प्रबंध काव्य के रचयिता :-
दिनेश चन्द्र गुप्ता " रविकर"
पटरंगा, फ़ैजाबाद
उत्तर प्रदेश
प्रस्तावना
शांता सुता दशरथ पिता है मातु कौशल्या रही।
श्रृंगी मिले पति रूप में पर है नहीं वर्णन कहीं ।
श्री राम की भगिनी मगर तुलसी महाकवि मौन हैं।
विद्वान-विदुषी पूछते अथ देवि शांता कौन है ।
समगोत्र थे माता-पिता, गोत्रीय दोषों का असर |
दिव्यांग शांता से गई माँ वर्षिणी की गोद भर ।
सम्पूर्ण वर्णन के लिए माँ शारदे तू शक्ति दे ।
माँ धृष्टता कर दे क्षमा, सच्ची सरल अभिव्यक्ति दे ॥
कुंडलियां
रविकर नीमर नीमटर, वन्दे हनुमत नाँह ।
विषद विषय पर थामती, कलम वापुरी बाँह ।
कलम वापुरी बाँह, राह दिखलाओ स्वामी ।
बहन शांता श्रेष्ठ, मगर हे अन्तर्यामी ।
नहीं काव्य दृष्टांत, उपेक्षित त्रेता द्वापर ।
रचवा दे शुभ-काव्य, हुवा शरणागत-रविकर ।
सर्ग -१ भाग-१
सोरठा
वन्दौं पूज्य गणेश, एकदंत हे गजबदन |
जय-जय जय विघ्नेश, पूर्ण कथा कर पावनी ||1||
वन्दौं गुरुवर श्रेष्ठ, कृपा पाय के मूढ़-मति,
गुन-गँवार ठठ-ठेठ, काव्य-साधना में रमा ||2||
गोधन-गोठ प्रणाम, कल्प-वृक्ष गौ-नंदिनी |
गोकुल चारो धाम, गोवर्धन-गिरि पूजता ||3||
वेद-काल का साथ, गंगा सिन्धु सरस्वती |
ईरानी हेराथ, है सरयू समकालिनी ||4||
राम-भक्त हनुमान, सदा विराजे अवधपुर |
सरयू होय नहान, मोक्ष मिले अघकृत तरे ||5||
करनाली का स्रोत्र, मानसरोवर अति-निकट |
करते जप-तप होत्र, महामनस्वी विचरते ||6||
क्रियाशक्ति भरपूर, पावन भू की वन्दना |
राम भक्ति में चूर, मोक्ष प्राप्त कर लो यहाँ ||7||
सरयू अवध प्रदेश, दक्षिण दिश में बस रहा |
हरि-हर ब्रह्म सँदेश, स्वर्ग सरीखा दिव्यतम ||8||
पूज्य अयुध भूपाल, रामचंद्र के पितृ-गण |
गए नींव थे डाल, बसी अयोध्या पावनी ।। 9।।
दोहा
शुक्ल पक्ष की तिथि नवम, पावन कातिक मास |
होय नगर की परिक्रमा, मन श्रद्धा-विश्वास ||
मर्यादा आदर्श गुण, अपने हृदय उतार |
लगे राम दरबार में, लंबी बड़ी कतार |।
पुरुषोत्तम सरयू उतर, होते अंतर्ध्यान |
त्रेता युग का अवध तब, हुआ पूर्ण वीरान |।
सद्प्रयास कुश ने किया, बसी अयोध्या वाह |
सदगृहस्थ वापस चले, पकड़ अवध की राह |।
कृष्ण रुक्मणी अवध में, आये द्वापर काल |
चरणों में श्री राम के, गये सुमन शुभ डाल ||
कलयुग में सँवरी पुन:, नगरी अवध महान |
वीर विक्रमादित्य से, बढ़ी नगर की शान ||
देवालय फिर से बने, बने सरोवर कूप |
स्वर्ग सरीखा सज रहा, अवध नगर का रूप ||
सोरठा
माया मथुरा साथ, काशी काँची द्वारिका |
महामोक्ष का पाथ, अवंतिका शुभ अवधपुर ||10||
अंतरभूमि प्रवाह, सरयू सरसर वायु सी
संगम तट निर्वाह, पूज्य घाघरा शारदा ||11||
पुरखों का आवास, तीन कोस बस दूर है |
बचपन में ली साँस, यहीं किनारे खेलता ||12||
फागुन में श्री धाम, करें परिक्रमा भक्त गण ।
पटरंगा मम-ग्राम, चौरासी कोसी परिधि ||13||
थे दशरथ अधिराज, उन्तालिसवें वंश के |
रथ दुर्लभ अंदाज, दशों दिशा में हांक लें ||14||
