जय-जय जय विघ्नेश, पूर्ण कथा कर पावनी ||
वन्दऊँ गुरुवर श्रेष्ठ, कृपा पाय के मूढ़ मति,
गुन-गँवार ठठ-ठेठ, काव्य-साधना में रमा ||
गोधन-गोठ प्रणाम, कल्प-वृक्ष गौ-नंदिनी |
गोकुल चारो धाम, गोवर्धन गिरि पूजता ||
वेद-काल का साथ, गंगा सिन्धु सरस्वती |
ईरानी हेराथ, है सरयू समकालिनी ||
राम-भक्त हनुमान, सदा विराजे अवधपुर |
सरयू होय नहान, मोक्ष मिले अघकृत तरे ||
करनाली / घाघरा नदी का स्रोत्र
करनाली का स्रोत्र, मानसरोवर अति-निकट |
करते जप-तप होत्र, महामनस्वी विचरते |।
क्रियाशक्ति भरपूर, पावन भू की वन्दना |
राम भक्ति में चूर, मोक्ष प्राप्त कर लो यहाँ ||
करनाली / घाघरा नदी के स्रोत्र के पास मान-सरोवर
सरयू अवध प्रदेश, दक्षिण दिश में बस रहा |
सरयू अवध प्रदेश, दक्षिण दिश में बस रहा |
हरि-हर ब्रह्म सँदेश, स्वर्ग सरीखा दिव्यतम ||
पूज्य अयुध भूपाल, रामचंद्र के पूर्वज |
गए नींव थे डाल, बसी अयोध्या पावनी ||
शुक्ल पक्ष नवमी तिथी, पावन कातिक मास |
राम-कोट
थे दशरथ महराज, उन्तालिस निज वंश के |
रथ दुर्लभ अंदाज, दशों दिशा में हांक लें ||
पारिजात (किन्नूर)
पटरंगा से 3 कोस
झूले मुग्धा नायिका, राजा मारे पेंग |
क्रियाकर्म होता रहा, तेरह दिन का शोक |
बचपन का वो खेलना, आया फिर से याद |
देखा देखी ही हुई, खिंची रेख मरजाद ||
खर बोला भ्राता ज़रा, खबर कहो समझाय |
खर के सँग फिर गुप्तचर, भेजा सागर पार |
विदा मांग कर आ गए, राजा-रानी साथ |
पीली सरसों फूलती, हरे खेत के बीच |
तरह तरह की जिंदगी, पक्षी कीट पतंग |
जीव प्रफुल्लित विचरते, नए सीखते ढंग ||
कौशल्या रहती मगन, वन-उपवन में घूम ||
सुग्गासुर अक्सर उड़े, कनक महल की ओर |
देख जटायू को हटे, हारे मन का चोर ||
एक दिवस रानी गई, वन-रसाल उल्लास |
सुग्गासुर आया निकट, बाणी मधुर-सुभाष ||
माथे टीका शोभता, लेता शुक मनमोह |
ऊपर से अतिशय भला, मन में रखता द्रोह ||
रानी वापस आ गई, आई फिर नवरात |
नव-दुर्गा को पूजती, एक समय फल खात ||
स्नानकुंज में रोज ही, प्रात: करे नहान |
भक्तिभाव से मांगती, माता सम सन्तान ||
सुग्गासुर की थी नजर, आ जाता था पास |
स्वर्ण-हार लेकर उड़ा, इक दिन वह आकाश ||
दोहा
शुक्ल पक्ष नवमी तिथी, पावन कातिक मास |
होय नगर की परिक्रमा, मन श्रृद्धा-विश्वास ||
मर्यादा आदर्श गुण, अपने हृदय उतार |
श्री राम के सामने, लम्बी लगे कतार |
पुरुषोत्तम सरयू गए, होते अंतर्ध्यान |
त्रेता युग का अवध तब, हुआ पूर्ण वीरान |
सद्प्रयास कुश ने किया, बसी अयोध्या वाह |
सदगृहस्थ वापस चले , पुन: अवध की राह |
कृष्ण रुक्मणी अवध में, आये द्वापर काल |
पुरुषोत्तम के चरण में, गये सुमन शुभ डाल ||
कलयुग में सँवरी पुन:, नगरी अवध महान |
वीर विक्रमादित्य से, बढ़ी नगर की शान ||
देवालय फिर से बने, बने सरोवर कूप |
स्वर्ग सरीखा सज रहा, अवध नगर का रूप ||
राम-कोट
सोरठा
माया मथुरा साथ, काशी कांची अवंतिका |
महामोक्ष का पाथ, श्रेष्ठ अयोध्या द्वारिका ||
अंतरभूमि प्रवाह, सरयू सरसर वायु सी
