टाल | 
मंजूरी करती खड़े, टेढ़े बड़े सवाल ||

परिजन लेवे गोद जो, रखे अपेक्षित ध्यान |
दोष दूर हो अंततः, यदि सहाय भगवान् ॥  ||

 गोत्र-प्रांत की भिन्नता, नए नए गुण देत |
संयम विद्या बुद्धि बल, साहस रूप समेत ||

सहज रूप से सफल हो, रावण का अभियान |
किया दूर रनिवास से, राजा को यह ज्ञान  ||

आई रानी अंग से,  लाया दूत बुलाय | 
कौशल्या के अंग से, अमृत बहता जाय ||

आ जाये कोई नया, अथवा जाये छोड़।
बदल जाय तब जिंदगी, रविकर तीखे मोड़।।

लगे तीन दिन गोद में, साइत शुभ आसन्न |
नया देश माता नई, हुई रीति संपन्न ||

आठ माह की उम्र में, बदला घर परिवार |
 अंग देश को चल पड़ी, सरयू अवध विसार || 

कौला कौला सी चली, नव-कन्या के संग |
 जननी आती याद तो, करती कन्या तंग || 
  
 करे प्रगट कृतज्ञता, कौशल्या के भाव ।
      हृदय-पटल पर दिख रहे, अंकित अमित प्रभाव ।।

कुंडलियां 
नेह हमारा साथ है, ईश्वर पर विश्वास |
अन्धकार को चीर के, फैले धवल उजास |
फैले धवल उजास, मिला ममतामय साया |
कुशल वैद्य  जन साथ, हितैषी कौला आया |
शुभकामना असीम, दौड़ ले बिना सहारा   |
 करे अनोखे काम, साथ है नेह हमारा ||

भाग-3
कन्या का नामकरण 
कौशल्या दशरथ कहें, रुको और अधिराज |
अंगराज रानी सहित, ज्यों चलते रथ साज ||

राज काज का हो रहा, मित्र बड़ा नुक्सान |
चलने की आज्ञा मिले,  राजन  हमें  विहान ||

सुबह सुबह दो पालकी, दशरथ की तैयार |
अंगराज रथ पर हुए, मय परिवार सवार ||

दशरथ विनती कर कहें, देते एक सुझाव |
सरयू में तैयार है,  बड़ी राजसी नाव ||

धारा के संग जाइए, चंगा रहे शरीर |
चार दिनों का सफ़र है,  काहे होत अधीर ||

चंपानगरी दूर  है, पूरे दो सौ कोस |
उत्तम यह प्रस्ताव है, दिखे नहीं कुछ दोष ||

पहुंचे उत्तम घाट पर, थी विशाल इक नाव |
नाविक-गण सब विधि कुशल, परिचित  नदी बहाव ||

बैठे सब जन चैन से, नाव बढ़ी अति मंद |
घोड़े-रथ तट पर चले, लेकर सैनिक चंद ||

धीरे धीरे गति बढ़ी, सीमा होती पार |
गंगा में सरयू मिली, संगम का आभार ||

चार घड़ी रूककर वहाँ, पूजें गंगा माय  |
 कर सरयू की वंदना, देते नाव बढ़ाय ||

परम हर्ष उल्लास का, देखा फिर अतिरेक |
ग्राम रास्ते में मिला, अंगदेश का एक || 

धरती पर उतरे सभी, आसन लिया जमाय |
नई कुमारी का करें, स्वागत जनगण आय |

विधाता छंद
जब खून के रिश्ते कई निभते नहीं संसार में।
जब कोख के जन्मे कई दुश्मन बने व्यवहार में।
रिश्ते बना कर के निभाने की कला जो सीखता।
वह जीतता रहता सदा इस जिंदगी में प्यार में।

किलकारी कन्या करे, कौला रखती ख्याल |
धरती पर धरती कदम, रानी रही संभाल ||

उत्तम औषधि वैद्य की, शुभ गुणकारी लेप |
रस्ते भर मलती चली, तीन बार अति घेप ||

नई वनस्पति फल नए, शीतल नई समीर | 
खान-पान था कुल नया, नई नई तासीर || 

अंग देश की बालिका, मंद-मंद मुसकाय |
कंद-मूल फल प्रेम से, अंगदेश के खाय ||

रानी के संग खेलती, बाला भूल कलेश |
राज काज के काम कुछ, निबटा रहे नरेश ||
  
एक अनोखा वाद था,  ग्राम प्रमुख के पास |
बात सौतिया डाह की, विधवा करती नाश ||

सौतेला  है एक सुत, सौजा  के  दो  आप |
 एक बाघ भक्षण करे, सौजा करे विलाप  ||

कुंडलियां 
फांके हफ़्तों से करे, अपनों से खा मात ।  
जिन्दा रहने के लिए, करता वो आघात ।
करता वो आघात, क्षमा रविकर कर देते ।
पर कैसा वह शौक, प्राण जो यूँ ही लेते ।
भरे पेट का मौज, तड़पती लाशें ताके ।
दुष्कर्मी बेखौफ, मौज से पाचक फांके ।।

