भाग-1
कौशिकी-कोसी
सृन्गेश्वर महादेव
भगिनी विश्वामित्र की, सत्यवती था नाम |
षोडश सुन्दर रूपसी, बनी रिचिक की बाम ||
मत्तगयन्द सवैया
नारि सँवार रही घर बार, विभिन्न प्रकार धरा अजमाई ।
कन्यक रूप बुआ भगिनी घरनी ममता बधु सास कहाई ।
सेवत नेह समर्पण से कुल, नित्य नयापन लेकर आई ।
जीवन में अधिकार घटे, करतव्य सदा भरपूर निभाई ।।
दुनिया का पहला हुआ, यह बेमेल विवाह |
करे नहीं बूढ़ा कभी, पत्नी की परवाह ||
वाणी अति वाचाल थी, हुआ शीघ्र बेकाम |
दो वर्षों में चल बसा, बची अकेली बाम ||
सत्यवती पीछे गई, स्वर्ग-लोक के द्वार |
द्वारपाल मिल रोकते, तिरस्कार व्यवहार ।
चंचल तन फिर व्यथित मन, सही नहीं दुत्कार ।
क्रोधित हो कोसी बनी, मचता हाहाकार ||
उच्च हिमालय से उत्तर, करे त्रिविष्टक पार |
अंगदेश की भूमि तक, अति लम्बा विस्तार ||
असंतुष्ट चिरयौवना, सुने नहीं अनुरोध |
जल-प्लावित करती रहे, प्रलयंकारी क्रोध ||
अंगदेश का शोक है, रूप विषद विकराल |
ग्राम सैकड़ों लीलती, काल बजावै गाल ||
धरती पर लाती रही, बड़े गाद भण्डार |
गंगा जी में जा मिले, शिव के चरण पखार ||
इसी भूमि पर हो रहे, अभिनव बड़े प्रयोग |
करें विविन्डक ऋषि यही, धर्म- कर्म उद्योग ||
उन्हें पराविज्ञान का, था अद्भुत अभ्यास |
तंत्र-मन्त्र के वे धनी, करते सफल प्रयास ||
निश्छल सरस विनम्र शुभ, मंद-मंद मुस्कान |
मितभाषी मृदु-छंद है, रविकर हर व्याख्यान ||
रोचक है अभिव्यक्ति कुल, जागे मन विश्वास |
बाल-वृद्ध-युवजन जुड़े, आस छुवे आकाश ||
बड़े दूरदर्शी सजग, ज्योतिष का अभ्यास |
जोखिम से डरते नहीं, नहीं अन्धविश्वास ||
इन्ही विविन्डक ने दिया, था दशरथ को ज्ञान |
तब शांता को था दिया, अंगराज को दान ||
रिस्य विविन्डक का प्रबल, परम प्रतापी पूत |
कुल्लू घाटी में मिलें, जीवित कई सुबूत ||
जेठ मास में आज भी, सजा पालकी दैव |
करते इनकी वंदना, नियमित वैष्णव शैव ||
लकड़ी का मंदिर बना, कलयुग के भगवान् |
श्रृंगी इस्कर्नी बने, जाने सकल जहान |
अट्ठारह करदू हुवे, उनमे से ये एक |
कुल्लू घाटी विचरते, यात्रा करें अनेक ||
हमता डौरा-लांब्ती, रक्ती-सर गढ़-धोल |
डौरा कोठी पञ्च है, मालाना तक डोल ||
छ: सौ तक हैं पालकी, कहें जिन्हें रथ लोग |
सृंगी से आकर मिलें, यदि सूखे का योग ||
मंत्रो पर अद्भुत पकड़, करके वर्षों शोध |
वैज्ञानिक ये श्रेष्ठतम, प्राप्त पिता से बोध ||
एक गुफा सिरमौर है, नाहन के नजदीक |
करे शोध जप तप इधर, पानी बरसे ठीक ||
अब कोसी के कोप को, साधें भोलेनाथ ||
श्रृंगेश्वर की थापना, हो श्रृंगी के हाथ |
सात पोखरों की धरा, सातोखर है नाम |
शोध कार्य होते यहाँ, पुत्र-काम का धाम ||
शांता और रिस्य-सृंग
