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Wednesday 19 September 2012

भगवान् राम की सहोदरा (बहन) : भगवती शांता परम : सर्ग-3

  •  सर्ग-3
      भाग-1 
    भगिनी शांता
    शान्ता के चरण
    चले घुटुरवन शान्ता, सारा महल उजेर |
    दास-दासियों ने रखा, राज कुमारी घेर ||

    सबसे प्रिय उसको लगे, अपनी माँ की गोद |
    माँ बोले जब  तोतली, होवे महा विनोद ||

    कौला दालिम जोहते, बैठे अपनी बाट |
    कौला पैरों को मले, हलके-फुल्के डांट ||

    दालिम टहलाता रहे, करवाए अभ्यास |
    बारह महिने में चली, करके कठिन प्रयास ||

    हर्षित सारा महल था, भेज अवध सन्देश |
    शान्ता के पहले कदम, सबको लगे विशेष ||

    दशरथ कौशल्या सहित, लाये रथ को तेज |
    पग धरते देखी सुता, पहुँची ठण्ड करेज || 

    कौशल्या मौसी हुई, मौसा भूप कहाय |
    सरयू-दर्शन का वहाँ, न्यौता देते जाय ||

    एक  मास के बाद में, शान्ता रानी संग |
    गए अवधपुर घूमने, देख प्रजा थी दंग || 

    कौला को दालिम मिला, होनहार बलवान |
    दासी सब ईर्ष्या करें, तनिकौ नहीं सुहान ||
    प्रेम और विश्वास का, होय नहीं व्यापार ।
    दंड-भेद से ना मिले, साम दाम वेकार ।।

    स्नेह-समर्पण कर दिया, क्यों कुछ मांगे दास ?
    निज-इच्छाएं कर दफ़न, मत करवा परिहास ।।


    मौसा-मौसी  के यहाँ, रही शान्ता मस्त |
    दौड़ा-दौड़ा के करे, कौला को वह पस्त ||

    अपने घर फिर आ गई, एक पाख के बाद |
    राजा ने पाया तभी, महा-मस्त संवाद ||


    प्रथम चरण की धमक के, लक्षण बड़े महान |
    हैं रानी चम्पावती,  इक शरीर दो जान ||

    हर्षित भूपति नाचते, बढ़ा और भी प्यार |
    ठुमक-ठुमक कर शान्ता, होती पीठ सवार ||

    पैरों में पायल पड़े, झुन झुन बाजे खूब |
    आनंदित माता पिता, गये प्यार में डूब ||

    शान्ता माता से हुई, किन्तु तनिक अब दूर |
    पर कौला देती उसे, प्यार सदा भरपूर ||

    राजा भी रखते रहे, बेटी का खुब ध्यान |
     अंगराज को मिल गई, एक और संतान ||

    रानी पाई पुत्र को, शान्ता पाई भाय |
    देख देख के भ्रात को, मन उसका हरसाय ||




    नारी का पुत्री जनम, सहज सरलतम सोझ |
    सज्जन रक्षे भ्रूण को, दुर्जन मारे खोज ||

    नारी  बहना  बने जो, हो दूजी संतान
    होवे दुल्हन जब मिटे, दाहिज का व्यवधान ||

    नारी का है श्रेष्ठतम, ममतामय  अहसास |
    बच्चा पोसे गर्भ में,  काया महक सुबास ||

