- भगवती शांता परम सर्ग-5 : इति
- भगवती शांता परम सर्ग-4 : भार्या शांता
- भगवती शांता परम सर्ग-3 : भगिनी शांता
पावे रक्षक भ्रूण का, दीखे शत्रु अनेक ||
चारों दिशा उदास हैं, फैला है आतंक |
जिम्मेदारी कौन ले, मारे दुश्मन डंक ||
जिम्मेदारी कौन ले, मारे दुश्मन डंक ||
सारे देवी-देवता, चिंतित रही मनाय |
चार दिनों से अनमयस्क, बैठे मन्दिर जाय ||
जीवमातृका वन्दना, माता के सम पाल |
जीवमंदिरों को सुगढ़, रखती सदा संभाल ||
शिव और जीवमातृका
धनदा नन्दा मंगला, मातु कुमारी रूप |
बिमला पद्मा वला सी, महिमा अमिट-अनूप ||
माता करिए तो कृपा, करूँ तोर अभिषेक |
शत्रु दृष्टि से ले बचा, बच्चा पाऊं नेक ||
संध्या को रनिवास में, रानी रह-रह रोय |
उच्छवासें भरती रही, अँसुवन बदन भिगोय ||
दशरथ को दरबार में, हुई घरी भर देर |
कौशल्या ना दीखती, अन्दर घुप्प-अंधेर ||
तभी सुबकने की पड़ी, कानों में आवाज |
दासी को आवाज दे, पूँछ रहे महराज ||
हुआ उजाला कक्ष में, मुखड़ा लिए मलीन |
रानी लेटी भूमि पर, दिखती अति-गमगीन ||
राजा विह्वल हो गए, संग भूमि पर बैठ |
रानी को पुचकारते, सत्य प्रेम की पैठ ||
बोलो रानी बेधड़क, खोलो मन के राज |
कौन रुलाया है तुम्हें, करे कौन नाराज ??
निकले अगर भड़ास तो, बढती जीवन-साँस ।
आँसू बह जाएँ अगर, कामे दर्द एहसास ।।
निकले अगर भड़ास तो, बढती जीवन-साँस ।
आँसू बह जाएँ अगर, कामे दर्द एहसास ।।
मद्धिम स्वर फिर फूटता, हिचकी होती तेज |
अपने बच्चे को भला, कैसे रखूं सहेज ||
राजा सुनकर हर्ष से, रानी को लिपटाय |
कहते चिंता मत करो, करूं सटीक उपाय ||
अगली प्रात: वे गए, गुरु वशिष्ठ के पास |
थे सुमंत भी साथ में, मंत्री सबसे ख़ास ||
बनी योजना इस तरह, दुश्मन धोखा खाय ||
रानी के इस गर्भ को, राखे नजर बचाय ||
अगले दिन दरबार में, आया इक सन्देश |
कौशल्या की मातु को, पीड़ा स्वास्थ-कलेस ||
डोली सजकर हो गई, कौला भी तैयार |
छद्म वेश में सेविका, बैठी अति-हुशियार ||
वक्षस्थल पर झूलता, वही पुराना हार |
जिसको लेकर था भगा, सुग्गासुर अय्यार ||
सेना के सँग हो विदा, डोली चलती जाय |
गिद्धराज ऊपर उड़े, पंखों को फैलाय ||
अभिमंत्रित कर महल को, कौशल्या के पास |
कड़ी सुरक्षा में रखा, दास-दासियाँ ख़ास ||
खर-दूषण के गुप्तचर, छोड़े अपनी खोह |
डोली के पीछे लगे, लेने को तब टोह ||
छद्म-वेश में माइके, धर कौशल्या रूप |
रानी हित दासी करे, अभिनय सहज अनूप ||
वर्षा-ऋतु फिर आ गई, सरयू बड़ी अथाह |
दासी उत्तर में रही, दक्षिण में उत्साह ||
देख सकें औलाद को, हुई बलवती चाह |