सोरठा
शांता थी गमगीन, खोकर काका को भली |
मौका मिला हसीन, लौटी चेहरे पर हँसी ||
सबने की तारीफ़, वीर रमण के दाँव की |
सही बड़ी तकलीफ, मगर बचाये जान कुल ||
राजा रानी आय, हालचाल लेकर गए |
करके सफल उपाय, वैद्य चिकित्सा शुभ करें ||
हुआ रमण का व्याह, नई नवेली ब्याहता |
पूरी होती चाह, मिला एक आवास शुभ ||
नीति-नियम से युक्त, जिये जिन्दगी धीर धर |
हंसे ठठा उन्मुक्त, परहितकारी कर्म शुभ ||
रहते दोनों भाय, माता बच्चे साथ में |
ख़ुशी चतुर्दिक छाय, पाले जग की परंपरा ||
मनसा रहा बनाय, रमण एक सप्ताह से |
श्रृंगेश्वर को जाय, खोजे रहबर साधु को ||
शांता जानी बात, रूपा संग तैयार हो |
माँ को नहीं सुहात, कौला सौजा भी चलीं ||
दो रथ को ले साज, घोड़े भी संग में चले |
शांता रही विराज, बैठी साड़ी नारियां ||
रही सोम को देख, चंपा बेटे से मिलीं |
मूंछों की आरेख, सजती बेटे की भली ||
बेटा भी तैयार, महादेव के दर्श हित |
होता अश्व सवार, सुबह सुबह निकले सभी ||
नौकर-चाकर भेज, राशन पानी साथ ले |
इंतजाम में तेज, सभी जरूरत पूरते ||
पहुंचे संध्या काल, सृन्गेश्वर को नमन कर |
डेरा देते डाल, अगले दिन दर्शन करें ||
दोहा
अंगदेश का क्षेत्र यह, दुनिया भर में नाम |
आठ वर्ष के बाद फिर, शांता करे प्रणाम ||
धुंधली धुंधली सी दिखे, बचपन की तस्वीर ।
रूपा की शैतानियाँ, शीश-सृंग की पीर ।।
सोरठा
करते सुबह नहान, सप्त-पोखरों में सभी |
पूजक का सम्मान, पहला शांता को मिला ||
कमर बांध तलवार, बटुक परम भी था खड़ा |
सृंगी मन्दिर द्वार, लगा इन्हें हुस्कारने ||
रूपा शांता संग, गप्पें सीढ़ी पर करे |
हुई देखकर दंग, रिस्य सृंग को सामने ||
तरुण ऊर्जा-स्रोत्र, वल्कल शोभित हो रहा |
अग्नि जले ज्यों होत्र, पावन समिधा सी हुई ||
गई शांता झेंप, चितवन चंचल फिर चढ़ी |
मस्तक चन्दन लेप, शीतलता महसूस की ||
बारम्बार प्रणाम, रूपा बोली हृदय से |
शांता इनका नाम, राजकुमारी अंग की ||
हाथ जोड़कर ठाढ़, हुई शांता फिर मगन |
वैचारिक यह बाढ़, वापस भागी शिविर में ||
पूजा लम्बी होय, रानी चंपा की इधर |
शिव को रही भिगोय, बेल पत्र धर दूध से ||
रमण रहे थे खोज, मिले नहीं वे साधु जी |
था दुपहर में भोज, विविन्डक आये शिविर ||
गया चरण में लोट, रमण देखते ही उन्हें |
मिटते उसके खोट, जैसे घूमें स्वर्ग में ||
बोला सबने ॐ, भोजन की पंगत सजी |
साथ बैठता सोम, पूज्य विविन्डक के निकट ||
संध्या सारे जाँय, कोसी की पूजा करें |
शांता रही घुमाय, रूपा को ले साथ में ||
अति सुन्दर उद्यान, रंग-विरंगे पुष्प हैं |
सृंगी से अनजान, चर्चा करने लग पड़ीं ||
कुण्डली
मन भावे का भाव है, जैसे भावे भाग |
