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सर्ग-3भाग-1भगिनी शांताशान्ता के चरणचले घुटुरवन शान्ता, सारा महल उजेर |दास-दासियों ने रखा, राज कुमारी घेर ||
सबसे प्रिय उसको लगे, अपनी माँ की गोद |माँ बोले जब तोतली, होवे महा विनोद ||
कौला दालिम जोहते, बैठे अपनी बाट |कौला पैरों को मले, हलके-फुल्के डांट ||
दालिम टहलाता रहे, करवाए अभ्यास |बारह महिने में चली, करके कठिन प्रयास ||
हर्षित सारा महल था, भेज अवध सन्देश |शान्ता के पहले कदम, सबको लगे विशेष ||
दशरथ कौशल्या सहित, लाये रथ को तेज |पग धरते देखी सुता, पहुँची ठण्ड करेज ||
कौशल्या मौसी हुई, मौसा भूप कहाय |सरयू-दर्शन का वहाँ, न्यौता देते जाय ||
एक मास के बाद में, शान्ता रानी संग |गए अवधपुर घूमने, देख प्रजा थी दंग ||
कौला को दालिम मिला, होनहार बलवान |दासी सब ईर्ष्या करें, तनिकौ नहीं सुहान ||
प्रेम और विश्वास का, होय नहीं व्यापार ।दंड-भेद से ना मिले, साम दाम वेकार ।।स्नेह-समर्पण कर दिया, क्यों कुछ मांगे दास ?निज-इच्छाएं कर दफ़न, मत करवा परिहास ।।
मौसा-मौसी के यहाँ, रही शान्ता मस्त |दौड़ा-दौड़ा के करे, कौला को वह पस्त ||
अपने घर फिर आ गई, एक पाख के बाद |राजा ने पाया तभी, महा-मस्त संवाद ||
प्रथम चरण की धमक के, लक्षण बड़े महान |हैं रानी चम्पावती, इक शरीर दो जान ||
हर्षित भूपति नाचते, बढ़ा और भी प्यार |ठुमक-ठुमक कर शान्ता, होती पीठ सवार ||
पैरों में पायल पड़े, झुन झुन बाजे खूब |आनंदित माता पिता, गये प्यार में डूब ||
शान्ता माता से हुई, किन्तु तनिक अब दूर |पर कौला देती उसे, प्यार सदा भरपूर ||
राजा भी रखते रहे, बेटी का खुब ध्यान |अंगराज को मिल गई, एक और संतान ||
रानी पाई पुत्र को, शान्ता पाई भाय |देख देख के भ्रात को, मन उसका हरसाय ||
नारी का पुत्री जनम, सहज सरलतम सोझ |सज्जन रक्षे भ्रूण को, दुर्जन मारे खोज ||
नारी बहना बने जो, हो दूजी संतानहोवे दुल्हन जब मिटे, दाहिज का व्यवधान ||
नारी का है श्रेष्ठतम, ममतामय अहसास |बच्चा पोसे गर्भ में, काया महक सुबास ||
कौला भी माता बनी , दालिम बनता बाप |पुत्री संग रहने लगे, मिटे सकल संताप ||
फिर से कौला माँ बनी, पाई सुन्दर पूत |
भाई बहना की बनी, पावन जोड़ी नूत ||
शान्ता होती सात की, पांच बरस का सोम |परम बटुक छोटा जपे, संग में सबके ॐ ||
कौला नियमित लेपती, औषधि वाला तेल |दालिम रक्षक बन रहे, रोज कराये खेल ||
जबसे शान्ता है सुनी, गुरुकुल जाए सोम |
गुमसुम सी रहने जगी, प्राकृत हुई विलोम ||
माता से वह जिद करे, जाऊँगी उस ठौर |
भाई के संग ही रहूँ, यहाँ रहूँ ना और ||
माता समझाने लगी, कौला रही बताय |
यहीं महल में पाठ का, करती आज उपाय ||
गुरुकुल से आये वहाँ, तेजस्वी इक शिष्य |
शांता संग सुधरता, रूपा भला भविष्य ||
दीदी का होकर रहे, कौला दालिम पूत |
रक्षाबंधन में बंधे, उसको पहला सूत ||
बाँधे भैया सोम के, गुरुकुल में फिर जाय |
प्रभु से विनती कर कहे, हरिये सकल बलाय ||
दालिम को मिलती नई, जिम्मेदारी गूढ़ |
राजमहल का प्रमुख बन, हँसता जाए मूढ़ ||