     कौला भी माता बनी , दालिम बनता बाप |
    पुत्री संग रहने लगे, मिटे सकल संताप ||

    फिर से कौला माँ बनी, पाई सुन्दर पूत |

    भाई बहना की बनी, पावन जोड़ी नूत ||

    शान्ता होती सात की, पांच बरस का सोम |
    परम बटुक छोटा जपे, संग में सबके ॐ ||

    कौला नियमित लेपती, औषधि वाला तेल |
    दालिम रक्षक बन रहे, रोज कराये खेल ||

    जबसे शान्ता है सुनी, गुरुकुल जाए सोम |

    गुमसुम सी रहने जगी, प्राकृत हुई विलोम || 

    माता से वह जिद करे, जाऊँगी उस ठौर |

    भाई के संग ही रहूँ, यहाँ रहूँ ना और ||


    माता समझाने लगी, कौला रही बताय |

    यहीं महल में पाठ का, करती आज उपाय ||


    गुरुकुल से आये वहाँ, तेजस्वी इक शिष्य |

      शांता संग सुधरता, रूपा भला भविष्य ||


    दीदी का होकर रहे, कौला दालिम पूत |

     रक्षाबंधन में बंधे, उसको पहला सूत ||

    बाँधे भैया सोम के, गुरुकुल में फिर जाय |

    प्रभु से विनती कर कहे, हरिये सकल बलाय ||


    दालिम को मिलती नई, जिम्मेदारी गूढ़ |

    राजमहल का प्रमुख बन, हँसता जाए मूढ़ ||

     
    दालिम से कौला कही, सुनो बात चितलाय |
    भाई को ले आइये, माता लो बुलवाय ||

    सुख में अपने साथ हों, संग रहे परिवार |
    माता का आभार कर, यही परम सुविचार ||

    संदेसा भेजा तुरत, आई सौजा पास |
    बीती बातें भूलती, नए नए एहसास ||

    छोटा भाई भी हुआ, तगड़ा और बलिष्ठ |
    दालिम सा दिखता रमण, विनयशील व शिष्ट ||

    रमण सुरक्षा हित चला, शान्ता पास तुरन्त |
     रानी माँ भी खुश हुई, देख शिष्ट बलवंत ||

    सौजा रूपा बटुक का, हर पल रखती ध्यान |
    रानी की सेवा करे, कौला इस दरम्यान ||

    राज वैद्य आते रहे, करने को उपचार |
    चार बरस में मिट गए, सारे अंग विकार ||


    एक दिवस की बात है, बैठ धूप सब खाँय |
    घटना बारह बरस की, सौजा रही सुनाय ||


     सौजा दालिम से कहे, वह आतंकी बाघ |
    बारह मारे पूस में, पांच मनुज को माघ ||

    सेनापति ने रात में, चारा रखा लगाय |
    पास ग्राम से किन्तु वह, गया वृद्ध को खाय ||

    नरभक्षी पागल हुआ, साक्षात् बन काल |
    पशुओं को छूता नहीं, फाड़े मानव खाल ||

    चारा बनने के लिए, कोई न तैयार |
    बकरा बांधे नित करे, महिना होते पार ||

    एक रात में जब सभी, बैठे घात लगाय |
    स्त्री छाया इक दिखी, अंधियारे में जाय ||

    एक शिला पर जम गई, उस फागुन की रात |
    आखेटक दल के सभी, सेनापति घबरात ||

    बिना योजना के जमी,  उत अबला बलवीर |
    हाथों में भाला इधर, सजा धनुष पर तीर ||

    तीन घरी बीती मगर,  लगा टकटकी दूर |
    राह शिकारी देखते, आये बाघ जरूर ||

    फगुआ गाने में मगन, गाये मादक गीत |
    साया इक आते दिखी, बोली कोयल मीत ||

    होते ही संकेत के,  देते धावा मार |
    घोर विषैले तीर से,  होता बाघ शिकार  ||

    भालों के वे वार भी, बेहद थे गंभीर ||
    छाती फाड़ा बाघ की, माथा देता चीर ||

    शान्ता चिंतित दिख रही, बोली दादी बोल |
    उस नारी का क्या हुआ, जिसका कर्म अमोल ||

    सौजा बोली कुछ नहीं, मंद मंद मुसकाय |
    माँ के चरणों को छुवे, दालिम बाहर जाय ||

    सौजा ने ऐसे किया, पूरा पश्चाताप |
    निश्छल दालिम के लिए,  वर है माँ का शाप ||


    शान्ता की शिक्षा हुई, आठ बरस में पूर |
    पाक कला संगीत के, सीखे सकल सऊर || 

    शांता विदुषी बन गई, धर्म-कर्म में ध्यान |
     भागों वाली बन करे, सकल जगत कल्याण ||