तरह तरह के प्रेम हैं, अपना अपना राग |
अपना अपना राग, वस्तु वस्तुत: नदारद |
पर बाकी सहभाग, पार कर जाए सरहद |
जड़ चेतन अवलोक, कहीं आलौकिक पावे |
लुटा रहे अविराम, लूट जैसे मन भावे |
लगते राजकुमार, सन्यासी बन कर रहें ||
करके देख विचार, दाढ़ी लगती है बुरी ||
खट-पट करे खिडांव, देख सामने हैं खड़े |
छोड़-छाड़ वह ठाँव, रूपा सरपट भागती ||
शांता चर्चा छोड़, असमंजस में है पड़ी |
जिभ्या चुप्पी तोड़, कह प्रणाम चुप हो गई ||
वह सृंगी पहचान , ऋष्य-राज का पुत्र हूँ |
करता अनुसंधान, गुणसूत्रों के योग पर ||
मन्त्रों का व्यवहार, जगह जगह बदला करे |
सब वेदों का सार, पुस्तक में संग्रह करूँ ||
पिता बड़े विद्वान, मिले विरासत में मुझे |
उनके अनुसंधान, जिम्मेदारी ली उठा ||
कर शरीर का ख्याल, अगर सवारूँ रातदिन |
पूरे कौन सवाल, उत्तर बिन कब से पड़े ||
बदल गई झट सोच, ऋष्य सृंग की बात से |
बाहें रही मरोड़, हाथ जोड़ कर ताकती ||
रूपा लौटी देख, बढ़े सृंग आश्रम गए |
अपनी जीवन रेख, शांता देखे ध्यान से ||
लौट शिविर में आय, अपने बिस्तर पर पड़ी |
कर कोशिश विसराय, सृंगी मुख भूले नहीं ||
सर्ग-4
भाग-2
शांता का सन्देश
सृन्गेश्वर से आय के, हुई जरा चैतन्य |
विषय छोड़ती शांता, लगी सोचने अन्य ||
रिश्तों की पूंजी बड़ी , हर-पल संयम वर्त |
पूर्ण-वृत्त पेटक रखे, सच्चा सुख संवर्त ||
सोम हुवे युवराज जब, उसको आया ख्याल ||
बिना पुत्र के है बुरा, अवध राज का हाल ||
गुरु वशिष्ठ को भेजती, अपना इक सन्देश |
तीव्रगति से पहुँचता, शांता दूत विशेष ||
रिस्य सृंग के शोध का, था उसमें उल्लेख |
गुरु वशिष्ठ हर्षित हुए, विषयवस्तु को देख ||
चिन्तित दशरथ को बुला, हरते पीर वशिष्ठ ||
विषय जान हर्षित हुवे, कार्य करें निर्दिष्ट ||
तैयारी पूरी हुई, रथ को रहे उड़ाय |
ऋष्य सृंग के सामने, झोली दें फैलाय ||
हमको ऋषिवर दीजिये, अपना शुभ आशीष |
चरणों में धर लोटते, भूपति अपना शीश ||
राजन धीरज धारिये, काहे होत अधीर |
सृन्गेश्वर को पूजिये, वही हरेंगे पीर ||
मैं तो साधक मात्र हूँ, शंकर ही हैं सिद्ध |
दोनों हाथों से पकड़, बोले उठिए वृद्ध ||
सात दिनों तक मैं करूँ, विधिवत पूरी जाँच |
सृन्गेश्वर में तब तलक, शिव पुराण लो बाँच ||
सात दिनों का तप प्रबल, औषधिमय खाद्यान |
दशरथ पाते पुष्टता, मिटे सकल व्यवधान ||
फिर सूची लम्बी बना, सृंगी देते सौंप ||
बुड्ढे तन में तब दिखी, तरुणाई सी चौप ||
कुछ प्रायोगिक कार्य हैं, कोसी की भी बाढ़ |
कर प्रबंध राजन रखो, आऊं माह असाढ़||
ख़ुशी-ख़ुशी दशरथ गए, रौनक रही बताय |
देरी के कारण उधर, रानी मन अकुलाय ||
अवधपुरी के पूर्व में, आठ कोस पर एक |