संगम तट निर्वाह, पूज घाघरा शारदा ||
सरयू जी
पुरखों का इत वास, तीन कोस बस दूर है |
बचपन में ली साँस, यहीं किनारे खेलता ||
परिक्रमा श्री धाम, होय सदा हर फाल्गुन|
पटरंगा मम ग्राम, चौरासी कोसी मिले ||
थे दशरथ महराज, उन्तालिस निज वंश के |
रथ दुर्लभ अंदाज, दशों दिशा में हांक लें ||
पारिजात (किन्नूर)
पटरंगा से 3 कोस
पिता-श्रेष्ठ 'अज' भूप, असमय स्वर्ग सिधारते |
निकृष्ट कथा कुरूप, चेतो माता -पिता सब
निकृष्ट कथा कुरूप, चेतो माता -पिता सब
दशरथ बाल-कथा --
दोहा
इंदुमती के प्रेम में, भूपति अज महराज |
लम्पट विषयी जो हुए, झेले राज अकाज ||
दीखते हैं मुझे दृश्य सब मनोहारी
कुसुम कलिकाओं से सुगंध तेरी आती है
कोकिला की कूक में भी स्वर की सुधा सुन्दर
प्यार की मधुर टेर सारिका सुनाती है
देखूं शशि छबि या निहारूं अंशु सूर्य के -
रंग छटा उसमे तेरी ही दिखाती है |
कमनीय कंज कलिका विहस 'रविकर'
तेरे रूप-धूप का सुयश फैलाती है ||
कुसुम कलिकाओं से सुगंध तेरी आती है
कोकिला की कूक में भी स्वर की सुधा सुन्दर
प्यार की मधुर टेर सारिका सुनाती है
देखूं शशि छबि या निहारूं अंशु सूर्य के -
रंग छटा उसमे तेरी ही दिखाती है |
कमनीय कंज कलिका विहस 'रविकर'
तेरे रूप-धूप का सुयश फैलाती है ||
गुरु वशिष्ठ की मंत्रणा, सह सुमंत बेकार |
इंदुमती के प्यार ने, दूर किया दरबार ||
क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही, परम सौख्य परितोष |
सुन्दरता पागल करे, मन-मानव मदहोश ||
अति सबकी हरदम बुरी, खान-पान-अभिसार |
क्रोध-प्यार बड़-बोल से, जाय जिंदगी हार ||
इंदुमती के प्यार ने, दूर किया दरबार ||
क्रीड़ा सह खिलवाड़ ही, परम सौख्य परितोष |
सुन्दरता पागल करे, मन-मानव मदहोश ||
अति सबकी हरदम बुरी, खान-पान-अभिसार |
क्रोध-प्यार बड़-बोल से, जाय जिंदगी हार ||
झूले मुग्धा नायिका, राजा मारे पेंग |
वेणी लागे वारुणी, दिखा रही वो ठेंग ||
राज-वाटिका में रमे, चार पहर से आय |
तीन-मास के पुत्र को, धाय रही बहलाय ||
नारायण-नारायणा, नारद निधड़क नाद |
अवधपुरी के गगन पर, स्वर्गलोक संवाद ||
वीणा से माला गिरी, इंदुमती पर आय |
ज्योत्सना वह अप्सरा, जान हकीकत जाय ||
एक पाप का त्रास वो, यहाँ रही थी भोग |
स्वर्ग-लोक नारी गई, अज को परम वियोग ||
माँ का पावन रूप भी, उसे सका ना रोक |
तीन मास के लाल को, छोड़ गई इह-लोक ||
विरह वियोगी जा महल, कदम उठाया गूढ़ |
भूल पुत्र को कर लिया, आत्मघात वह मूढ़ ||
कुंडली
(1)
(1)
उदासीनता की तरफ, बढ़ते जाते पैर ।
रोको रविकर रोक लो, जीवन से क्या बैर ।
जीवन से क्या बैर, व्यर्थ ही जीवन त्यागा ।
किया पुत्र को गैर, करे क्या पुत्र अभागा ?
दर्द हार गम जीत, व्यथा छल आंसू हाँसी ।
जीवन के सब तत्व, जियो जग छोड़ उदासी ।।
जहाँ कहीं देना पड़े, करे व्यर्थ तकरार ||
(2)
प्रेम-क्षुदित व्याकुल जगत, मांगे प्यार अपार |
(2)
मरने से जीना कठिन, पर हिम्मत न हार ।
कायर भागे कर्म से, होय कहाँ उद्धार ?