दशरथ सबपर रख रहे, चौकस कड़ी निगाह ||
सात मास बीते मगर, गोद-भराई भूल |
कनक महल रक्षित रहा, रानी के अनुकूल ||
नवरात्रि के पर्व में, परजा में उल्लास |
कौशल्या कर न सकी, पर अबकी उपवास ||
शरद पूर्णिमा बीतती, अमृत वर्षा होय |
रानी आँगन में जमी, काया रही भिगोय ||
धीरे धीरे सर्दियाँ , रही धरा को घेर |
शीत लहर चलने लगी, यादें रही उकेर ||
पीड़ा झूठे प्रसव की, होंठ रखे वो भींच |
रानी सिसकारी भरे, जान न पावे नींच ||
रानी हर दिन टहलती, करती नित व्यायाम |
पौष्टिक भोजन खाय के, करे तनिक आराम ||
कोसलपुर में उस तरफ, दासी का वह खेल |
खर-दूषण का गुप्तचर, रहा व्यर्थ ही झेल ||
शुक्ल फाल्गुन पंचमी, मद्धिम बहे बयार |
सूर्यदेव सिर पर जमे, ईश्वर का आभार ||
पुत्री आई महल में, कौशल्या की गोद |
राज्य ख़ुशी से झूमता, छाये मंगल-मोद ||
एक पाख के बाद में, खबर पाय दश-शीस |
खर दूषण को डांटता, सुग्गा सुर पर रीस ||
कन्या के इस जन्म से, रावण पाता चैन |
चेतो क्षत्रपगण सभी, निकसे तीखे बैन ||
छठियारी में सब जमे, पावें सभी इनाम |
स्वर्ण हार पाए वहां, दासी का शुभ काम ||
गिद्धराज गिद्धौर को, कर दशरथ का काम |
सम्पाती से जा मिले, होते शोध तमाम ||
नई-नई दूरबीन से, देख सकें अति दूर |
प्रक्षेपित कर यान को, भेजें देश सुदूर ||
गिद्धराज गिद्धौर को, कर दशरथ का काम |
सम्पाती से जा मिले, होते शोध तमाम ||
नई-नई दूरबीन से, देख सकें अति दूर |
प्रक्षेपित कर यान को, भेजें देश सुदूर ||
मालिश करने के लिए, पहुंची कौला धाय |
छूते ही इक पैर को, कन्या खुब अकुलाय ||
कौशल्या ने वैद्य को, आखिर लिया बुलाय |
जांच परख के बाद में, वैद्य रहा सकुचाय ||
एक पैर में दोष है, कन्या होय अपंग |
सुनकर कडुवे वचन को, कौशल्या थी दंग ||
भाग-2
सम गोत्रीय विवाह
फटा कलेजा भूप का, सुना शब्द विकलांग |
राजकुमारी ठीक कर, जो चाहे सो मांग ||
भूपति की चिंता बढ़ी, छठी दिवस से बोझ |
तनया की विकृति भला, कैसे होगी सोझ ||
रात-रात भर देखते, उसकी दुखती टांग |
सपने में भी आ जमे, नटनी करती स्वांग ||
गुरु वशिष्ठ ने एक दिन, भेजा भूप बुलाय |
सह सुमंत आश्रम गए, बैठे शीश नवाय ||
सकल जगत के लो बुला, चर्चित वैद्य-हकीम |
सम्मलेन कर लो खुला, बंधन मुक्त असीम ||
कर के दोनों दंडवत, लौटे निज दरबार |
भेजे हरकारे सकल, समझाकर तिथि-वार ||
पीड़ा बेहद जाय बढ़, अंतर-मन अकुलाय ।
जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय ।।
उद्यम करता आदमी, हरदम लागे नीक |
पूजा ही यह कर्म है, बाकी लगे अलीक |
पूजा ही यह कर्म है, बाकी लगे अलीक |