बहुत बड़े भू-खंड पर, खटते श्रमिक अनेक ||
पावन मठ-मंदिर बना, पोखर बना विशेष |
हवन कुंड मंडप सजा, बटुरा अवध प्रदेश ||
थी अषाढ़ की पूर्णिमा, पुत्र-काम का यज्ञ |
सुमिर गजानन को करें, रिस्य सृंग से विज्ञ ||
शांता भी आई वहां, रही व्यवस्था देख |
फुर्सत में थी बाँचती, सृंगी के अभिलेख ||
समझ न पाए भाष्य जब, बिषय-वस्तु गंभीर |
फुर्सत मिलते ही मिलें, सृंगी सरयू तीर ||
प्रेम प्रस्फुटित कब हुआ, नहीं जानते सृंग |
भटके सरयू तीर पर, प्रेम-पुष्प पर भृंग ||
कई दिनों तक यज्ञ में, रहे व्यस्त सब लोग |
नए चन्द्र दर्शन हुए, आया फिर संयोग ||
पूर्णाहुति के बाद में, अग्नि देवता आय |
कर-कमलों से भूप को, देते खीर थमाय ||
दशरथ ग्रहण कर रहे, प्रकट करें आभार |
आसमान में देवता, करते जय जयकार ||
कौशल्या करती ग्रहण, आधी पावन खीर |
कैकेयी भी ले रही, होकर बड़ी अधीर ||
दोनों रानी सौंपती, आधा आधा भाग |
रहा सुमित्रा से उन्हें, अमिय प्रेम अनुराग ||
चैत्र शुक्ल की नवम तिथि, प्रगट हुवे श्री राम |
अवधपुरी पावन हुई, नगरबना सुखधाम ||
गोत्र दोष को काटते, रिस्य सृंग के मन्त्र |
कौशल्या सुदृढ़ करे, अपना रक्षा तंत्र ||
कैकेयी के भरत भे, हुई मंथरा मग्न |
हुवे सुमित्रा के युगल, लखन और शत्रुघ्न ||
लंका में रावण उधर, जीत विश्व बरबंड |
मानव को जोड़े नहीं, बाढ़ता गया घमंड ||
जित यक्ष गन्धर्व को, रावण हुआ मदांध |
स्वर्ग जीत के टाँगता, यम को उल्टा बाँध ||
नर-वानर बूझे नहीं, माने कीट पतंग |
अनदेखी करने लगा, हुआ विश्व बदरंग ||
अंग अंग लेकर इधर, गई शांता अंग |
दशा विकट रिस्य सृंग की, पड़ी शोध में भंग ||
सर्ग-4
भाग-3
कन्या पाठशाला
अंगराज के स्वास्थ्य को, ढीला-ढाला पाय |
चम्पारानी की ख़ुशी, सारी गई बिलाय ||
शिक्षा पूरी कर चुके, अपने राजकुमार |
अस्त्र-शस्त्र सब शास्त्र में, पाया ज्ञान अपार ||
नीति-रीति सब विधि कुशल, वय अट्ठारह साल |
राजा बोले सोम से, पद युवराज सँभाल ||
हामी भरते ही हुआ, जयकारा चहुँओर ।
निश्चित तिथि पर हो जमा , सबसे बड़ी बटोर ।
शांता आगे बढ़ करे, सारे मंगल कार्य |
बटुक परम करता मदद, सेवे कुल आचार्य ||
तीन दिनों तक महल में, चहल पहल का दौर ।
हर्षित राजा रोमपद, हुवे सोम सिरमौर ।।
गुरुजन के सानिध्य में, हुआ बटुक को बोध |
दीदी से कहने लगा, दूर करें अवरोध ||
प्रारम्भिक शिक्षा हुई, थी शांता के संग |
समुचित शिक्षा के बिना, मानव रहे अपंग ||
सुनकर के अच्छा लगा, देती आशिर्वाद |
सृन्गेश्वर भेजूं तुझे, चार दिनों के बाद ||
आया उसको ख्याल शुभ, रखी बाँध के गाँठ |
कन्याशाला से बढ़ें, अंगदेश के ठाठ ||
सोम बने युवराज तो, आया श्रावण मास |
सूत्र बाँधती भ्रात को, बहनों का दिन ख़ास ||