होय कहाँ उद्धार, चलो पर-हित कुछ साधें ।
बनिए नहीं लबार, गाँठ जिभ्या पर बांधें ।
फैले रविकर सत्य, स्वयं पर जय करने से ।
जियो लोक हित मित्र, मिले न कुछ मरने से ।
माता की ममता छली, करता पिता अनाथ |
रोय-रोय शिशु हारता, पटक-पटक के माथ ||
कुंडली
दुःख की घड़ियाँ सब गिनें, घड़ी - घड़ी सरकाय ।
धीरज हिम्मत बुद्धि बल, भागे तनु विसराय ।
भागे तनु विसराय, अश्रु दिन-रात डुबोते ।
धीरज हिम्मत बुद्धि बल, भागे तनु विसराय ।
भागे तनु विसराय, अश्रु दिन-रात डुबोते ।
रविकर मन बहलाय, स्वयं को यूँ ना खोते ।
समय-चक्र गतिमान, घूम लाये दिन बढ़िया ।
मान ईश का खेल, गिनों कुछ दुःख की घड़ियाँ ।।
क्रियाकर्म होता रहा, तेरह दिन का शोक |
आसमान शिशु ताकता, खाली महल बिलोक ||
आंसू बहते अनवरत, गला गया था बैठ |
राज भवन में थी सदा, अरुंधती की पैठ ||
पत्नी पूज्य वशिष्ठ की, सादर उन्हें प्रणाम |
विकट समय में पालती, माता सम अविराम ||
नंदिनी की माँ कामधेनु
महामंत्री थे सुमंत, गुरू बुलावें पास |
लालन-पालन की करें, कुशल व्यवस्था ख़ास ||
महागुरू मरुधन्व के, आश्रम में तत्काल |
गुरु-आज्ञा से ले गए, व्याकुल दशरथ बाल ||
जहाँ नंदिनी पालती, बाला-बाल तमाम |
दुग्ध पिलाती प्रेम से, भ्रातृ-भाव पैगाम ||
कामधेनु की कृपा से, होती इच्छा पूर |
देवलोक की नंदिनी, थी आश्रम की नूर ||
दक्षिण कोशल सरिस था, उत्तर कोशल राज |
सूर्यवंश के ही उधर, थे भूपति महराज ||
राजा अज की मित्रता, का उनको था गर्व |
दुर्घटना से अति-दुखी, राजा-रानी सर्व ||
अवधपुरी आने लगे, ज्यादा कोसलराज |
राज-काज बिधिवत चले, करती जनता नाज ||
धीरे-धीरे बीतता, दुःख से बोझिल काल |
राजकुंवर बढ़ते चले, बीत गया वह साल ||
दूध नंदिनी का पिया, अन्प्राशन की बेर |
आश्रम से वापस हुए, फैला महल उजेर ||
ठुमुक-ठुमुक कर भागते, छोड़-छाड़ पकवान |
दूध नंदिनी का पियें, आता रोज विहान ||
उत्तर कोशल झूमता, राजकुमारी पाय |
पिताश्री भूपति बने, फूले नहीं समाय ||
पुत्री को लेकर करें, अवध पुरी की सैर |
राजा-रानी नियम से, लेने आते खैर ||
नामकरण था हो चुका, धरते गुण अनुसार |
दशरथ कौशल्या कहे, यह अद्भुत-ससार ||
कुछ वर्षों के बाद ही, फिर से राजकुमार |
विधिवत शिक्षा के लिए, गए गुरू-आगार ||
अच्छे योद्धा बन गए, महाकुशल बलवान|
दसो दिशा रथ हांकले, बने अवध की शान ||
शब्द-भेद संधान से, गुरु ने किया अजेय |
अवधपुरी उन्नत रहे, बना एक ही ध्येय ||
राजतिलक विधिवत हुआ, आये कोशल-राज |
राजकुमारी साथ मे, हर्षित सकल समाज ||
राजकुमारी साथ मे, हर्षित सकल समाज ||
बचपन का वो खेलना, आया फिर से याद |
रावण, कौशल्या और दशरथ
दशरथ-युग में ही हुआ, दुर्धुश भट-बलवान |
पंडित ज्ञानी जानिये, रावण बड़ा महान ||
बार - बार कैलाश पर, कर शीशों का दान |
छेड़ी वीणा से मधुर, सामवेद की तान ||
भण्डारी ने भक्त पर, कर दी कृपा अपार |
मिली शक्तियों ने किया, पैदा बड़े विकार ||
पाकर शिव-वरदान वो, पहुंचा ब्रह्मा पास |
श्रद्धा से की वन्दना, की पावन अरदास ||
ब्रह्मा ने परपौत्र को, दिए विकट वरदान |
ब्रह्मास्त्र भी सौंपते, अस्त्र-शस्त्र की शान ||
शस्त्र-शास्त्र का हो धनी, ताकत से भरपूर |
मांग अमरता का रहा, वर जब रावन क्रूर ||
ऐसा तो संभव नहीं, मन की गांठें खोल |
मृत्यु सभी की है अटल, परम-पिता के बोल ||
कौशल्या का शुभ लगन, हो दशरथ के साथ |