दालिम से कौला कही, सुनो बात चितलाय |भाई को ले आइये, माता लो बुलवाय ||
सुख में अपने साथ हों, संग रहे परिवार |माता का आभार कर, यही परम सुविचार ||
संदेसा भेजा तुरत, आई सौजा पास |बीती बातें भूलती, नए नए एहसास ||
छोटा भाई भी हुआ, तगड़ा और बलिष्ठ |दालिम सा दिखता रमण, विनयशील व शिष्ट ||
रमण सुरक्षा हित चला, शान्ता पास तुरन्त |रानी माँ भी खुश हुई, देख शिष्ट बलवंत ||
सौजा रूपा बटुक का, हर पल रखती ध्यान |रानी की सेवा करे, कौला इस दरम्यान ||
राज वैद्य आते रहे, करने को उपचार |चार बरस में मिट गए, सारे अंग विकार ||
एक दिवस की बात है, बैठ धूप सब खाँय |घटना बारह बरस की, सौजा रही सुनाय ||
सौजा दालिम से कहे, वह आतंकी बाघ |बारह मारे पूस में, पांच मनुज को माघ ||
सेनापति ने रात में, चारा रखा लगाय |पास ग्राम से किन्तु वह, गया वृद्ध को खाय ||
नरभक्षी पागल हुआ, साक्षात् बन काल |पशुओं को छूता नहीं, फाड़े मानव खाल ||
चारा बनने के लिए, कोई न तैयार |बकरा बांधे नित करे, महिना होते पार ||
एक रात में जब सभी, बैठे घात लगाय |स्त्री छाया इक दिखी, अंधियारे में जाय ||
एक शिला पर जम गई, उस फागुन की रात |आखेटक दल के सभी, सेनापति घबरात ||
बिना योजना के जमी, उत अबला बलवीर |हाथों में भाला इधर, सजा धनुष पर तीर ||
तीन घरी बीती मगर, लगा टकटकी दूर |राह शिकारी देखते, आये बाघ जरूर ||
फगुआ गाने में मगन, गाये मादक गीत |साया इक आते दिखी, बोली कोयल मीत ||
होते ही संकेत के, देते धावा मार |घोर विषैले तीर से, होता बाघ शिकार ||
भालों के वे वार भी, बेहद थे गंभीर ||छाती फाड़ा बाघ की, माथा देता चीर ||
शान्ता चिंतित दिख रही, बोली दादी बोल |उस नारी का क्या हुआ, जिसका कर्म अमोल ||
सौजा बोली कुछ नहीं, मंद मंद मुसकाय |माँ के चरणों को छुवे, दालिम बाहर जाय ||
सौजा ने ऐसे किया, पूरा पश्चाताप |
निश्छल दालिम के लिए, वर है माँ का शाप ||
शान्ता की शिक्षा हुई, आठ बरस में पूर |पाक कला संगीत के, सीखे सकल सऊर ||
शांता विदुषी बन गई, धर्म-कर्म में ध्यान |भागों वाली बन करे, सकल जगत कल्याण ||
गुणवंती बाला बनी, सुन्दर पायी रूप |नई सहेली पा गई, रूपा दिखे अनूप ||
अवध पुरी में दुःख पले, खुशियाँ रहती रूठ |राजमहल में आ रहे, समाचार सब झूठ ||
कई बार आये यहाँ, श्री दशरथ महराज |बेटी को देकर गए, इक रथ सुन्दर साज ||
रथ पर अपने बैठ कर, वन विहार को जाय |रूपा उसके साथ में, हर आनंद उठाय ||
रमण हमेशा ध्यान से, पूर्ण करे कर्तव्य |रक्षक बन संग में रहे, जैसे रथ का नभ्य ||
बटुक परम नटखट बड़ा, करे सदा खिलवाड़ |शान्ता रूपा खेलती, देता परम बिगाड़ ||
फिर भी वह अति प्रिय लगे, आज्ञाकारी भाय |शांता के संकेत पर, हाँ दीदी कर धाय ||भाग-2भगिनी शांता
चिन्तित अवधशान्ता तो खुशहाल है, दशरथ चिन्तित खूब |कौशल्या परजा सकल, गम-सागर में डूब ||
हद से होता पार जब, दोनों का अवसाद |अंगदेश को चल पड़ें, कभी कहीं अपवाद ||
चार वर्ष तक न हुई, कोई जब संतान |दशरथ तो चिंतित रहें, कौशल्या उकतान ||
हो रानी की आत्मा, इकदम से बेचैन |