आई श्रावण पूर्णिमा, सूत्र बटुक को बाँध |
गई सोम को बाँधने, मन में निश्चित साँध ||
राज महल में यह प्रथम, रक्षा बंधन पर्व |
सोम बने युवराज हैं, होय बहन को गर्व ||
चम्पारानी थी खड़ी, ले आँखों में प्यार |
शांता अपने भ्रातृ की, आरति रही उतार ||
रक्षा-धागा बाँध के, शांता बोली भाय |
मोती-माणिक राखिये, यह सब नहीं सुहाय ||
दीदी खातिर क्या करूँ, पूँछें जब युवराज |
कन्या-शाला दीजिये, सिद्ध कीजिये काज ||
भाई ने हामी भरी, शीघ्र खुलेगा केंद्र |
नया खेल लेकिन शुरू, कर देते देवेंद्र ||
त्राहि-त्राहि करती प्रजा, पड़ता विकट अकाल |
खेत धान के सूखते, करते खड़े सवाल ||
गौशाला में आ रहा, बेबस गोधन खूब |
पानी जो बरसा नहीं, जाए जन मन ऊब ||
सूखे के आसार हैं, बही नहीं जलधार ।
हैं अषाढ़ सावन गए, भादौं होता पार ।।
दूर दूर से आ रही, जनता मय परिवार |
गंगाजी के नीर पर, पड़ता भारी भार |
छोड़े अपने बैल सब, गौ भेजें गौशाल |
जोहर पोखर सूखते, बाढ़ा बड़ा बवाल ||
शिविरों में संख्या बढ़ी, होता खाली कोष |
कन्या शाला के लिए, मत दे बहना दोष ||
इतने में दालिम दिखा, बोला जय युवराज |
मंत्री-परिषद् बैठती, कुछ आवश्यक काज ||
पढ़ चेहरे के भाव को, दालिम समझा बात ||
शांता बिटिया है दुखी, दुखी दीखती मात ||
दालिम से कहने लगी, परम बटुक की चाह |
पढने की इच्छा प्रबल, दीजे तनिक सलाह ||
जोड़-घटाना जानता, जाने वह इतिहास |
वह भी तो सेवक बने, मात-पिता जब दास ||
लगी कलेजे में यही, उतरी गहरे जाय |
सोच नहीं उत्कर्ष की, कैसे वह समझाय ||
संदेसा पाई तभी, शांता ख़ुशी अपार |
कन्याशाला के लिए, मिलते कमरे चार |
माता को लेकर मिली, गई पिता के कक्ष |
अपनी इच्छा को रखा, अपने पिता समक्ष ||
सैद्धांतिक सहमति मिली, सौ पण का अनुदान |
कन्या शाळा खुल गयी, शुरू नारि उत्थान ||
दूर दूर के कारवाँ, उनके सँग परिवार ||
रूपा शांता साथ में, करने गई प्रचार ||
विधाता छंद
समस्याग्रस्त दुनिया की, समस्या जो बढ़ाते हैं।
यहीं फिलहाल ठहरो तुम, अभी उनसे मिलाते हैं।
जहाँ कुछ मूढ़ रविकर से, बने अति-आत्मविश्वासी
वहीं विद्वान शंका में, हमेशा मार खाते हैं।।
विधाता छंद
समस्याग्रस्त दुनिया की, समस्या जो बढ़ाते हैं।
यहीं फिलहाल ठहरो तुम, अभी उनसे मिलाते हैं।
जहाँ कुछ मूढ़ रविकर से, बने अति-आत्मविश्वासी
वहीं विद्वान शंका में, हमेशा मार खाते हैं।।
रुढ़िवादियों ने वहाँ, पूरा किया विरोध |
कई प्रेम से मिल रहे, कहीं दिखे अति क्षोभ ||
घर में खाने को नहीं, भटक रहे हो तीर |
जाने कब दुर्भिक्ष में, छोड़े जान शरीर ||
नौ तक की कन्या यहाँ, छोड़ो मेरे पास |
भोज कराउंगी उन्हें, पूरे ग्यारह मास ||