    गुणवंती बाला बनी, सुन्दर पायी रूप |
    नई सहेली पा गई, रूपा दिखे अनूप ||

    अवध पुरी में दुःख पले, खुशियाँ रहती रूठ |
    राजमहल में आ रहे, समाचार सब झूठ ||

    कई बार आये यहाँ, श्री दशरथ महराज |
    बेटी को देकर गए, इक रथ सुन्दर साज ||

    रथ पर अपने बैठ कर, वन विहार को जाय |
    रूपा उसके साथ में, हर आनंद उठाय ||

    रमण हमेशा ध्यान से, पूर्ण करे कर्तव्य |
    रक्षक बन संग में रहे, जैसे रथ का नभ्य ||

    बटुक परम नटखट बड़ा, करे सदा खिलवाड़ |
    शान्ता रूपा खेलती, देता परम बिगाड़ ||

    फिर भी वह अति प्रिय लगे, आज्ञाकारी भाय |
    शांता के संकेत पर, हाँ दीदी कर धाय ||
      भाग-2
    भगिनी शांता
    चिन्तित अवध
    शान्ता तो खुशहाल है, दशरथ चिन्तित खूब |
    कौशल्या परजा सकल, गम-सागर में डूब ||

    हद  से  होता  पार  जब, दोनों  का  अवसाद |
    अंगदेश को चल पड़ें,  कभी कहीं अपवाद ||

    चार वर्ष तक न हुई, कोई जब संतान |
    दशरथ तो चिंतित रहें, कौशल्या उकतान ||

    हो रानी की आत्मा, इकदम से बेचैन |
    ढूंढ़ दूसरी लाइए, निकसे अटपट बैन |

    हक्का-बक्का रह गए, सुनकर के महिपाल |
    कौशल्या अनुनय करे, उसका हृदय विशाल ||

    संग में मैं उसके रहूँ, अपनी बहना मान |
    कभी शिकायत न करूँ, रक्खू हरदम ध्यान ||

    बड़े-बुजुर्गों से मिले, व्यवहारिक सन्देश |
    पालन मन से जो करे, पावे मान विशेष ||

    यही सोचकर चुप रहे, दोनों रखते धीर |
    हो कैसे युवराज पर, विषय बड़ा गंभीर ||

    अरुंधती आई महल, बसता जहाँ तनाव |
    कौशल्या के तर्क से, उन पर बढ़ा दबाव ||

    अगले दिन गुरु ने किया, दशरथ का आह्वान |
    अवधराज राजी हुए, छिड़ा नया अभियान ||

    संदेशे भेजे गए, करना दूजा व्याह |
    प्रत्त्युत्तर की देखती, उत्सुक परजा राह ||

    पञ्च-नदी बहती जहाँ, प्यारा कैकय देश |
    अपनी रूचि से भेजते, दशरथ खुद सन्देश ||

    कैकय के महराज को, मिला एक वरदान |
    खग की भाषा जानते, अश्वपती विद्वान ||

    उनकी कन्या रूपसी, सुघढ़ सयानी तेज |
    सात भाइयों में पली, पलकों रखी सहेज ||

    माता का सुख न मिला, माता थी वाचाल |
     कैकय से बाहर गई, बीते बाइस साल || 

    घटना है इक रोज की, उपवन में महराज |
     चीं-चीं सुनके खुब हँसे, महरानी नाराज ||

    भेद खोलने की सजा, राजा के थे प्राण |
    इसीलिए रानी करे, कैकय से प्रयाण ||

     भूपति खोलें भेद गर, प्राण जाएँ तत्काल |
    रानी जिद छोड़ी नहीं, की थी बहुत बवाल ||


    संबंधों की श्रृंखला, दशरथ से मजबूत |
    शर्त सहित सन्देश पर, ले जाता यह दूत ||

    मेरी पुत्री का बने, बेटा यदि युवराज |
    स्वागत है बारात का, सिद्ध जानिये काज ||