ढूंढ़ दूसरी लाइए, निकसे अटपट बैन |
हक्का-बक्का रह गए, सुनकर के महिपाल |कौशल्या अनुनय करे, उसका हृदय विशाल ||
संग में मैं उसके रहूँ, अपनी बहना मान |कभी शिकायत न करूँ, रक्खू हरदम ध्यान ||
बड़े-बुजुर्गों से मिले, व्यवहारिक सन्देश |पालन मन से जो करे, पावे मान विशेष ||
यही सोचकर चुप रहे, दोनों रखते धीर |हो कैसे युवराज पर, विषय बड़ा गंभीर ||
अरुंधती आई महल, बसता जहाँ तनाव |कौशल्या के तर्क से, उन पर बढ़ा दबाव ||
अगले दिन गुरु ने किया, दशरथ का आह्वान |अवधराज राजी हुए, छिड़ा नया अभियान ||
संदेशे भेजे गए, करना दूजा व्याह |प्रत्त्युत्तर की देखती, उत्सुक परजा राह ||
पञ्च-नदी बहती जहाँ, प्यारा कैकय देश |अपनी रूचि से भेजते, दशरथ खुद सन्देश ||
कैकय के महराज को, मिला एक वरदान |खग की भाषा जानते, अश्वपती विद्वान ||
उनकी कन्या रूपसी, सुघढ़ सयानी तेज |सात भाइयों में पली, पलकों रखी सहेज ||
माता का सुख न मिला, माता थी वाचाल |कैकय से बाहर गई, बीते बाइस साल ||
घटना है इक रोज की, उपवन में महराज |चीं-चीं सुनके खुब हँसे, महरानी नाराज ||
भेद खोलने की सजा, राजा के थे प्राण |इसीलिए रानी करे, कैकय से प्रयाण ||
भूपति खोलें भेद गर, प्राण जाएँ तत्काल |रानी जिद छोड़ी नहीं, की थी बहुत बवाल ||
संबंधों की श्रृंखला, दशरथ से मजबूत |शर्त सहित सन्देश पर, ले जाता यह दूत ||
मेरी पुत्री का बने, बेटा यदि युवराज |स्वागत है बारात का, सिद्ध जानिये काज ||
कौशल्या कहने लगी, कोई न अवरोध |कैकेयी रानी बने, मेरा नहीं विरोध ||
रानी बनकर आ गई, साथ मंथरा धाय |जिसके कटु व्यवहार से, महल रहा उकताय ||
चार साल बीते मगर, हुई न मनसा पूर |सुमति सुमित्रा आ गई, हुए भूप मजबूर ||
कौशल्या की गोद के, सूख गए जो फूल |लंकापति रहता उधर, मस्त ख़ुशी में झूल ||
सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |करे दुश्मनी दुष्टता, दशरथ के भी संग ||
युद्धक्षेत्र में थे डटे, एक बार भूपाल |सम्भासुर के शस्त्र से, बिगड़ी रथ की चाल ||
कैकेयी थी सारथी, टूटा पहिया देख |करे मरम्मत स्वयं से, ठोके खुद से मेख ||घायल दशरथ को बचा, पहुंची अवध प्रदेश |दो वर पाई गाँठ में, बाढ़ा मान विशेष ||
शांता बिन ये शादियाँ, हो जाती नाकाम |चौथेपन में अवधपति, केश सफ़ेद तमाम ||
चिंता की अब झुर्रियां, बाढ़ी मुखड़े बीच |पूर्वकाल के पुण्य-तप, राखें आँखें मीच ||
सर्ग-3
भाग-3वन-विहारमाता संग गुरुकुल गई, बाढ़े भ्रात विछोह |दक्षिण की सुन्दर छटा, लेती थी मन मोह ||
गंगा के दक्षिण घने, सौ योजन तक झाड़ |श्वेत बाघ मिलते उधर, झरने और पहाड़ ||
मन की चंचलता विकट, इच्छा मारे जोर |रूपा के संग चल पड़ी, रथ लेकर अति भोर ||
पंखो को फैला उडी, मिला खुला आकाश |खुद से करने चल पड़ी, खुद की खुदी तलाश ||वटुक-परम पीछे लगा, सबकी नजर बचाय |तीर धनुष अपना लिए, छुपकर साथे जाय ||
आपाधापी जिंदगी, फुर्सत भी बेचैन।बेचैनी में ख़ास है, अपनेपन के सैन ।अपनेपन के सैन, बैन प्रियतम के प्यारे ।सखियों के उपहार, खोलकर अगर निहारे ।पा खुशियों का कोष, ख़ुशी तन-मन में व्यापी ।नई ऊर्जा पाय, करे फिर आपाधापी ।।