इंद्र-देवता जब करें, खुश हो के बरसात |
तब कन्या ले जाइए, मान लीजिये बात ||
गृहस्वामी सब एक से, जोड़-गाँठ में दक्ष |
मिले आर्थिक लाभ तो, समझें सम्मुख पक्ष ||
धरम-भीरु होते कई, कई देखते स्वार्थ |
जर जमीन जोरू सकल, इच्छित मिलें पदार्थ ||
चतुर सयानी ये सखी, मीठा मीठा बोल |
कन्यायें तेरह जमा, देती शाला खोल ||
एक कक्ष में दरी थी, उस पर चादर डाल |
तेरह बिस्तर की जगह, पंद्रह की तैयार ||
कक्ष दूसरा बन गया, फिर भोजन भंडार |
कार्यालय तीजा बना, कक्षा बनता चार ||
जिम्मेदारी भोज की, कौला रही उठाय |
सौजा दादी बन गई, बच्चों की प्रिय धाय ||
शांता पहली शिक्षिका, रूपा का सहयोग |
तख्ती खड़िया बँट गई, जमा हुवे कुछ लोग ||
रानी माँ आकर करें, शाळा शुभ-आरम्भ |
पर आड़े आता रहा, कुछ पुरुषों का दम्भ ||
नित्य कर्म करवा रहीं, सौजा रूपा साथ |
आई रमणी रमण की, बंटा रही खुद हाथ ||
पहले दिन की प्रार्थना, सादर शारद केर |
एकदन्त की विनय से, कटते बाधा-फेर ||
स्वस्थ बदन ही सह सके, सांसारिक सब भार |
बुद्धि सदा निर्मल रहे, बढ़े सकल परिवार ||
रूपा के व्यायाम से, बच्चे थक के चूर ||
शुद्ध दूध मिलता उन्हें, घुघनी भी भरपूर ||
पहली कक्षा में करें, बच्चे कुछ अभ्यास ||
गोला रोटी सा करे, रेखा जैसे बांस ||
एक घरी अभ्यास कर, गिनती सीखे जाय ||
दस तक की गिनती गिनें, रूपा रही बताय ||
सृजन-शीलता दे जला, तन-मन के खलु व्याधि ।
बुरे बुराई दूर हों, आधि होय झट आधि ।।
सृंगी के अभिलेख से, सीखी थी इक बात |
पारेन्द्रिय अभ्यास से, हुई स्वयं निष्णात ||
दोपहर में छुट्टी हुई, पंगत सभी लगाय |
हाथ-पैर मुंह धोय के, दाल-भात सब खाय ||
एक एक केला मिला, करते सब विश्राम |
कार्यालय में आय के, करे शांता काम ||
खेलों की सूची दिया, रूपा को समझाय |
दो घंटे का खेल हो, संध्या इन्हें जगाय ||
गौशाला से दूध का, भरके पात्र मंगाय |
संध्या में कर वंदना, रोटी खीर जिमाय ||
सौजा दादी से कही, एक कहानी रोज |
बच्चों को बतलाइये, रखिये दिन में खोज ||
राज-महल में शांता, बैठी ध्यान लगाय |
पावन मन्त्रों को जपे, दूरानुभूति सुहाय ||
सृंगी के मस्तिष्क की, मिलती इन्हें तरंग ||
वार्ता होने लग पड़ी, रोमांचित हर अंग ||
सादर करे प्रणाम फिर, पूछी कुल कुशलात ||
अंगदेश के बोलती, अपने सब हालात |
मिलता जब आशीष तो, जाय नेह में डूब |
बटुक परम भेजूं वहाँ, पढ़ना चाहे खूब ||
करें रिस्य स्वीकार तो, करती पुनि अनुरोध |
एक शिक्षिका भेजिए, देवे कन्या-बोध ||
माता खट-खट कर रहीं, ये बातों में लीन |
टूटा जो संपर्क तो, तड़पी जल बिन मीन ||
दालिम को जाकर मिली, अगले दिन समझाय |
परम बटुक गुरुकुल चले, होता सफल उपाय ||