पिता-श्रेष्ठ 'अज' भूप, असमय स्वर्ग सिधारते |
सुन लो कथा कुरूप, मातु-पिता चेतो सुजन ||15||
भाग-2
दशरथ बाल-कथा --
दोहा
इंदुमती के प्रेम में, भटक रहे अधिराज |
लम्पट विषयी अज हुए, झेले राज अकाज ||1||
गुरु वशिष्ठ की मंत्रणा, सह सुमंत बेकार |
इंदुमती के प्यार में, दूर हुआ दरबार ||2||
क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही, परम सौख्य परितोष |
सुन्दरता पागल करे, मानव का क्या दोष ||3||
अति होती हरदम बुरी, खान-पान-अभिसार |
क्रोध-प्यार बड़-बोल से, जाय जिंदगी हार ||4||
झूले मुग्धा नायिका, राजा मारे पेंग |
वेणी लागे वारुणी, रही दिखाती ठेंग ||5||
राज-वाटिका में रमे, चार पहर से आय |
तीन-मास के पुत्र को, धाय रही बहलाय ||6||
नारायण-नारायणा, नारद निधड़क नाद |
अवधपुरी के गगन पर, स्वर्गलोक संवाद ||7||
वीणा से माला सरक, सिर पर गिरती आय ।
इंदुमती वो अप्सरा, जान हकीकत जाय ।।8||
एक पाप का त्रास वो, यहाँ रही थी भोग |
स्वर्ग-लोक नारी गई, अज को परम वियोग ||9||
माँ का पावन रूप भी, सका न उसको रोक |
तीन मास के लाल को, छोड़ गई इह-लोक ||10||
विरह वियोगी जा महल, कदम उठाया गूढ़ |
भूल पुत्र को कर लिया, आत्मघात वह मूढ़ ||11|
दिल में ज्यों ज्यों उतरते, तरते जाते प्राण।
लेकिन दिल से उतरते, करते प्राण प्रयाण।।12 ॥
माटी का पुतला मनुज, माटी में मिल जाय।
पर पत्थर की प्रियतमा, नहीं सिकन तक आय।।13॥
कुंडलियां
(1)
उदासीनता की तरफ, बढ़ते जाते पैर ।
रोको रविकर रोक लो, जीवन से क्या बैर ।
जीवन से क्या बैर, व्यर्थ ही जीवन त्यागा ।
किया पुत्र को गैर, करे क्या पुत्र अभागा ?
दर्द हार गम जीत, व्यथा छल आँसू-हाँसी ।
जीवन के सब तत्व, जियो जग छोड़ उदासी ।।
दोहा
प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत, मांगे प्यार अपार |
जहाँ कहीं देना पड़े, करे व्यर्थ तकरार ||14 ॥
कुंडलियां
मरने से जीना कठिन, पर हिम्मत मत हार ।
कायर भागे कर्म से, होय नहीं उद्धार ।
होय नहीं उद्धार, चलो पर-हित कुछ साधें ।
बनिए नहीं लबार, गाँठ जिभ्या पर बांधें ।
फैले रविकर सत्य, स्वयं पर जय करने से ।
जियो लोक हित मित्र, मिले नहिं कुछ मरने से ।
माता की ममता छली, करता पिता अनाथ |
रोय-रोय शिशु हारता, पटक-पटक कर माथ ||15||
कुंडलियां
सम्यक मात्रा है दवा, हरे दर्द दुख खीज़।
किन्तु जरूरत से अधिक, बने जहर वह चीज।
बने जहर वह चीज़, मोह मद शक्ति लालसा।
महत्वाकाँक्षा द्वेष, सम्पदा आलस पैसा।
रविकर इन्हें सँभाल, कठिन है जीवन यात्रा।
औषधि करे कमाल, अगर हो सम्यक मात्रा।।
कुंडलियां
सम्यक मात्रा है दवा, हरे दर्द दुख खीज़।
किन्तु जरूरत से अधिक, बने जहर वह चीज।
बने जहर वह चीज़, मोह मद शक्ति लालसा।
महत्वाकाँक्षा द्वेष, सम्पदा आलस पैसा।
रविकर इन्हें सँभाल, कठिन है जीवन यात्रा।
औषधि करे कमाल, अगर हो सम्यक मात्रा।।
भाग-3
कौशल्या-दशरथ
कुंडलियां
दुख की घड़ियाँ सब गिनें, घड़ी-घड़ी सरकाय ।