    कौशल्या कहने लगी, कोई न अवरोध  |
    कैकेयी रानी बने, मेरा नहीं विरोध ||

    रानी बनकर आ गई, साथ मंथरा धाय |
    जिसके कटु व्यवहार से, महल रहा उकताय ||

    चार साल बीते मगर, हुई न मनसा पूर |
    सुमति सुमित्रा आ गई, हुए भूप मजबूर ||



    कौशल्या की गोद के, सूख गए जो  फूल |
    लंकापति रहता उधर, मस्त ख़ुशी में झूल ||


    सम्भासुर करता उधर, इन्द्रलोक को तंग |
    करे दुश्मनी दुष्टता, दशरथ के भी संग ||

    युद्धक्षेत्र में थे डटे, एक बार भूपाल |
    सम्भासुर के शस्त्र से, बिगड़ी रथ की चाल ||

    कैकेयी थी सारथी, टूटा पहिया देख |
    करे मरम्मत स्वयं से, ठोके खुद से मेख ||
    घायल दशरथ को बचा, पहुंची अवध प्रदेश |
    दो वर पाई गाँठ में, बाढ़ा मान विशेष ||

    शांता बिन ये शादियाँ,  हो जाती नाकाम |
    चौथेपन में अवधपति, केश सफ़ेद तमाम ||

    चिंता की अब झुर्रियां, बाढ़ी मुखड़े बीच |
    पूर्वकाल के पुण्य-तप,  राखें आँखें मीच ||

    सर्ग-3

      भाग-3
    वन-विहार
    माता संग गुरुकुल गई, बाढ़े भ्रात विछोह |
    दक्षिण की सुन्दर छटा, लेती थी मन मोह ||

    गंगा के दक्षिण घने, सौ योजन तक झाड़ |
    श्वेत बाघ मिलते उधर, झरने और पहाड़ ||

    मन की चंचलता विकट,  इच्छा  मारे जोर |
    रूपा के संग चल पड़ी, रथ लेकर अति भोर ||

    पंखो  को  फैला उडी, मिला   खुला  आकाश  |
    खुद से करने चल पड़ी, खुद की खुदी तलाश ||

    वटुक-परम पीछे  लगा,  सबकी नजर बचाय |
    तीर धनुष अपना लिए, छुपकर साथे जाय ||

    आपाधापी जिंदगी, फुर्सत भी बेचैन।
    बेचैनी में ख़ास है, अपनेपन के सैन ।
    अपनेपन के सैन, बैन प्रियतम के प्यारे ।
    सखियों के उपहार, खोलकर अगर निहारे ।
    पा खुशियों का कोष, ख़ुशी तन-मन में व्यापी ।
    नई ऊर्जा पाय, करे फिर आपाधापी ।।


    कौला लेकर औषधी,  रही भोर से खोज|
    जल्दी ही हल्ला हुआ, लगी खोजने फौज ||

    राजा-रानी ढूंढते, रमण होय हलकान |
    बुद्धिहीन सा बदलता, अपने दिए बयान  |

    अपने-अपने अश्व ले, चारो दिश सब जाय |
    दौड़ा दक्षिण को रमण, घोडा जोर भगाय ||

    काका
    झटपट भागता, बड़े लक्ष्य की ओर |
    घोडा चाबुक खाय के, लखे विचरते ढोर ||

    गुरुकुल पीछे छूटता, आई घटना याद |
    बाघ देखने की कही, शांता जब बकवाद ||

    पहियों के ताजे निशाँ, पड़े भूमि पर देख |
    माथे पर गहरी हुईं, चिंता की आरेख ||

    आगे जाकर देखता, झरना बहता जोर |
    बन्द रास्ता दीखता, दिखे विचरते ढोर ||

    रथ आगे दीखे नहीं,  कैसे गया बिलाय |
    अनहोनी की सोच के, रहा अँधेरा छाय ||

    उतरा घोड़े से मिला, अंगवस्त्र इक श्वेत |
    आगे बढ़ने पर दिखा, रथ फिर अश्व समेत ||