दिव्य-शक्तिशाली सुवन, काटेगा दस-माथ ||
रावण थर-थर कांपता, क्रोधित हुआ अपार |
प्राप्त अमरता करूँ मैं, कौशल्या को मार ||
बोली मंदोदरी सुन, नारी हत्या पाप |
झेलोगे कैसे भला, भर जीवन संताप ||
तब उसके कुछ राक्षस, पहुँचे सरयू तीर |
कौशल्या का अपहरण, करके शिथिल शरीर ||
बंद पेटिका में किया, देते जल में डाल |
राजा दशरथ देख के, इनके सकल बवाल ||
राक्षस-गण से जा भिड़े, चले तीर-तलवार |
हारे राक्षस भागते, कूदे नृप जलधार ||
आगे बहती पेटिका, पीछे भूपति वीर |
शब्द भेद से था पता, अन्दर एक शरीर ||
बहते बहते पेटिका, गंगा जी में जाय |
जख्मी दशरथ को इधर, रहा दर्द अकुलाय ||
रक्तस्राव था हो रहा, थककर होते चूर |
गिद्ध जटायू देखता, राजा जी मजबूर ||
अर्ध मूर्छित भूपती, घायल फूट शरीर |
औषधि से उपचार कर, रक्खा गंगा-तीर ||
दशरथ आये होश में, असर किया वो लेप |
गिद्धराज के सामने, कथा कही संक्षेप ||
कहा जटायू ने उठो, बैठो मुझपर आय |
पहुँचाउंगा शीघ्र ही, राजन उधर उड़ाय ||
बहुत दूर तक ढूँढ़ते, पहुँचे सागर पास |
पाय पेटिका खोलते, हुई बलवती आस ||
कौशल्या बेहोश थी, मद्धिम पड़ती साँस |
नारायण जपते दिखे, नारद जी आकाश ||
बड़े जतन करने पड़े, हुई तनिक चैतन्य |
सम्मुख प्रियजन पाय के, राजकुमारी धन्य ||
नारद विधिवत कर रहे, सब वैवाहिक रीत |
दशरथ को ऐसे मिली, कौशल्या मनमीत ||
नव-दम्पति को ले उड़े, गिद्धराज खुश होंय |
नारद जी चलते बने, सुन्दर कड़ी पिरोय ||
अवधपुरी सुन्दर सजी, आये कोशलराज |
दोहराए फिर से गए, सब वैवाहिक काज ||
रावण के क्षत्रप
लवंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |
वृन्दावन नेवार, उपवन जूही माधवी ||
घूमें सुबहो-शाम, कौशल्या दशरथ मगन |
इन्द्रपुरी सा धाम, करें देवता ईर्ष्या ||
रावण के उत्पात, उधर झेलते साधुजन |
बैठ लगा के घात, कैसे रोके शत्रु-जन्म ||
मायावी इक दास, आया विचरे अवधपुर |
करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल ||
चार दासियों संग, कौशल्या झूलें मगन |
उपवन मस्त अनंग, मायावी आया उधर ||
धरे सर्प का रूप, शाखा पर जाकर डटा |
पड़ी तनिक जो धूप, सूर्य-पूर्वज ताड़ते ||
महा पैतरेबाज, सिर पर वो फुफ्कारता |
रावण के षड्यंत्र, यदा-कदा होते रहे |
जीवन के सद-मंत्र, सूर्य-वंश आगे चला ||
गुरु-वशिष्ठ का ज्ञान, सूर्यदेव के तेज से |
अवधपुरी की शान, सदा-सर्वदा बढ़ रही ||
रावण रहे उदास, लंका सोने की बनी |
करके कठिन प्रयास, धरती पर कब्ज़ा करे ||
जीते जो भू-भाग, क्षत्रप अपने छोड़ता |
निकट अवध संभाग, खर-दूषण को सौंप दे ||
खर-दूषण बलवान, रावण सम त्रिशिरा विकट |
डालें नित व्यवधान, गुप्त रूप से अवध में ||
त्रिजटा शठ मारीच, मठ आश्रम को दें जला |
भूमि रक्त से सींच, हत्या करते साधु की ||
कुत्सित नजर गढ़ाय, राज्य अवध को ताकते |
खबर रहे पहुँचाय, आका लंका-धीश को ||
गए बरस दो बीत, कौशल्या थी मायके |
पड़ी गजब की शीत, 'रविकर' छुपते पाख भर ||
जलने लगे अलाव, जगह-जगह पर राज्य में |
दशरथ यह अलगाव, सहन नहीं कर पा रहे ||
भेजा चतुर सुमंत्र, विदा कराने के लिए |
रचता खर षड्यंत्र, कौशल्या की मृत्यु हित ||
असली घोडा मार, लगा स्वयं रथ हाँकने ||
कौशल्या असवार, अश्व छली लेकर भगा ||
धुंध भयंकर छाय, हाथ न सूझे हाथ को |
रथ तो भागा जाय, मंत्री मलते हाथ निज ||