नीमसार की भूमि पर, मंडप बड़ा सजाय |
श्रावण की थी पूर्णिमा, रही चांदनी छाय ||
रक्षा बंधन पर्व कर, जमे चिकित्सक वीर |
जांच कुमारी की करें, होता विकल शरीर ||
विषय बहुत ही साफ़ था, वक्ता थे शालीन |
सबका क्रम निश्चित हुआ, हुए कर्म में लीन ||
उदघाटन करने चले, अंग-देश के भूप |
नन्हीं बाला का तभी, देखा सौम्य स्वरूप ||
लगी भली वह बालिका, मुख पर छाया तेज |
पैर धरा पर न पड़े, राखो हृदय सहेज ||
स्वागत भाषण पढ़ करें, राज वैद्य अफ़सोस |
जन्म कथा सारी कही, रहे स्वयं को कोस ||
वक्ताओं ने फिर रखी, वर्षों की निज खोज |
सुबह-सुबह चलती रही, परिचर्चा कुछ रोज ||
दूर दूर से आ रहे, प्रतिदिन विषम मरीज |
शिविरों में नित शाम को, करें बैद्य तजबीज ||
दूर दूर से आ रहे, प्रतिदिन विषम मरीज |
शिविरों में नित शाम को, करें बैद्य तजबीज ||
भर जीवन सुनता रहे, देखें दर्द अथाह |
एक वैद्य की सदा ही, बड़ी कठिन है राह ।।
चौथे दिन के सत्र में, बोले वैद्य सुषेन |
गोत्रज व्याहों की विकट, महा विकलता देन ||
राजा रानी अवध के, हैं दोनों गोतीय |
अल्पबुद्धि-विकलांगता, सम दुष्फल नरकीय ||
गुण-सूत्रों की विविधता, बहुत जरूरी चीज |
गोत्रज में कैसे मिलें, रहे व्यर्थ क्यूँ खीज ||
गोत्रज दुल्हन जनमती, एकल-सूत्री रोग |
दैहिक सुख की लालसा, बेबस संतति भोग ||
साधु साधु कहने लगे, सब श्रोता विद्वान |
सत्य वचन हैं आपके, बोले वैद्य महान ||
अब तक के वक्ता सकल, करके अति संकोच |
मूल विषय को टाल के, रखें अन्य पर सोच ||
सारे तर्क अकाट्य थे, छाये वहां सुषेन |
भारी वर्षा थम गई, नीचे बैठी फेन ||
आदर से दशरथ कहें, वैद्य दिखाओ राह |
विषम परिस्थिति में हुआ, कौशल्या से ब्याह ||
नहीं चिकित्सा शास्त्र में, इसका दिखे उपाय |
गोत्रज जोड़ी अनवरत, संतति का सुख खाय ||
गोत्रज जोड़ी अनवरत, संतति का सुख खाय ||
व्याख्यान अपना ख़तम, करते वैद्य सुषेन |
ऋषी बिबंडक खड़े हो, बोले ऐसे बैन ||
एक गोत्र की संतती, झेले अगर विकार |
गोद किसी की दीजिये, सुधरे शुभ आसार ||
प्रभु की इच्छा से मिटें, कुल शारीरिक दोष |
धन्यवाद ज्ञापन हुआ, होती जय जय घोष ||
अंगराज श्री रोम्पद, आये दशरथ पास |
अभिवादन करके कहें, करिए नहीं निराश ||
रानी इनकी वर्षिणी, कौशल्या की ज्येष्ठ |
चम्पारानी बोलते, परजा मंत्री श्रेष्ठ ||
रानी इनकी वर्षिणी, कौशल्या की ज्येष्ठ |
चम्पारानी बोलते, परजा मंत्री श्रेष्ठ ||
ब्याह हुए बारह बरस, सूनी अब भी गोद |
बेटी प्यारी सौंपिए, बाढ़े मंगल-मोद ||
दशरथ अब भी सोच में, कैसे दे दें गोद |
दिल को अपने गोद के, करें कसक अनुमोद ??