धीरज हिम्मत बुद्धि बल, भागे तनु विसराय ।
भागे तनु विसराय, अश्रु दिन-रात डुबोते ।
रविकर मन बहलाय, नहीं कूद को यूँ खोते ।
समय-चक्र गतिमान, मिलाये सुख की कड़ियाँ ।
मान ईश का खेल, बिता ले दुख की घड़ियाँ ।।
क्रियाकर्म विधिवत हुआ, तेरह-दिन का शोक ।
आसमान शिशु ताकता, खाली महल बिलोक ||16 |
आँसू बहते अनवरत, गला गया था बैठ |
राज भवन में थी मगर, अरुंधती की पैठ ||17।|
पत्नी पूज्य वशिष्ठ की, सादर उन्हें प्रणाम |
विकट समय में पालती, माता सम अविराम ||18 ||
लिया महामंत्री बुला, गुरु-वशिष्ठ ने पास |
लालन-पालन की हुई, शीघ्र व्यवस्था ख़ास ||19||
महागुरू मरुधन्व के, आश्रम में तत्काल |
गुरु-आज्ञा से ले गए, व्याकुल दशरथ बाल ||20||
जहाँ नंदिनी पालती, बाला-बाल तमाम |
बढ़े पुष्टता दुग्ध से, भ्रातृ-भाव पैगाम ||21 ||
कामधेनु की है कृपा, होती इच्छा पूर |
देवलोक की नंदिनी, है आश्रम की नूर ||22 ||
सरयू के दोनों तरफ, सूर्यवंश के भूप |
दोनों का शासन चले. नीति-नियम अनुरूप ||23 ||
दोनों का शासन चले. नीति-नियम अनुरूप ||23 ||
राजा अज की मित्रता, का उनको था गर्व |
दुर्घटना से अति-दुखी, राजा-रानी सर्व ||24 ||
अवधपुरी आने लगे, प्राय: कोसलराज |
राज-काज बिधिवत चले, करती जनता नाज ||25 ||
राजकुमारी वर्षिणी, रानी भी हो संग ।
करते सब कोशिश सफल, भरे अवध नवरंग ।26 ।
धीरे-धीरे बीतता, दुख से बोझिल काल |
राजकुँवर भूले व्यथा, बीत गया वह साल |27॥
दूध नंदिनी का पिया, अन्नप्राशनी-पर्व |
आश्रम से वापस हुए, आनंदित हों सर्व |28|
ठुमुक-ठुमुक कर भागते, छोड़-छाड़ पकवान |
दूध नंदिनी का पियें, आता रोज विहान |29|
उत्तर कोशल झूमता, नव कन्या मुसकाय |
पिता बने भूपति पुन:, फूले नहीं समाय |30 |
बच्चों को लेकर करें, अवध पुरी की सैर |
राजा-रानी नियम से, लेने आते खैर |31
कन्या कौशल्या हुई, दशरथ राजकुमार |
नामकरण उत्सव हुवे, धरते गुण अनुसार |32।
विधिवत शिक्षा के लिए, फिर से राजकुमार |
कुछ वर्षों के बाद ही, गए गुरू-आगार |33॥
अच्छे योद्धा बन गए, महाकुशल बलवान|
दसों दिशा रथ हाँकले, बने अवध की शान |34 |
शब्द-भेद संधान से, गुरु ने किया अजेय |
अवधपुरी उन्नत रहे, बना एक ही ध्येय |35 2|
राजतिलक विधिवत हुआ, आये कौशल-राज |
राजकुमारी साथ में, हर्षित सकल समाज |36 |
बचपन का वो खेलना, छीना झपटी स्वाँग |
इक दूजे को स्वयं से, मन ही मन लें माँग ।37।
विधाता छंद
अयोध्या के बने भूपति चतुर्दिक हर्ष छाया है |
घड़ी दुख की गुजर जाती ख़ुशी का वक्त आया है |
महारानी महाराजा परस्पर साथ भाया है | |
मना आनन्द कौशल्या हॄदय दशरथ समाया है |
अयोध्या के बने भूपति चतुर्दिक हर्ष छाया है |
घड़ी दुख की गुजर जाती ख़ुशी का वक्त आया है |
महारानी महाराजा परस्पर साथ भाया है | |
मना आनन्द कौशल्या हॄदय दशरथ समाया है |
भाग-4
रावण, कौशल्या और दशरथ
दशरथ-युग में ही हुआ, रावण विकट महान |