    व्याकुलता ज्यादा बढ़ी, झटपट झाड़ी फांद |
    दिखी सामने छुपी सी, एक बाघ की मांद ||

    जी धकधक करने लगा, गहे हाथ तलवार |
    एक एक कर आ रहे, मन में बुरे विचार ||

    हिम्मत कर आगे बढ़ा, आया शर सर्राय |
    देखा अचरज से उधर, खड़ा बटुक निअराय ||

    बोला तेजी से रमण, परम बटुक दे ध्यान |
    काका तेरा है इधर, ले लेगा क्या जान ||

    सुनकर के आवाज यह,  दोनों बाला धाय |
    काका को परनाम है, बोली बाहर आय ||

    बैठी थी वे मांद में, नहीं बाघ का खौफ |
    कहाँ हकीकत थी पता,  करती दोनों ओफ ||

    काका जब फटकारते, नैना आये नीर |
    गुर्राहट सुन काँपता, अबला देह सरीर ||

    झटपट ताने धनुष को, चाचा और भतीज |
    बाघ किन्तु दीखा नहीं, रहे हाथ सब मींज ||

    जल्दी से चारो चले, अपने रथ की ओर |
    चौकन्ने थे कान सब,  बिना किये कुछ शोर || 

    शांता रूपा जा छुपी, रथ के बीचो-बीच |
    खुली जगह पर रथ तुरग, घोडा लाया खींच ||  

    गुरुकुल में फैली खबर, बोला छोटा शिष्य |
    रथ तेजी से उत गया, आँखों देखा दृश्य ||

    युद्ध-शास्त्र के चार ठो, चले सोम के मित्र |
    पहला मौका पाय के, हरकत करें विचित्र ||

    बग्घी की उस लीक पर, पैदल बढ़ते जाँय |
    अस्त्रों को हैं भांजते,  चलते शोर मचाय ||

    उधर बाघ दीखे नहीं, होय गर्जना घोर |
    व्याकुलता से भागते, वहाँ विचरते ढोर ||

    घोडा अकुलाये वहाँ, हिनहिनाय मजबूर |
    जैसे आता जा रहा,  कोई हिंसक क्रूर ||

    गिर-कंदर में गूंजती, रह रह कर आवाज |
    धरती पर मानो गिरे, महाभयंकर गाज ||

    रमण रहा घबराय पर, हिम्मत भरा दिखाय |
    उलटे रास्ते की तरफ, रथ को गया बढ़ाय ||

    घोडा भगा तीव्रतम, रह रह झटके खाय |
    जैसे पीछे हो लगा, इक कोई  अतिकाय ||

    सचमुच इक अतिकाय था, आगे घेरा डाल |
    घोडा ठिठका जोर से, खड़ा सामने काल ||

    रमण बोलते बटुक से, बेटा रथ को हाँक | 
    कन्याओं से फिर कहे, मत बाहर को झाँक ||

    शांता रूपा देखती, परदे की थी ओट |
    आठ हाथ की देह को, खुद से रही नखोट ||

    घिघ्घी दोनों की बंधीं, कसके दालिम -पूत |
    तेजी से रथ हांकता, पहली बार अभूत ||

    याद रमण को आ गया, दालिम का एहसान |
    तीन जान खातिर अड़ा, वह  अदना  इंसान ||

    ध्यान हटाने को रमण,  मारा उसको तीर |
    काया पकडे हाथ से,  देती नख से चीर ||

    बोली मैं हूँ ताड़का, मानव खाना काम |
    पिद्दी सा तू क्या लड़े,  पल में काम तमाम ||
    [tataka+ramayana.jpg]
     देखा उसको रमण जब, महिला का था रूप |
    साफ़-साफ़ अब दिख रही, भद्दी विकट कुरूप ||
     