कौला लेकर औषधी, रही भोर से खोज|जल्दी ही हल्ला हुआ, लगी खोजने फौज ||
राजा-रानी ढूंढते, रमण होय हलकान |बुद्धिहीन सा बदलता, अपने दिए बयान |
अपने-अपने अश्व ले, चारो दिश सब जाय |दौड़ा दक्षिण को रमण, घोडा जोर भगाय ||
काका झटपट भागता, बड़े लक्ष्य की ओर |
घोडा चाबुक खाय के, लखे विचरते ढोर ||
गुरुकुल पीछे छूटता, आई घटना याद |बाघ देखने की कही, शांता जब बकवाद ||
पहियों के ताजे निशाँ, पड़े भूमि पर देख |माथे पर गहरी हुईं, चिंता की आरेख ||
आगे जाकर देखता, झरना बहता जोर |बन्द रास्ता दीखता, दिखे विचरते ढोर ||
रथ आगे दीखे नहीं, कैसे गया बिलाय |अनहोनी की सोच के, रहा अँधेरा छाय ||
उतरा घोड़े से मिला, अंगवस्त्र इक श्वेत |आगे बढ़ने पर दिखा, रथ फिर अश्व समेत ||
व्याकुलता ज्यादा बढ़ी, झटपट झाड़ी फांद |दिखी सामने छुपी सी, एक बाघ की मांद ||
जी धकधक करने लगा, गहे हाथ तलवार |एक एक कर आ रहे, मन में बुरे विचार ||
हिम्मत कर आगे बढ़ा, आया शर सर्राय |देखा अचरज से उधर, खड़ा बटुक निअराय ||
बोला तेजी से रमण, परम बटुक दे ध्यान |काका तेरा है इधर, ले लेगा क्या जान ||
सुनकर के आवाज यह, दोनों बाला धाय |काका को परनाम है, बोली बाहर आय ||
बैठी थी वे मांद में, नहीं बाघ का खौफ |कहाँ हकीकत थी पता, करती दोनों ओफ ||
काका जब फटकारते, नैना आये नीर |गुर्राहट सुन काँपता, अबला देह सरीर ||
झटपट ताने धनुष को, चाचा और भतीज |बाघ किन्तु दीखा नहीं, रहे हाथ सब मींज ||
जल्दी से चारो चले, अपने रथ की ओर |चौकन्ने थे कान सब, बिना किये कुछ शोर ||
शांता रूपा जा छुपी, रथ के बीचो-बीच |खुली जगह पर रथ तुरग, घोडा लाया खींच ||
गुरुकुल में फैली खबर, बोला छोटा शिष्य |रथ तेजी से उत गया, आँखों देखा दृश्य ||
युद्ध-शास्त्र के चार ठो, चले सोम के मित्र |पहला मौका पाय के, हरकत करें विचित्र ||
बग्घी की उस लीक पर, पैदल बढ़ते जाँय |अस्त्रों को हैं भांजते, चलते शोर मचाय ||
उधर बाघ दीखे नहीं, होय गर्जना घोर |व्याकुलता से भागते, वहाँ विचरते ढोर ||
घोडा अकुलाये वहाँ, हिनहिनाय मजबूर |जैसे आता जा रहा, कोई हिंसक क्रूर ||
गिर-कंदर में गूंजती, रह रह कर आवाज |धरती पर मानो गिरे, महाभयंकर गाज ||
रमण रहा घबराय पर, हिम्मत भरा दिखाय |उलटे रास्ते की तरफ, रथ को गया बढ़ाय ||
घोडा भगा तीव्रतम, रह रह झटके खाय |जैसे पीछे हो लगा, इक कोई अतिकाय ||
सचमुच इक अतिकाय था, आगे घेरा डाल |घोडा ठिठका जोर से, खड़ा सामने काल ||
रमण बोलते बटुक से, बेटा रथ को हाँक |कन्याओं से फिर कहे, मत बाहर को झाँक ||
शांता रूपा देखती, परदे की थी ओट |आठ हाथ की देह को, खुद से रही नखोट ||
घिघ्घी दोनों की बंधीं, कसके दालिम -पूत |तेजी से रथ हांकता, पहली बार अभूत ||
याद रमण को आ गया, दालिम का एहसान |तीन जान खातिर अड़ा, वह अदना इंसान ||
ध्यान हटाने को रमण, मारा उसको तीर |काया पकडे हाथ से, देती नख से चीर ||