रो रो कर वह बक रही, सौतेले का दोष |
यद्दपि वह घायल पड़ा, करे गाँव अफ़सोस ||

कुंडलियां 
ढर्रा बदलेगी नहीं,  रोज अड़ाये टांग ।
खांई में बच्चे सहित, सकती मार छलांग । 
सकती मार छलांग, भूलती मानुष माटी ।
मात्र सौतिया डाह, चलाये वो परिपाटी  ।
रविकर का अंदाज, लगेगा झटका कर्रा ।
बर्रा प्राकृत दर्प, पुराना पकड़े  ढर्रा ।।

बड़ी दिलेरी से लड़ा, चौकीदार गवाह |
बाघ पुत्र को ले भगा, जंगल दुर्गम राह ||

सौजा को विश्वास है, देने को संताप |
सौतेले ने है किया, कैसा दुर्धुश पाप ||

नहीं चाहती वह रहे, इस घर में अब  साथ |
ईश्वर की  खातिर अभी, न्याय कीजिए नाथ ||

दालिम को लाया गया, हट्टा-कट्टा वीर |
चेहरे पर थी पीलिमा, घायल बहुत शरीर ||

सौजा से भूपति कहें, दालिम का अपराध |
ग्राम निकाला दे दिया, रहे किन्तु हितसाध ||

दालिम से मुड़कर कहें, बैठो जाय जहाज  |
छू ले माता के चरण, मत होना नाराज  ||

राजा पक्के पारखी,  है हीरा यह वीर |
पुत्री का रक्षक लगे, कौला की तकदीर ||

कुंडलियां 
ममता में अंधी हुई, अपना पूत दिखाय |
स्वार्थ सिद्ध में लग गई,  गाँव  भाड़ में जाय |
गाँव  भाड़ में जाय, खाय ले सौतन बच्चा |
एक सूत्र पा जाय , चबाती बच्चा कच्चा |
देती हृदय हिलाय, कोप जब रविकर थमता  |
मंद मंद मुसकाय, महामाया सी ममता ।।

सेनापति से यूँ कहें, रुको यहाँ कुछ रोज |
नरभक्षी से त्रस्त जन, करो सिंह की खोज ||

जीव-जंतु जंगल नदी, सागर खेत पहाड़ |
बंदनीय हैं ये सकल, रविकर नहीं उजाड़ ||

रक्षा इनकी जो करे, उनकी रक्षा होय |
शोषण यदि मानव करे, जाए जल्द बिलोय ||

केवल क्रीडा के लिए, करो नहीं आखेट |
भरता शाकाहार भी, मांसाहारी पेट ||

जीव जंतु वे धन्य जो, परहित धरे शरीर |
हैं निकृष्ट वे जानवर, खाँय इन्हें जो  चीर ||

नरभक्षी के लग चुका, मुँह में मानव खून |
जल्दी ही मारो उसे, जनगण पाय सुकून ||

अगली संध्या में करें, भूपति  नगर प्रवेश  |
अंग-अंग प्रमुदित हुआ, झूमा अंग प्रदेश ||

गुरुजन का आशीष ले, मंत्री संग विचार |
नामकरण का शुभ दिवस, तय अगला बुधवार || 

महा-पुरोहित कर रहे, थापित महा-गणेश |
देवलोक से देखते, ब्रह्मा विष्णु महेश ||

रानी माँ की गोद में, चंचल रही विराज |
टुकुर टुकुर देखे सकल, होते मंगल काज ||

कौला दालिम साथ में, राजकुमारी पास |
वे  दोनों कुछ ख़ास हैं, करें स्वयं अहसास ||

महापुरोहित बोलते, हो जाओ सब शांत |
शान्ता सुन्दर नाम है, फैले सारे प्रांत ||

शान्ता -शान्ता कह उठा, वहाँ जमा समुदाय |
मात-पिता प्रमुदित हुए, कन्या खूब सुहाय ||