    घोड़े के संग वीर तब, वापस भागा जान |
    अपने पीछे ले लगा, योद्धा बड़ा सयान ||

    लम्बे लम्बे ताड़का,  दौड़ी रख के पैर |
    अट्ठाहास रह रह करे, मानव की ना खैर ||

    अन्धकार छाया हुवा, गया नदी में कूद |
    रमण मूल पानी बहा, घोड़ा खाई सूद ||

    परम बटुक रथ हाँक के, आया बारह कोस |
    सोम-मित्र  देखे सकल, तब आया था होश ||

    जल्दी से रथ में चढो, तनिक करो न देर |
    राक्षस इक पीछे पड़ा, होवे ना अंधेर ||

    शांता रूपा बोलती, देखी जब वे सोम |
    लाख लाख आभार है, ताके ऊपर व्योम ||

    काका प्यारे झूझते,  देते अपनी जान |
    हमें बचाने के लिए, हुवे वहाँ कुर्बान ||

    गुरुकुल पहुंची शांता, रूपा रमण समेत |
    भय से थर थर कांपती, देखा जिन्दा प्रेत |

    रूपा के  सौन्दर्य  को, ताके  सारे  मित्र |
    सोम ताकता मित्र को, स्थिति बड़ी विचित्र ||

    गुरुकुल से उस रात ही, गुरु गए पहुँचाय |
    काका की करनी कहें, रहे तनिक सकुचाय ||


     यक्ष वंश की ताड़का, उसके पिता सुकेतु |
    कठिन तपस्या से मिली, किया पुत्र के हेतु ||

    असुर राज से व्याह दी, थी ताकत में चूर |
    दैत्य सुमाली से हुवे, संतानें सब  क्रूर ||

    पुत्री केकेसी हुई, रावण केरी माय ||
    मारीच सुबाहु पुत्र दो, पूरा जग घबराय ||

    वही ताड़का थी दिखी, सौजा रही सुनाय |
    पुत्र रमण की मृत्यु पर, रही खूब इतराय ||


    शोक करें किस हेतु हम, हमें गर्व अनुभूत |

    रूपा शांता को बचा, लगे देव का दूत ||


    मेरा प्यारा बटुक भी, छोटा किन्तु महान | 

    अच्छी संगत पाय के, बनता बड़ा सयान || 


    दालिम से सौजा कहे, मत  कर बेटा शोक |
    इसी कार्य के वास्ते, आया था इहलोक ||


    रो रो कर के शांता, रही स्वयं को कोस |

    दुर्घटना में दिख रहा, सारा उसका दोष ||


    रोते धोते बीतते, दुःख के हफ्ते चार |
    घायल काका आ गया, चमत्कार आभार ||

    कूदा पानी में जहाँ, था बहाव अति तेज |
    ढीली काया कर दिया, कर मजबूत करेज ||

    पानी में बहता गया, पूरी काली रात |
    बहुत दूर था आ गया, पीछे छोड़ प्रपात ||

    भूला था मैं रास्ता, रहा भटकता देख |
    इक सन्यासी थे मिले, माथे चन्दन लेख ||

    दर्शन करने जा रहे, श्रींगेश्वर महदेव | 
    आया उनके संग ही, हुवे सहायक देव || 

    हिम्मत से रहिये डटे, घटे नहीं उत्साह |
    कोशिश चढ़ने की सतत, चाहे दुर्गम राह |
    चाहे दुर्गम राह, चाह से मिले सफलता |
    करो नहीं परवाह,  दिया तूफां में जलता |
    चढ़ते रहो पहाड़, सदा जय माँ जी कहिये |
    दीजै झंडे गाड़, डटे हिम्मत से रहिये ||



    प्यार बूढ़ दिल मोंगरा, अमलताश की आग ।
     लड़की को कर के विदा, चला बुझाय चराग ।।

    सपना अपना चुन लिया, करे नहीं पर यत्न ।

    बिन प्रयत्न कैसे मिले, कोई अद्भुत रत्न । 


     
     

1 comment:

  1. इतिहास की सर्वथा उपेक्षित पात्र को लेकर आपने एक अद्भुत कृति रचा है।

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