कौशल्या हलकान, रथ की गति अतिशय विकट |
रस्ते सब वीरान, कोचवान ना दीखता ||
समझ गई हालात, बंद पेटिका सुमिर कर |
ढीला करके गात, जगह देखकर कूदती ||
लुढ़क गई कुछ दूर, झाडी में जाकर छुपी ||
चोट लगी भरपूर, होश खोय बेसुध पड़ी ||
मंत्री चतुर सुजान, दौडाए सैनिक सकल |
देखा पंथ निशान, झाड़ी में सौभाग्य से ||
लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |
नर-नारी सब धाय, हाय-हाय करने लगे ||
खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |
अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका ||
रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |
रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर ||
रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |
वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में ||
दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |
भेजे धावक ख़ास, समाचार लेने गए ||
सोरठा
रास रंग उत्साह, अवधपुरी में खुब जमा |
उत्सुक देखे राह, कनक महल सजकर खड़ा ||
चौरासी विस्तार, अवध नगर का कोस में |
अक्षय धन-भण्डार, हृदय कोष सन्तोष धन |
पांच कोस विस्तार, कनक भवन के अष्ट कुञ्ज |
इतने ही थे द्वार, वन-उपवन बारह सजे ||
शयन-केलि-श्रृंगार, भोजन-कुञ्ज-स्नान-कुञ्ज |
झूलन-कुञ्ज-बहार, अष्ट कुञ्ज में थे प्रमुख ||
चम्पक-विपिन-रसाल, पारिजात-चन्दन महक |
केसर-कदम-तमाल, नाग्केसरी-वन विचित्र ||
केसर-कदम-तमाल, नाग्केसरी-वन विचित्र ||
लवंगी-कुंद-गुलाब, कदली चम्पा सेवती |
वृन्दावन नेवार, उपवन जूही माधवी ||
घूमें सुबहो-शाम, कौशल्या दशरथ मगन |
इन्द्रपुरी सा धाम, करें देवता ईर्ष्या ||
रावण के उत्पात, उधर झेलते साधुजन |
बैठ लगा के घात, कैसे रोके शत्रु-जन्म ||
मायावी इक दास, आया विचरे अवधपुर |
करने सत्यानाश, कौशल्या के हित सकल ||
चार दासियों संग, कौशल्या झूलें मगन |
उपवन मस्त अनंग, मायावी आया उधर ||
धरे सर्प का रूप, शाखा पर जाकर डटा |
पड़ी तनिक जो धूप, सूर्य-पूर्वज ताड़ते ||
महा पैतरेबाज, सिर पर वो फुफ्कारता |
दशरथ सुन आवाज, शब्द-भेद कर मारते ||
रावण के षड्यंत्र, यदा-कदा होते रहे |
जीवन के सद-मंत्र, सूर्य-वंश आगे चला ||
गुरु-वशिष्ठ का ज्ञान, सूर्यदेव के तेज से |
अवधपुरी की शान, सदा-सर्वदा बढ़ रही ||
रावण रहे उदास, लंका सोने की बनी |
करके कठिन प्रयास, धरती पर कब्ज़ा करे ||
जीते जो भू-भाग, क्षत्रप अपने छोड़ता |
निकट अवध संभाग, खर-दूषण को सौंप दे ||
खर-दूषण बलवान, रावण सम त्रिशिरा विकट |
डालें नित व्यवधान, गुप्त रूप से अवध में ||
त्रिजटा शठ मारीच, मठ आश्रम को दें जला |
भूमि रक्त से सींच, हत्या करते साधु की ||
कुत्सित नजर गढ़ाय, राज्य अवध को ताकते |
खबर रहे पहुँचाय, आका लंका-धीश को ||
गए बरस दो बीत, कौशल्या थी मायके |
पड़ी गजब की शीत, 'रविकर' छुपते पाख भर ||
जलने लगे अलाव, जगह-जगह पर राज्य में |
दशरथ यह अलगाव, सहन नहीं कर पा रहे ||
भेजा चतुर सुमंत्र, विदा कराने के लिए |
रचता खर षड्यंत्र, कौशल्या की मृत्यु हित ||
असली घोडा मार, लगा स्वयं रथ हाँकने ||
कौशल्या असवार, अश्व छली लेकर भगा ||
धुंध भयंकर छाय, हाथ न सूझे हाथ को |
रथ तो भागा जाय, मंत्री मलते हाथ निज ||
कौशल्या हलकान, रथ की गति अतिशय विकट |
रस्ते सब वीरान, कोचवान ना दीखता ||
समझ गई हालात, बंद पेटिका सुमिर कर |