पंडित ज्ञानी साहसी, कुल-पुलस्त्य का मान ||1|
शिव-चरणों में दे चढ़ा, दसों शीश को काट |
लेकिन शिव जी का नहीं, सका ध्यान वह बाँट । |
युक्ति दूसरी कर रहा, मुखड़ों पर मुस्कान ।
छेड़ी वीणा से मधुर, सामवेद की तान ||
भण्डारी ने भक्त पर, कर दी कृपा अपार |
मिली शक्तियों से हुवे, पैदा किन्तु विकार ||
पाकर शिव-वरदान वो, पहुँचा ब्रह्मा पास |
श्रद्धा से की वन्दना, की पावन अरदास ||
ब्रह्मा ने परपौत्र को, दिए विकट वरदान |
ब्रह्म-अस्त्र भी सौंपते, अस्त्र-शस्त्र की शान ||
शस्त्र-शास्त्र का हो धनी, ताकत से भरपूर |
मांग अमरता का रहा, वर जब रावन क्रूर ||6||
ऐसा तो संभव नहीं, मन की गाँठे खोल |
मृत्यु सभी की है अटल, परम-पिता के बोल ||7||
कौशल्या का शुभ लगन, हो दशरथ के साथ |
दिव्य-शक्तिशाली सुवन, काटेगा दस-माथ ||8||
रावण का था काँपता, थर-थर बदन अपार |
प्राप्त अमरता मैं करूँ, कौशल्या को मार ||9||
चेताती मंदोदरी, नारी हत्या पाप |
झेलोगे कैसे भला, जीवन भर संताप ||10||
रावण के निश्चर विकट, पहुँचे सरयू तीर |
कौशल्या का अपहरण, करके शिथिल शरीर ||11||
बंद पेटिका में किया, देते जल में डाल |
आखेटक दशरथ निकट, सुनकर शब्द-बवाल ||12||
राक्षस-गण से जा भिड़े, चले तीर-तलवार |
भागे निश्चर हारकर, नृप कूदे जल-धार ||13||
आगे बहती पेटिका, पीछे भूपति वीर |
शब्द भेद से था पता, अन्दर एक शरीर ||14||
बहते बहते पेटिका, गंगा जी में जाय |
जख्मी दशरथ को इधर, रहा दर्द अकुलाय ||15||
रक्तस्राव था हो रहा, भूपति थककर चूर |
पड़ती दृष्टि जटायु की, करे मदद भरपूर ||16||
दशरथ मूर्छित हो गए, घायल फूट शरीर |
पत्र-पुष्प-जड़-छाल से, हरे जटायू पीर ||17||
भूपति आये होश में, असर किया संलेप |
गिद्धराज के सामने, कथा कही संक्षेप ||18||
कहा जटायू ने उठो, बैठो मुझपर आय |
पहुँचाऊँगा शीघ्र ही, राजन उधर उड़ाय ||19||
बहुत दूर तक ढूँढ़ते, पहुँचे सागर पास |
पाय पेटिका खोलते, हुई बलवती आस ||20||
कौशल्या बेहोश थी, मद्धिम पड़ती साँस |
नारायण जपते दिखे, नारद जी आकाश ||21||
बड़े जतन करने पड़े, हुई तनिक चैतन्य |
सम्मुख प्रियजन पाय के, राजकुमारी धन्य ||22||
घटना घटती घाट पे, डूब गए छल-दम्भ।
होते एकाकार दो, तन घटना आरम्भ।।
नारद जी भवितव्य का, रखते पूरा ध्यान ।
दोनों को उपदेश दे, दूर करें अज्ञान ।|
नारद विधिवत कर रहे, सब वैवाहिक रीत |
दशरथ को ऐसे मिली, कौशल्या मनमीत ||
नव-दम्पति को ले उड़े, गिद्धराज खुश होंय |
नारद जी चलते बने, भावी कड़ी पिरोय ||
अवधपुरी सुन्दर सजी, आये कोशलराज |
दोहराए फिर से गए, सब वैवाहिक काज ||
भाग-5
रावण के क्षत्रप
सोरठा
रास रंग उत्साह, अवधपुरी में जम रहा |
उत्सुक देखे राह, कनक महल सजकर खड़ा ||
चौरासी विस्तार, अवध नगर का कोस में |
अक्षय धन-भण्डार, हृदय कोष सन्तोष धन |
कनक भवन आगार, अष्ट-कुञ्ज थे द्वार सह |
पाँच कोस विस्तार, वन-उपवन बारह सजे ||
शयन-केलि-श्रृंगार, भोजन-कुञ्ज नहान भी |