कौशल्या हामी भरी, करती दिल मजबूत|
अपनी बहना के लिए, अंग भेजती दूत ||
अंगराज भी खुश हुए, रानी को बुलवाय |
रस्म गोद करके सफल, उनकी गोद भराय ||
अंग-विकृत वो अंगजा, कर ली अंगीकार |
अंगराज दशरथ चले, फिर सुषेन के द्वार ||
अंग-विकृत वो अंगजा, कर ली अंगीकार |
अंगराज दशरथ चले, फिर सुषेन के द्वार ||
तब सुषेन के शिविर में, पहुंचे अवध नरेश |
चेहरे पर चिंता बड़ी, चर्चा चली विशेष ||
बोले वैद्य सुषेन जी, सुनिए हे महिपाल |
ऐसी संताने सहें, बीमारी विकराल ||
गोत्रज शादी को भले, भरसक दीजे टाल |
मंजूरी करती खड़े, टेढ़े बड़े सवाल ||
मामा लेवे गोद जो, कर दे कन्या-दान |
उल्टा हाथ गुमाय के, खींचें सीधे कान ||
मिटते दारुण दोष पर, ईश्वर अगर सहाय |
सबसे उत्तम ब्याह में, दूरी रखो बनाय ||
गोत्र-प्रांत की भिन्नता, नए नए गुण देत |
बल बुद्धि विद्या प्रबल, साहस रूप समेत ||
सहज रूप से सफल हो, रावण का अभियान |
किया दूर रनिवास से, राजा को यह ज्ञान ||
आई रानी अंग से, लाया दूत बुलाय |
कौशल्या के अंग से, अमृत बहता जाय ||
लगे तीन दिन गोद में, साइत शुभ आसन्न |
नया देश माता नई, हुई रीति संपन्न ||
जन्म-दायिनी छूटती, रोवे बुक्का-फार |
दिल का टुकड़ा सौंप दी, महिमा अपरम्पार ||
आठ माह की उम्र में, बदला घर परिवार |
अंग देश को चल पड़ी, सरयू अवध विसार ||
कौला कौला सी चली, नव-कन्या के संग |
आठ माह की उम्र में, बदला घर परिवार |
अंग देश को चल पड़ी, सरयू अवध विसार ||
कौला कौला सी चली, नव-कन्या के संग |
जननी आती याद तो, करती कन्या तंग ||
करे प्रगट कृतज्ञता, कौशल्या के भाव ।
हृदय-पटल पर दिख रहे, अंकित अमित प्रभाव ।।
नेह हमारा साथ है, ईश्वर पर विश्वास |
अन्धकार को चीर के, फैले धवल उजास |
फैले धवल उजास, मिला ममतामय साया |
अन्धकार को चीर के, फैले धवल उजास |
फैले धवल उजास, मिला ममतामय साया |
कुशल वैद्य जन साथ, हितैषी कौला आया |
शुभकामना असीम, स्वस्थ बिटिया हो जाओ |
करो अनोखे काम, नाम तुम खूब कमाओ ||
शुभकामना असीम, स्वस्थ बिटिया हो जाओ |
करो अनोखे काम, नाम तुम खूब कमाओ ||
भाग-3
कन्या का नामकरण
कौशल्या दशरथ कहें, रुको और महराज |
अंगराज सह वर्षिणी, ज्यों चलते रथ साज ||
राज काज का हो रहा, मित्र बड़ा नुक्सान |
चलने की आज्ञा मिले, राजन हमें विहान ||
सुबह सुबह दो पालकी, दशरथ की तैयार |
अंगराज रथ पर हुए, मय परिवार सवार ||
दशरथ विनती कर कहें, देते एक सुझाव |
सरयू में तैयार है, बड़ी राजसी नाव ||
धारा के संग जाइए, चंगा रहे शरीर |
चार दिनों का सफ़र कुल, काहे होत अधीर ||
चंपानगरी दूर है, पूरे दो सौ कोस |
उत्तम यह प्रस्ताव है, दिखे नहीं कुछ दोष ||