ढीला करके गात, जगह देखकर कूदती ||
लुढ़क गई कुछ दूर, झाडी में जाकर छुपी ||
चोट लगी भरपूर, होश खोय बेसुध पड़ी ||
मंत्री चतुर सुजान, दौडाए सैनिक सकल |
देखा पंथ निशान, झाड़ी में सौभाग्य से ||
लाया वैद्य बुलाय, सेना भी आकर जमी |
नर-नारी सब धाय, हाय-हाय करने लगे ||
खर भागा उत जाय, मन ही मन हर्षित भया |
अपनी सीमा आय, रूप बदल करके रुका ||
रथ खाली अफ़सोस, गिरा भूमि पर तरबतर |
रही योजना ठोस, बही पसीने में मगर ||
रानी डोली सोय, अर्ध-मूर्छित लौटती |
वैद्य रहे संजोय, सेना मंत्री साथ में ||
दशरथ उधर उदास, देरी होती देखकर |
भेजे धावक ख़ास, समाचार लेने गए ||
रावण का गुप्तचर
दोहे
असफल खर की चेष्टा, हो बेहद गमगीन |
लंका जाकर के खड़ा, चेहरा लिए मलीन ||
रावण बरबस बोलता, क्योंकर होत उदास |
कौशल्या के गर्भ का, करके सत्यानाश ||
खर बोला भ्राता ज़रा, खबर कहो समझाय |
यह घटना कैसे हुई, जियरा तनिक जुड़ाय ||
रानी रथ से कूद के, खाय चोट भरपूर |
तीन माह का भ्रूण भी, हो जाता खुद चूर ||
सज्जन खुशियाँ बांटते, दुर्जन कष्ट बढ़ाय ।
दुर्जन मरके खुश करे, सज्जन जाय रूलाय ।
खर के सँग फिर गुप्तचर, भेजा सागर पार |
वह सुग्गासुर जा जमा, शुक थे जहाँ अपार ||
हरकारे वापस इधर, आये दशरथ पास |
घटना सुनकर हो गया, सारा अवध उदास ||
विकट मार्मिक कष्टकर, सुना सकल दृष्टांत ।
असहनीय दुष्कर लगे, होता चित्त अशांत ।
गुरुकुल में शावक मरा, हिरनी आई याद |
अनजाने घायल हुई, चखा दर्द का स्वाद ||
आहों से कैसे भरे, मन के गहरे जख्म ।
मरहम-पट्टी समय के, जख्म करेंगे ख़त्म ।।
अनुमति पाय वशिष्ठ की, तुरत गए ससुरार |
कौशल्या को देखते, नैना छलके प्यार ||
सूरज ने संक्रान्ति से, दिए किरण उपहार |
अति-ठिठुरन थमने लगी, चमक उठा संसार ||
दवा-दुआ से हो गई, रानी जल्दी ठीक |
दशरथ के सत्संग से, घटना भूल अनीक ||
कुंडली
आपाधापी जिंदगी, फुर्सत भी बेचैन।
बेचैनी में ख़ास है, अपनेपन के सैन ।
अपनेपन के सैन, बैन प्रियतम के प्यारे ।
अपनों के उपहार, खोलकर अगर निहारे ।
पा खुशियों का कोष, ख़ुशी तन-मन में व्यापी ।
नई ऊर्जा पाय, करे फिर आपाधापी ।।
विदा मांग कर आ गए, राजा-रानी साथ |
चिंतित परजा झूमती, होकर पुन: सनाथ ||
धीरे धीरे सरकती, छोटी होती रात |
हवा बसंती बह रही, जल्दी होय प्रभात |
दिग-दिगंत बौराया | मादक बसंत आया ||
तोते सदा पुकारे | मैना मन दुत्कारे ||
काली कोयल कूके | लोग होलिका फूंके ||
सरसों पीली फूली | शीत बची मामूली ||
भौरां मद्धिम गाये | तितली मन बहलाए ||
भाग्य हमारे जागे | गर्म वस्त्र सब त्यागे ||
पीली सरसों फूलती, हरे खेत के बीच |
कृषक निराई कर रहे, रहे खेत कुछ सींच ||
पौधे भी संवाद में, रत रहते दिन रात |
गेहूं जौ मिलते गले, खटखटात जड़ जात |।
गेहूं जौ मिलते गले, खटखटात जड़ जात |।
तरह तरह की जिंदगी, पक्षी कीट पतंग |
खुले विचारों वाला जीवन, चाहत उनकी थोड़ी ।
मुक्त गगन उन्मुक्त उड़ाने, गाये गीत निगोड़ी ।।
चौबिस घंटे परबस रविकर, मुट्ठी भर ले दाने-
चाहे जीवन सार सीखना, पर चिड़िया न माने ।।
चाहे जीवन सार सीखना, पर चिड़िया न माने ।।
कौशल्या रहती मगन, वन-उपवन में घूम ||
धीरे धीरे भूलती, गम पुष्पों को चूम ||
कौशल्या के गर्भ की, कैसे रक्षा होय |
दशरथ चिंता में पड़े, आँखे रहे भिगोय ||
कुंडली
खिलें बगीचे में सदा, भान्ति भान्ति के रंग ।