वय है चौदह वर्ष की, पढने में था तेज |
आगे शिक्षा के लिए, रही शांता भेज ||
प्रीति नहीं हो भय बिना, नहीं दंड बिन नीति ।
शिक्षा गुरुवर बिन नहीं, सद-गुण बिना प्रतीति ।
इक हफ्ते में आ गई, माँ सा लेकर रूप |
कर्म शिक्षिका कर रही, शाळा के अनुरूप ||
सुंदरी सवैया
बहिना इतिहास पुनीत बना, खुलवाय दिया कनिया पठशाला ।
पढना गढ़ना हल सीख रही, अब उद्यत उन्नति को हर बाला ।
अपने पर निर्भर हो बिटिया, शुभ मंगल मंगल मानस माला ।
ललनी ममतामय शिक्षण से, अपना घरबार सदैव सँभाला ।।
सर्ग-4
भाग-4
अंग-देश में अकाल
बिटिया वेद पुराण में, रही पूर्णत: दक्ष |
शिल्प-कला में भी निपुण, मंत्री के समकक्ष ||
उपवन में बैठी करें, राजा संग विचार |
अंगदेश की किस तरह, महिमा बढ़े अपार ||
चर्चा में दोनों हुए, पूर्णतया तल्लीन |
प्रजा रहे सुख शान्ति से, धरती कष्ट विहीन ||
अंग भूमि से दूर हो, असुरों का संत्रास |
दूर भूख भय से रहे, करने उचित प्रयास ||
इसी बीच पहुँचे हुवे, पहुँचे विप्र महान |
अपने आश्रम के लिए, लेने कृषि सामान ||
अनदेखी राजा करे, क्रोधित कहते साधु |
घोर उपेक्षा तू करे, है अक्षम्य अपराधु ||
हरे-भरे इस राज्य में, होय नहीं बरसात |
शापित करके चल पड़े, किया विकट आघात ||
जाते देखा विप्र को, दूर हुआ अज्ञान |
क्षमा क्षमा भूपति कहें, नष्ट हुआ अभिमान ||
भादों की बरसात भी, ठेंगा गई दिखाय |
ताल तलैया सूखते, धरती फट फट जाय ||
झाड़ हुए झंखाड़ सब, बची पेड़ की ठूठ |
कृषक बिचारा क्या करे, छूटी हल की मूठ ||
खाने को लाले पड़े, कंठ सूखते जाँय |
खिचड़ी दोने में बटे, गंगा माय सहाय ||
जीव जंतु अकुला रहे, तड़पें छोड़ें प्राण |
त्राहि-त्राहि त्रासक त्रिशुच, त्रायमाण त्रुटि त्राण ||
अंगदेश की अति-विकट, कड़ी परीक्षा होय |
नगर सेठ मंत्री यती, निज कर्तव्य सँजोय ||
शाला में हर दिन बढ़ें, कन्याएं दो-चार |
चार कक्ष करने पड़े, जल्दी ही तैयार ||
शांता ने अपना दिया, सारा कोष लुटाय |
सचमुच सन्यासिन बनी, कन्या रही पढ़ाय ||
भीषण गर्मी से हुई, कुछ बाला बीमार |
औषधि बांटे चिकित्सक, रूपा शांता प्यार ||
कौला हर दिन शाम को, कहती कथा बुझाय |
तरह तरह के स्वांग से, रहती मन बहलाय ||
कभी कभी बादल घिरें, गरजे खुब चिग्घाड़ |
बरसें दूजे देश में, जाँय कलेजा फाड़ ||
अनुष्ठान जप तप करें, पर ईश्वर प्रतिकूल |
ऊपर उड़ते गिद्ध-गण, नीचे उड़ती धूल ||
धीरे धीरे कम हुआ, सूरज का संताप |
मार्गशीर्ष की शीत से, रहे लोग अब काँप ||
कैकय का गेंहूँ वणिक, बेचें ऊंचे दाम |
अवधराज बँटवा रहे, अपना धान तमाम ||
अंगदेश पर जो पड़ी, यह दुर्भिक्षी मार |
आगामी गर्मी भला, कैसे होगी पार ??