बोली मैं हूँ ताड़का, मानव खाना काम |पिद्दी सा तू क्या लड़े, पल में काम तमाम ||देखा उसको रमण जब, महिला का था रूप |साफ़-साफ़ अब दिख रही, भद्दी विकट कुरूप ||घोड़े के संग वीर तब, वापस भागा जान |अपने पीछे ले लगा, योद्धा बड़ा सयान ||
लम्बे लम्बे ताड़का, दौड़ी रख के पैर |अट्ठाहास रह रह करे, मानव की ना खैर ||
अन्धकार छाया हुवा, गया नदी में कूद |रमण मूल पानी बहा, घोड़ा खाई सूद ||
परम बटुक रथ हाँक के, आया बारह कोस |सोम-मित्र देखे सकल, तब आया था होश ||
जल्दी से रथ में चढो, तनिक करो न देर |राक्षस इक पीछे पड़ा, होवे ना अंधेर ||
शांता रूपा बोलती, देखी जब वे सोम |लाख लाख आभार है, ताके ऊपर व्योम ||
काका प्यारे झूझते, देते अपनी जान |हमें बचाने के लिए, हुवे वहाँ कुर्बान ||
गुरुकुल पहुंची शांता, रूपा रमण समेत |भय से थर थर कांपती, देखा जिन्दा प्रेत |
रूपा के सौन्दर्य को, ताके सारे मित्र |सोम ताकता मित्र को, स्थिति बड़ी विचित्र ||
गुरुकुल से उस रात ही, गुरु गए पहुँचाय |काका की करनी कहें, रहे तनिक सकुचाय ||
यक्ष वंश की ताड़का, उसके पिता सुकेतु |कठिन तपस्या से मिली, किया पुत्र के हेतु ||
असुर राज से व्याह दी, थी ताकत में चूर |दैत्य सुमाली से हुवे, संतानें सब क्रूर ||
पुत्री केकेसी हुई, रावण केरी माय ||मारीच सुबाहु पुत्र दो, पूरा जग घबराय ||वही ताड़का थी दिखी, सौजा रही सुनाय |
पुत्र रमण की मृत्यु पर, रही खूब इतराय ||
शोक करें किस हेतु हम, हमें गर्व अनुभूत |
रूपा शांता को बचा, लगे देव का दूत ||
मेरा प्यारा बटुक भी, छोटा किन्तु महान |
अच्छी संगत पाय के, बनता बड़ा सयान ||
दालिम से सौजा कहे, मत कर बेटा शोक |
इसी कार्य के वास्ते, आया था इहलोक ||
रो रो कर के शांता, रही स्वयं को कोस |
दुर्घटना में दिख रहा, सारा उसका दोष ||
रोते धोते बीतते, दुःख के हफ्ते चार |घायल काका आ गया, चमत्कार आभार ||
कूदा पानी में जहाँ, था बहाव अति तेज |ढीली काया कर दिया, कर मजबूत करेज ||
पानी में बहता गया, पूरी काली रात |बहुत दूर था आ गया, पीछे छोड़ प्रपात ||
भूला था मैं रास्ता, रहा भटकता देख |इक सन्यासी थे मिले, माथे चन्दन लेख ||
दर्शन करने जा रहे, श्रींगेश्वर महदेव |
आया उनके संग ही, हुवे सहायक देव ||
हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |
कोशिश चढ़ने की सतत, चाहे दुर्गम राह |
चाहे दुर्गम राह, चाह से मिले सफलता |
करो नहीं परवाह, दिया तूफां में जलता |
चढ़ते रहो पहाड़, सदा जय माँ जी कहिये |दीजै झंडे गाड़, डटे हिम्मत से रहिये ||
प्यार बूढ़ दिल मोंगरा, अमलताश की आग ।
लड़की को कर के विदा, चला बुझाय चराग ।।
सपना अपना चुन लिया, करे नहीं पर यत्न ।
बिन प्रयत्न कैसे मिले, कोई अद्भुत रत्न ।
Wednesday, 19 September 2012
भगवान् राम की सहोदरा (बहन) : भगवती शांता परम : सर्ग-3
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भगवती शांता
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इतिहास की सर्वथा उपेक्षित पात्र को लेकर आपने एक अद्भुत कृति रचा है।
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