पुष्प-पत्र-फल मंजरी, तितली भ्रमर पतंग ।
तितली भ्रमर पतंग, बागवाँ सारे न्यारे ।
दुनिया होती दंग, आय के दशरथ द्वारे ।
नित्य पौध नव रोप, हाथ से हरदिन सींचे ।
कठिन परिश्रम होय, तभी तो खिलें बगीचे ।।
कुंडली
कमल-कुमुदनी से पटा, पानी पानी काम ।
घोंघे करते मस्तियाँ, मीन चुकाती दाम ।
मीन चुकाती दाम, चाटती काई कीचड़ ।
रहे नोचते पाम, काइयाँ पापी लीचड़ ।
किन्तु विदेही पात, नहीं संलिप्त हो रहे ।
भौरे की बारात, पतंगे धैर्य खो रहे ।।
कौशल्या के गर्भ की, कैसे रक्षा होय |
दशरथ चिंता में पड़े, आँखे रहे भिगोय ||
रहे कुशल नारी सदा, छल ना पायें धूर्त ।
संरक्षित निर्भय रहे, संग पिता-पति पूत ।
तोते कौवे की बढ़ी, महल पास तादाद |
गिद्धराज की तब उन्हें, आई बरबस याद ।।
कौशल्या जब देखती, गिद्धराज सा गिद्ध |
याद जटायू को करे, प्यार किया था सिद्ध ||
यह मोटा भद्दा दिखे, आत्मीय वह रूप |
यह घृणित हरदम लगे, उसपर स्नेह अनूप ||
गिद्ध-दृष्टि रखने लगा, बदला-बदला रूप |
अलंकार त्यागा सभी, बनकर रहे कुरूप ||
केवल दशरथ जानते, होकर रहें सचेत |
अहित-चेष्टा में लगे, खर-दूषण से प्रेत ||
गिद्ध-दृष्टि रखने लगा, बदला-बदला रूप |
अलंकार त्यागा सभी, बनकर रहे कुरूप ||
केवल दशरथ जानते, होकर रहें सचेत |
अहित-चेष्टा में लगे, खर-दूषण से प्रेत ||
सुग्गासुर अक्सर उड़े, कनक महल की ओर |
देख जटायू को हटे, हारे मन का चोर ||
एक दिवस रानी गई, वन-रसाल उल्लास |
सुग्गासुर आया निकट, बाणी मधुर-सुभाष ||
माथे टीका शोभता, लेता शुक मनमोह |
ऊपर से अतिशय भला, मन में रखता द्रोह ||
रानी वापस आ गई, आई फिर नवरात |
नव-दुर्गा को पूजती, एक समय फल खात ||
स्नानकुंज में रोज ही, प्रात: करे नहान |
भक्तिभाव से मांगती, माता सम सन्तान ||
सुग्गासुर की थी नजर, आ जाता था पास |
स्वर्ण-हार लेकर उड़ा, इक दिन वह आकाश ||
सुनकर चीख-पुकार को, वो ही भद्दा गिद्ध ||
शुक के पीछे लग गया, होकर अतिशय क्रुद्ध ||
जान बचाकर शुक भगा, था पक्का अय्यार ||
आश्रय पाय सुबाहु गृह, छुपा छोड़ के हार ||
रानी पाकर हार को, होती हर्षित खूब |
राजा का उपहार वो, गई प्यार में डूब ||
शुक के पीछे लग गया, होकर अतिशय क्रुद्ध ||
जान बचाकर शुक भगा, था पक्का अय्यार ||
आश्रय पाय सुबाहु गृह, छुपा छोड़ के हार ||
रानी पाकर हार को, होती हर्षित खूब |
राजा का उपहार वो, गई प्यार में डूब ||
नवमी को व्रत पूर्ण कर, कन्या रही खिलाय |
चरण धोय कर पूजती, पूरी-खीर जिमाय ||
'रविकर' दिन का ताप अब, दारुण होता जाय |
पाँव इधर भारी हुए, रानी मन सकुचाय ||
चरण धोय कर पूजती, पूरी-खीर जिमाय ||
'रविकर' दिन का ताप अब, दारुण होता जाय |
पाँव इधर भारी हुए, रानी मन सकुचाय ||
अम्बिया की चटनी बने, प्याज पुदीना डाल ।
चटकारे ले न सके, चिंता से बेहाल ।।
अपने गम में लिप्त सब, न दूजे का ख्याल ।
पुतली से रखते सटा, अपने सब जंजाल ।।
हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |
कोशिश चलने की करो, जीतो दुर्गम राह |
कोशिश चलने की करो, जीतो दुर्गम राह |
कुंडली
मन की मनमानी खले, रक्खो खीँच लगाम ।
हड़-बड़ में गड़बड़ करे, पड़ें चुकाने दाम ।
पड़ें चुकाने दाम, अर्थ हो जाय अनर्गल ।
हड़-बड़ में गड़बड़ करे, पड़ें चुकाने दाम ।
पड़ें चुकाने दाम, अर्थ हो जाय अनर्गल ।
ना जाने क्या कर्म, मर्म को लगे उछल-कर ।