पहुंचे उत्तम घाट पर, थी विशाल इक नाव |
नाविक-गण सब विधि कुशल, जाने नदी बहाव ||
बैठे सब जन चैन से, नाव बढ़ी अति मंद |
घोड़े-रथ तट पर चले, लेकर सैनिक चंद ||
धीरे धीरे गति बढ़ी, सीमा होती पार |
गंगा में सरयू मिली, संगम का आभार ||
चार घरी रूककर वहां, पूजें गंगा माय |
सरयू को परनाम कर, देते नाव बढ़ाय ||
हर्ष और उल्लास का, देखा फिर अतिरेक |
ग्राम रास्ते में मिला, अंगदेश का एक ||
धरती पर उतरे सभी, आसन लिया जमाय |
नई कुमारी का करें, स्वागत जनगण आय |
किलकारे कन्या हँसे, कौला रखती ख्याल |
धरती पर धरती कदम, रानी रही संभाल ||
वैद्यराज की औषधी, वह गुणकारी लेप |
रस्ते भर मलती चली, तीन बार खुब घेप ||
नई वनस्पति फल नए, शीतल नई समीर |
खान-पान था कुल नया, नई नई तासीर ||
नई वनस्पति फल नए, शीतल नई समीर |
खान-पान था कुल नया, नई नई तासीर ||
अंग देश की बालिका, मंद-मंद मुसकाय |
कंद-मूल फल प्रेम से, अंगदेश के खाय ||
रानी के संग खेलती, बाला भूल कलेश |
राज काज के काम कुछ, निबटा रहे नरेश ||
एक अनोखा वाद था, ग्राम प्रमुख के पास |
बात सौतिया डाह की, विधवा करती नाश ||
सौतेला इक पुत्र है, सौजा के दो आप |
इक खाया कल बाघ ने, करती घोर विलाप ||
विषम परिस्थित में अगर, भूले रिश्ते-नात ।
जिन्दा रहने के लिए, करे अगर आघात ।
करे अगर आघात, क्षमा रविकर कर देते ।
पर उनका क्या मित्र, प्राण जो यूँ ही लेते ।
भरे पेट का शौक, तड़पता प्राणी ताकें ।
दुष्कर्मी बेखौफ, मौज से पाचक फांके ।।
रो रो कर वह बक रही, सौतेले का दोष |
यद्दपि वह घायल पड़ा, करे गाँव अफ़सोस ||
ढर्रा बदलेगी नहीं, रोज अड़ाये टांग ।
खांई में बच्चे सहित, ममता मार छलांग ।
'ममता' मार छलांग, भूलती मानुष माटी ।
मात्र सौतिया डाह, पुरानी है परिपाटी ।
रविकर का अंदाज, लगेगा झटका कर्रा ।
बर्रा प्राकृत दर्प, बदल देगी तब ढर्रा ।।
जान लड़ा कर खुब लड़ा, हुआ किन्तु बेहोश |
बचा लिया इक पुत्र को, फिर भी न संतोष ||
बड़ी दिलेरी से लड़ा, चौकीदार गवाह |
एक पुत्र को ले भगा, जंगल दुर्गम राह ||
सौजा को विश्वास है, देने को संताप |
सौतेले ने है किया, घृणित दुर्धुश पाप ||
घर न रखना चाहती, वह अब अपने साथ |
ईश्वर की खातिर अभी, न्याय कीजिए नाथ ||
दालिम को लाया गया, हट्टा-कट्टा वीर |
चेहरे पर थी पीलिमा, घायल बहुत शरीर ||
सौजा से भूपति कहें, दालिम का अपराध |
ग्राम निकाला दे दिया, रहे किन्तु हितसाध ||
दालिम से मुड़कर कहें, बैठो जाय जहाज |
छू ले माता के चरण, होना मत नाराज ||
राजा पक्के पारखी, है हीरा यह वीर |
पुत्री का रक्षक लगे, कौला की तकदीर ||
ममता में अंधी हुई, अपना पूत दिखाय |
स्वार्थ सिद्ध तृणमूल का, देश भाड़ में जाय |