कार्यक्रम सम्पन्न हो, विदा हुए सब लोग |
पूँछे कौला को बुला, राजा पाय सुयोग ||

शान्ता की तुम धाय हो, हमें तुम्हारा ख्याल |
दालिम लगता है भला, रखे तुम्हे खुशहाल ||

तुमको यदि अच्छा लगे, दिल में है यदि चाह |
सात दिनों में ही करूँ, तुम दोनों का व्याह ||

कौला शरमाई तनिक, गई वहाँ से भाग |
दालिम की किस्मत जगी, बढ़ा राग-अनुराग ||

दोनों की शादी हुई, चले एक ही राह |
शान्ता के प्रिय बन रहे, बढ़ी परस्पर चाह  ||

नई परिस्थिति में ढलो, ताल-मेल बैठाय।
करो मित्रता धैर्य से, काहे जी घबराय।।

पोर-पोर में प्यार है, ममतामयी महान ।
कन्या में नित देखती, देवी का वरदान ।। 

भाग-4 
सृंगी जन्मकथा
 रिस्य विविन्डक कर रहे, शोध कार्य संपन्न ।
विषय परा-विज्ञान मन, औषधि प्रजनन अन्न ।

विकट तपस्या त्याग तप, इन्द्रासन हिल जाय ।
तभी उर्वशी अप्सरा, ऋषि सम्मुख मुस्काय ।

शोध कार्य के वास्ते, करे स्वयं को पेश ।
ऋषि-पत्नी रखने लगी, उसका ध्यान विशेष ।

इस अतीव सौन्दर्य पर, होते ऋषि आसक्त ।
औषधि प्रजनन शोध पर, अधिक ध्यान अनुरक्त ।

इधर उर्वशी कर रही, कार्य इंद्र का सिद्ध ।
धीरे धीरे ही सही, प्रेम हुआ समृद्ध ।

ऋषि-पत्नी फिर एक दिन, करवा देती व्याह ।
प्रेम-पल्लवन के लिए, खुली चतुर्दिक राह ।

एक वर्ष पश्चात ही,  पुत्र -जन्म हो जाय ।
गई उर्वशी स्वर्ग को, देती उन्हें थमाय ।।

हुवे विविन्डक जी दुखी, पुत्र जन्म के बाद ।
मस्तक पर दो सृंग हैं , सुन विचित्र अनुनाद ।

फिर भी प्यारा पुत्र यह, माता करे दुलार ।
ऋषिवर को पकड़ा रही, खोटी-खरी हजार ।

अपनी खोजों से किया, गर्भ गलत उपचार ।
इसीलिए तो शीश का, है  विचित्र आकार ।।

कोसी तट पर पल रहा, आश्रम का यह नूर ।
 गुप्त रूप से पालते, श्रृंग करें मजबूर ।

सृंगी तेरह बरस के, वह सुरम्य वनभाग ।
उच्च हिमालय तलहटी, सरिता झील तड़ाग ।

शिक्षा दीक्षा नियम से, ज्ञान उपासक श्रेष्ठ ।
नारी से अनजान हैं, चिंतित होते ज्येष्ठ ।

सत्पोखर में फिर बसे, रिस्य विविन्डक आय ।
संगम कोसी-गंग का, दृश्य रहा मनभाय ।

सृंगेश्वर की थापना, सृंगी से करवाय ।
देश भ्रमण के लिए रिस्य, पत्नी लेकर जाय ।

जोर शोर से फैलता, सृंगेश्वर का नाम ।
राजा मय परिवार के, करने चले प्रणाम।।   

मंदिर में तम्बू लगा, करते सब विश्राम ।
शांता रूपा चंचला, घूम रही निष्काम ।

छोटी छोटी बालिका, जाती आश्रम बीच ।
सृंगी अपने कक्ष में, ध्यावें आँखे मीच ।

रूपा की शैतानियाँ, ध्यान हो गया भंग ।
इक दूजे को देख के, सृंगी-शांता  दंग ।।

सृंगी पहली मर्तवा, देखें बाला रूप । 
कन्याओं का वेश भी, उनको लगा अनूप ।। 

सोहे सृंगी सृंग से, शांता के मन भाय।
परिचय देती शान्ता, उनका परिचय पाय ।

बाल सुलभ मुस्कान से, तृप्त हृदय हो जाय ।। 
 मातु-पिता के पास फिर, उनको लेती आय।

इन बच्चों को देखकर, होते सभी प्रसन्न । 
सृंगी जी संकोच में,  ग्रहण करें नहिं अन्न । 

तीन दिनों का यह समय, सृंगी के अनमोल । 
सार्वजनिक जीवन हुआ, भाये शांता बोल ।। 

सर्ग-2 समाप्त