सदा रखो यह ध्यान, शीर्ष का चुन लो प्राणी ।
अनुगामी बन स्वयं, रोक मन की मनमानी ।।
सृंगी जन्मकथा
रिस्य विविन्डक कर रहे, शोध कार्य संपन्न ।
सृंगी पहली मर्तवा, देखें बाला रूप ।
कन्याओं का वेश भी, उनको लगा अनूप ।।
बाल सुलभ मुस्कान से, तृप्त हृदय हो जाय ।।
मातु-पिता के पास फिर, वह उनको ले जाय ।
इन बच्चों को देखकर, होते सभी प्रसन्न ।
सृंगी जी संकोच में, ग्रहण करें नहिं अन्न ।
तीन दिनों का यह समय, सृंगी के अनमोल ।
सार्वजनिक जीवन हुआ, भाये शांता बोल ।।
रविकर फैजाबादी
अनुगामी बन स्वयं, रोक मन की मनमानी ।।
सृंगी जन्मकथा
रिस्य विविन्डक कर रहे, शोध कार्य संपन्न ।
विषय परा-विज्ञान मन, औषधि प्रजनन अन्न ।
विकट तपस्या त्याग तप, इन्द्रासन हिल जाय ।
तभी उर्वशी अप्सरा, ऋषि सम्मुख मुस्काय ।
शोध कार्य के वास्ते, करे स्वयं को पेश ।
ऋषि-पत्नी रखने लगी, उसका ध्यान विशेष ।
इस अतीव सौन्दर्य पर, होते ऋषि आसक्त ।
औषधि प्रजनन शोध पर, अधिक ध्यान अनुरक्त ।
इधर उर्वशी कर रही, कार्य इंद्र का सिद्ध ।
धीरे धीरे ही सही, प्रेम हुआ समृद्ध ।
ऋषि-पत्नी फिर एक दिन, करवा देती व्याह ।
प्रेम-पल्लवन के लिए, खुली चतुर्दिक राह ।
एक वर्ष पश्चात ही, पुत्र -जन्म हो जाय ।
गई उर्वशी स्वर्ग को, देती उन्हें थमाय ।।
हुवे विविन्डक जी दुखी, पुत्र जन्म के बाद ।
मस्तक पर दो सृंग हैं , सुन विचित्र अनुनाद ।
फिर भी प्यारा पुत्र यह, माता करे दुलार ।
ऋषिवर को पकड़ा रही, खोटी-खरी हजार ।
अपनी खोजों से किया, गर्भ गलत उपचार ।
इसीलिए तो शीश का, है विचित्र आकार ।।
कोसी तट पर पल रहा, आश्रम का यह नूर ।
गुप्त रूप से पालते, श्रृंग करें मजबूर ।
सृंगी तेरह बरस के, वह सुरम्य वनभाग ।
उच्च हिमालय तलहटी, सरिता झील तड़ाग ।
शिक्षा दीक्षा नियम से, ज्ञान उपासक श्रेष्ठ ।
नारी से अनजान हैं, चिंतित होते ज्येष्ठ ।
सत्पोखर में फिर बसे, रिस्य विविन्डक आय ।
संगम कोसी-गंग का, दृश्य रहा मनभाय ।
सृंगेश्वर की थापना, सृंगी से करवाय ।
देश भ्रमण के लिए रिस्य, पत्नी लेकर जाय ।
जोर शोर से फैलता, सृंगेश्वर का नाम ।
राजा रानी शान्ता, आ पहुंचे इक शाम ।।
मंदिर में तम्बू लगा, करते सब विश्राम ।
शांता रूपा चंचला, घूम रही निष्काम ।
छोटी छोटी बालिका, जाती आश्रम बीच ।
सृंगी अपने कक्ष में, ध्यावें आँखे मीच ।
रूपा की शैतानियाँ, ध्यान हो गया भंग ।
इक दूजे को देख के, सृंगी-शांता दंग ।।
सृंगी पहली मर्तवा, देखें बाला रूप ।
कन्याओं का वेश भी, उनको लगा अनूप ।।
सोहे सृंगी सृंग से, शांता के मन भाय।
परिचय देती शान्ता, उनका परिचय पाय ।
परिचय देती शान्ता, उनका परिचय पाय ।
बाल सुलभ मुस्कान से, तृप्त हृदय हो जाय ।।
मातु-पिता के पास फिर, वह उनको ले जाय ।
इन बच्चों को देखकर, होते सभी प्रसन्न ।
सृंगी जी संकोच में, ग्रहण करें नहिं अन्न ।
तीन दिनों का यह समय, सृंगी के अनमोल ।
सार्वजनिक जीवन हुआ, भाये शांता बोल ।।
रविकर फैजाबादी
त्रेता युग की एक विस्मृत और उपेक्षित चरित्र को केन्द्रीत खंडकाव्य की रचना कर आप एक बड़ा काम कर रहे हैं. राजा दशरथ की कोई पुत्री और राम,लक्ष्मण की कोई बहन भी थीं बहुत कम लोग जानते हैं. इसलिए मेरा आग्रह है के गद्य में भी उनकी कथा का एक पोस्ट डालें ताकि खंडकाव्य को समझने में और आसानी हो.
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