झूलन-कुञ्ज-बहार, अष्ट कुञ्ज में थे प्रमुख ||
चम्पक-विपिन-रसाल, पारिजात-चन्दन महक |
केसर-कदम-तमाल, वन विचित्र नाग्केसरी-||
लौंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |
वृन्दावन नायाब, उपवन जूही माधवी ||
घूमें सुबहो-शाम, कौशल्या दशरथ मगन |
इन्द्रपुरी सा धाम, करते देवता ईर्ष्या ||
रावण के उत्पात, उधर झेलते साधुजन |
बैठ लगा के घात, कैसे रोके आरी जनम ||
मायावी इक दास, आया विचरे अवधपुर |
करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल ||
चार दासियों संग, कौशल्या झूलें मगन |
उपवन मस्त अनंग, मायावी आया उधर ||
धरे सर्प का रूप,शाखा पर जाकर डटा |
पड़ी तनिक जो धूप, सूर्य-पूर्वज ताड़ते ||
महा पैतरेबाज, सिर पर वो फुफकारता |
दशरथ सुन आवाज, शब्द-भेद कर मारते ||
रावण के षड्यंत्र, यदा-कदा होते रहे |
जीवन के सद-मंत्र, सूर्य-वंश आगे चला ||
गुरु-वशिष्ठ का ज्ञान, सूर्यदेव के तेज से |
अवधपुरी की शान, सदा-सर्वदा बढ़ रही ||
रावण रहे उदास, लंका सोने की बनी |
करके कठिन प्रयास, धरती पर कब्ज़ा करे ||
जीते जो भू-भाग, क्षत्रप अपने छोड़ता |
निकट अवध संभाग, खर-दूषण को सौंप दे ||
खर-दूषण बलवान, रावण सम त्रिशिरा विकट |
डालें नित व्यवधान, गुप्त रूप से अवध में ||
त्रिजटा शठ मारीच, मठ आश्रम को दें जला |
भूमि रक्त से सींच, हत्या करते साधु की ||
कुत्सित नजर गड़ाय, राज्य अवध को ताकते |
खबर रहे पहुँचाय, आका लंका-धीश को ||
गए बरस दो बीत, कौशल्या थी मायके |
पड़ी गजब की शीत, 'रविकर' छुपते पाख भर ||
जलने लगे अलाव, जगह-जगह पर राज्य में |
दशरथ यह अलगाव, सहन नहीं कर पा रहे ||
भेजा चतुर सुमंत्र, विदा कराने के लिए |
रचता खर षड्यंत्र, कौशल्या की मृत्यु हित ||
असली घोडा मार, लगा स्वयं रथ हाँकने ||
कौशल्या असवार, अश्व छली लेकर भगा ||
धुंध भयंकर छाय, हाथ न सूझे हाथ को |
रथ तो भागा जाय, मंत्री मलते हाथ निज ||
कौशल्या हलकान, रथ की गति अतिशय विकट |
रस्ते सब वीरान, कोचवान दिखता नहीं ||
समझ गई हालात, बंद पेटिका याद थी |
ढीला करके गात, जगह देख कूदी तुरत ||
लुढ़क गई कुछ दूर, झाड़ी में जाकर छुपी ||
चोट लगी भरपूर, होश खोय बेसुध पड़ी ||
मंत्री चतुर सुजान, दौड़ाए सैनिक सकल |
देखा पंथ निशान, झाड़ी में सौभाग्य से ||
लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |
नर-नारी सब धाय, हाय-हाय करने लगे ||
खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |
अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका ||
रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |
रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर ||
रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |
वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में ||
दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |
भेजे धावक ख़ास, समाचार लेने गए ||