देश भाड़ में जाय, खाय ले घर का बच्चा |
एक सूत्र जो पाय, चबाती जाये कच्चा |
देती हृदय हिलाय, कोप क्षण भर में कमता |
मंद मंद मुसकाय, बढ़ी माया से ममता ।।
स्वार्थ सिद्ध तृणमूल का, देश भाड़ में जाय |
देश भाड़ में जाय, खाय ले घर का बच्चा |
एक सूत्र जो पाय, चबाती जाये कच्चा |
देती हृदय हिलाय, कोप क्षण भर में कमता |
मंद मंद मुसकाय, बढ़ी माया से ममता ।।
सेनापति से यूँ कहें, रुको यहाँ कुछ रोज |
नरभक्षी से त्रस्त जन, करिए उसकी खोज ||
जीव-जंतु जंगल नदी, सागर खेत पहाड़ |
बंदनीय हैं ये सकल, इनको नहीं उजाड़ ||
रक्षा इनकी जो करे, उसकी रक्षा होय |
शोषण गर मानव करे, जाए जल्द बिलोय ||
केवल क्रीडा के लिए, मत करिए आखेट |
भरता शाकाहार भी, मांसाहारी पेट ||
जीव जंतु वे धन्य जो, परहित धरे शरीर |
हैं निकृष्ट वे जानवर, खाएं उनको चीर ||
नरभक्षी के लग चुका, मुँह में मानव खून |
जल्दी उसको मारिये, जनगण पाय सुकून ||
अगली संध्या में करें, रजधानी परवेश |
अंग-अंग प्रमुदित हुआ, झूमा पूरा देश ||
गुरुजन का आशीष ले, मंत्री संग विचार |
नामकरण की शुभ तिथी, तय अगले बुधवार ||
नामकरण के दिन सजा, पूरा नगर विशेष |
ब्रह्मा-विष्णु देखते, नारद उमा महेश ||
महा-पुरोहित कर रहे, थापित महा-गणेश |
राजकुमारी आ गई, आये अतिथि विशेष ||
रानी माँ की गोद में, चंचल रही विराज |
टुकुर टुकुर देखे सकल, इत-उत होते काज ||
कौला दालिम साथ में, राजकुमारी पास |
हम दोनों कुछ ख़ास हैं, करते वे एहसास ||
महापुरोहित बोलते, हो जाओ सब शांत |
शान्ता सुन्दर नाम है, फैले सारे प्रांत ||
शान्ता -शान्ता कह उठा, वहाँ जमा समुदाय |
मात-पिता प्रमुदित हुए, कन्या खूब सुहाय ||
कार्यक्रम सम्पन्न हो, विदा हुए सब लोग |
पूँछे कौला को बुला, राजा पाय सुयोग ||
शान्ता की तुम धाय हो, हमें तुम्हारा ख्याल |
दालिम लगता है भला, रखे तुम्हे खुशहाल ||
तुमको गर अच्छा लगे, दिल में तेरे चाह |
सात दिनों में ही करूँ, तेरा उससे व्याह ||
कौला शरमाई तनिक, गई वहाँ से भाग |
दालिम की किस्मत जगी, बढ़ा राग-अनुराग ||
दोनों की शादी हुई, चले एक ही राह |
शान्ता के प्रिय बन रहे, राजा केर पनाह ||
सौम्या सृष्टी सोहिनी, माँ की मंजिल राह ।
सचुतुर, सुखदा, सुघड़ई, दुर्गे मिली अथाह ।
दुर्गे मिली अथाह, बड़ी आभारी माता ।
ताकूँ अपना अक्श, कृपा कर सदा विधाता ।
हसरत हर अरमान, सफल देखूं इस दृष्टी ।
मंगल-मंगल प्यार, लुटाती सौम्या सृष्टी ।।
पोर-पोर में प्यार है, ममतामयी महान ।
कन्या में नित देखती, देवी का वरदान ।।
कन्या में नित देखती, देवी का वरदान ।।
सर्ग-2 समाप्त
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