भाग-6
रावण का गुप्तचर
दोहे
असफल खर की चेष्टा, हो बेहद गमगीन |
लंका जाकर के खड़ा, मुखड़ा दुखी मलीन ||
रावण बरबस पूछता, क्यूँ हो बन्धु उदास |
कौशल्या के गर्भ का, करके सत्यानाश ||
खर पूछे आश्वस्त हो, भ्रात कहो समझाय |
यह घटना कैसे हुई, जियरा तनिक जुड़ाय ||
रानी रथ से कूदती, चोट खाय भरपूर |
तीन माह का भ्रूण भी, हो जाता खुद चूर ||
सज्जन खुशियाँ बांटते, दुर्जन कष्ट बढ़ाय ।
दुर्जन मरके खुश करे, सज्जन जाय रूलाय ।
खर के सँग फिर गुप्तचर, भेजा सागर पार |
वह सुग्गासुर जा जमा, शुक थे जहाँ अपार ||
हरकारे वापस इधर, आये दशरथ पास |
घटना सुनकर हो गया, सारा अवध उदास ||
विकट मार्मिक कष्टकर, सुना सकल दृष्टांत ।
असहनीय दुष्कर लगे, होता चित्त अशांत ।
गुरुकुल में शावक मरा, हिरनी आई याद |
अनजाने घायल हुई, चखा दर्द का स्वाद ||
आहों से कैसे भरे, मन के गहरे घाव ।
मरहम-पट्टी समय के, शमन करेंगे भाव ।।
अनुमति पाय वशिष्ठ की, तुरत गए ससुरार |
कौशल्या को देखते, नैना छलके प्यार ||
सूरज ने संक्रान्ति से, दिए किरण उपहार |
कटु-ठिठुरन थमने लगी, चमक उठा संसार ||
दवा-दुआ से हो गई, रानी जल्दी ठीक |
दशरथ के सत्संग से, घटना भूल अनीक ||
कुण्डलियाँ
आपाधापी जिंदगी, फुर्सत भी बेचैन।
बेचैनी में ख़ास है, अपनेपन के सैन ।
अपनेपन के सैन, बैन प्रियतम के प्यारे ।
अपनों के उपहार, खोलकर अगर निहारे ।
पा खुशियों का कोष, ख़ुशी तन-मन में व्यापी ।
नई ऊर्जा पाय, करे फिर आपाधापी ।।
विदा मांग कर आ गए, राजा-रानी साथ |
चिंतित परजा झूमती, होकर पुन: सनाथ ||
धीरे धीरे सरकती, छोटी होती रात |
हवा बसंती बह रही, जल्दी होय प्रभात |
दिग-दिगंत बौराया | मादक बसंत आया ||
तोते सदा पुकारे | मैना मन दुत्कारे ||
काली कोयल कूके | लोग होलिका फूंके ||
सरसों पीली फूली | शीत बची मामूली ||
भौरां मद्धिम गाये | तितली मन बहलाए ||
भाग्य हमारे जागे | गर्म वस्त्र सब त्यागे ||
पीली सरसों फूलती, हरे खेत के बीच |
कृषक निराई कर रहे, रहे खेत कुछ सींच ||
पौधे भी संवाद में, रत रहते दिन रात |
गेहूं जौ मिलते गले, खटखटात जड़ जात |।
तरह तरह की जिंदगी, पक्षी कीट पतंग |
विचरे जीव प्रसन्न मन, नए सीखते ढंग ||
कौशल्या रहती मगन, वन-उपवन में घूम ||
धीरे धीरे भूलती, गम पुष्पों को चूम ||
पहले कुल पत्ते झड़े, फिर गिरते फल-फूल।
पुन: यत्न करता शुरू, तरु विषाद-दुख भूल ।।
पहले कुल पत्ते झड़े, फिर गिरते फल-फूल।
पुन: यत्न करता शुरू, तरु विषाद-दुख भूल ।।
कुंडलियां
खिलें बगीचे में सदा, भाँति भाँति के रंग ।
पुष्प-पत्र-फल मंजरी, तितली भ्रमर पतंग ।
तितली भ्रमर पतंग, बागवाँ सारे न्यारे ।
दुनिया होती दंग, आय के दशरथ द्वारे ।
नित्य पौध नव रोप, हाथ से हरदिन सींचे ।
कठिन परिश्रम होय, तभी तो खिलें बगीचे ।।1||
घोंघे करते मस्तियाँ, मीन चुकाती दाम ।
कमल-कुमुदनी से पटा, पानी पानी काम ।
पानी पानी काम, केलि कर काई कीचड़ ।
रहे नोचते *पाम, काइयाँ पापी लीचड़ ।
भौरों की बारात, पतंगे जलते मोघे ।
श्रेष्ठ विदेही पात, नहीं बन जाते घोंघे ।| 2 ||
कौशल्या के गर्भ की, कैसे रक्षा होय |
दशरथ चिंता में पड़े, आँखे रहे भिगोय ||
रहे कुशल नारी सदा, छले न उसको धूर्त ।
संरक्षित निर्भय रहे, संग पिता-पति पूत ।
तोते कौवे की बढ़ी, महल पास तादाद |
गिद्धराज की तब उन्हें, आई बरबस याद ।।
कौशल्या जब देखती, गिद्धराज सा गिद्ध |
याद जटायू को करे, किया प्यार जो सिद्ध ||
यह मोटा भद्दा दिखे, शुभात्मीय सदरूप |
यह घृणित चौकस लगे, उसपर स्नेह अनूप ||
गिद्ध-दृष्टि रखने लगा, बदला-बदला रूप |
अलंकार त्यागा सभी, बनकर रहे कुरूप ||
केवल दशरथ जानते, होकर रहें सचेत |
अहित-चेष्टा में लगे, खर-दूषण से प्रेत ||
सुग्गासुर अक्सर उड़े, कनक महल की ओर |
देख जटायू को हटे, हारे मन का चोर ||
चमके सुन्दर तन मगर, काले छुद्र विचार |
स्वर्ण-पात्र में ज्यों पड़ी, कीलें कई हजार ||
चमके सुन्दर तन मगर, काले छुद्र विचार |
स्वर्ण-पात्र में ज्यों पड़ी, कीलें कई हजार ||
एक दिवस रानी गई, वन-रसाल उल्लास |
सुग्गासुर आया निकट, बाणी मधुर-सुभाष ||
माथे टीका शोभता, लेता शुक मनमोह |
ऊपर से अतिशय भला, मन में रखता द्रोह ||
मत्तगयन्द सवैया
बाहर की तनु सुन्दरता मनभावन रूप दिखे मतवाला ।
साज सिँगार करे सगरो छल रूप धरे उजला पट-काला ।
मीठ विनीत बनावट की पर दंभ भरी बतिया मन काला ।
दूध दिखे मुख रूप सजे पर घोर भरा घट अन्दर हाला ।।
रानी वापस आ गई, आई फिर नवरात |
नव-दुर्गा को पूजती, एक समय फल खात ||
स्नानकुंज में रोज ही, प्रात: करे नहान |
भक्तिभाव से मांगती, माता सम सन्तान ||
सुग्गासुर की थी नजर, स्वर्ण हार पर ख़ास |
मौका पाकर ले उड़ा, लेकिन व्यर्थ प्रयास ||
सुनकर चीख-पुकार को, वो ही भद्दा गिद्ध ||
शुक के पीछे लग गया, होकर अतिशय क्रुद्ध ||
जान बचाकर शुक भगा, था पक्का अय्यार ||
आश्रय पाय सुबाहु गृह, छुपा छोड़ के हार ||
रानी पाकर हार को, होती हर्षित खूब |
राजा का उपहार पा, गई प्यार में डूब ||
नवमी को व्रत पूर्ण कर, कन्या रही खिलाय |
चरण धोय कर पूजती, पूड़ी-खीर जिमाय ||
'रविकर' दिन का ताप अब, दारुण होता जाय |
पाँव इधर भारी हुए, रानी मन सकुचाय ||
अम्बिया की चटनी बने, हरा-पुदीना डाल ।
बेमन से वो खा रही , चिंता से बेहाल ।।
अपने गम में लिप्त सब, नहीं किसी का ख्याल ।
पुतली से रखते सटा, अपने सब जंजाल ।।
हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |
कोशिश चलने की करो, जीतो दुर्गम राह |
कुंडलियां
मन की मनमानी खले, रक्खो खीँच लगाम ।
हड़-बड़ में गड़बड़ करे, पड़ें चुकाने दाम ।
पड़ें चुकाने दाम, अर्थ हो जाय अनर्गल ।
ना जाने क्या कर्म, मर्म को लगे उछल-कर ।
सदा रखो यह ध्यान, शीर्ष का चुन लो प्राणी ।
अनुगामी बन स्वयं, रोक मन की मनमानी ।।
सर्ग-1 : समाप्त
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