लोग पलायन कर रहे, राजा हैं मजबूर |
बड़े मनीषी हैं जमा, सृन्गेश्वर में दूर ||
किया आकलन काल का, ढूंढा सहज उपाय |
रिस्य सृंग का ब्याह शुभ, शांता से हो जाय ||
लेकर इस सन्देश को, परम बटुक हैं जात |
साधू दुल्हा सोच के, माँ चम्पा अकुलात ||
मत्तगयन्द सवैया
सृंग सजे सिर ऊपर जो जननी तनु-प्राण विदारत देखा |
अंग जले जल सूख घरे हर ओर पुकारत आरत देखा |
देख मुसीबत में परजा ममता बिटिया प्रिय वारत देखा |
साधु वरे सुकुमारि धिया घबराकर माँ मन मारत देखा |
शाला आये सोमपद, रूपा से टकराय |
सुन्दरता घायल करे, हलचल सी मच जाय ||
कार्यालय में जा जमे, दीदी पहुंची जाय |
विषम परिस्थिति पर वहां, आपस में बतियाय ||
सावन फिर खाली गया, हुई नहीं बरसात |
दीदी की आज्ञा मिले, आये तभी बरात ||
भाई मेरी शर्त दो, पूरी करिए आप |
कहीं नहीं आपत्ति है, मिटे विकट संताप ||
शाळा का इक भवन हो, मिले बड़ा अनुदान |
संरक्षक बन तुम रहो, हो नारी कल्याण ||
तन मन धन जीवन करूँ, दीदी तेरे नाम |
शर्त दूसरी भी कहो, निपटाने हैं काम ||
रूपा लेकर आ गई, पानी के दो पात्र |
चेहरे पर थी विद्वता, थी शांता की छात्र ||
शांता बोली फिर कभी, रख दूंगी यह बात |
आगे काम बढ़ाइए, ताकि होय बरसात ||
शांता बाहर ज्यों गई, पड़ी सोम की दृष्ट |
मित्र-मण्डली सच कहे, रूपा है उत्कृष्ट ||
कैसी शाळा चल रही, कितने कक्षा वर्ग |
रूपा की बोली मधुर, बतलाई हर सर्ग ||
जाते हैं युवराज तो, उनको करे प्रणाम |
निपटाने रूपा लगी, एक-एक फिर काम ||
बटुक परम के पास जा, शांता पूछे हाल |
आश्रम में रखते सभी, उसका बेहद ख्याल ||
गुरुवर दीदी के लिए, भेजे यह रुद्राक्ष |
रूपा सुनके यह खबर, करती व्यंग-कटाक्ष ||
हँसी हँसी में कह गई, बातें रूपा गूढ़ |
शांता खोई याद में, लगे पुरनिया-बूढ़ ||
संदेशा भेजें अवध, अवधि हो रही पार |
मात-पिता निश्चित करें, शुभ-विवाह का वार ||
परम बटुक के साथ में, गए सोम युवराज |
रिस्य बिबिंडक की शरण, सिद्ध होंय सब काज ||
लग्न-पत्रिका सौंपते, कर पूजा अरदास |
सादर आमंत्रित करें, उल्लेखित दिन ख़ास ||
परम बटुक मिलने गया, रिस्य सृंग के कक्ष |
किया दंडवत प्रेम से, रखे अंग का पक्ष ||
गुरुवर ! दीदी भेजती, इक मुट्ठी यह धान |
मूक रहीं थी उस समय, अधरों पर मुस्कान ||
लेकर दोनों हाथ से, कहते माथ लगाय |
सुन्दर क्यारी साजिए, पौधा रखूँ बनाय ||
सर्ग-4
भाग-5
वार्षिक-उत्सव
स्त्री-शिक्षा पर लिखा, सृंगी का इक लेख |
परेंद्रीय संज्ञान से, रही शांता देख ||
चाहे तारे तोड़ना, नहीं दीखती राह ।
रख चौकी पैरों तले, साहस बढ़े अथाह ।।
ध्यान-मग्न होकर करे, सृंगी से वह बात |
पर-निर्भरता नारि की, करे सदा ही घात ||
नव महिने में जो भरे, मानव तन में प्राण |
ग्यारह में फिर क्यों नहीं , कर ले निज-निर्माण ||
मेहनत अपनी जाँचिये, कह सृंगी समझाय |
कन्याओं को देखिये, झट उत्तर मिल जाय ||
व्यय पूरा कैसे पड़े, सबकुछ तो प्रतिकूल |
शांता की चिंता बढ़ी, सच्चे सरल उसूल ||
सावन में पूरे हुए, पहले ग्यारह मास |
बालाओं के लिए थे, ये अलबेले ख़ास ||
कन्याएं साक्षर हुईं, लिख लेती निज नाम |
फल-फूलों के चित्र से, खेलें वे अविराम ||
ग्यारह महिने में पढ़ीं दो वर्षों का पाठ |
तीन पांच भी बूझती, बारह पंजे साठ ||
करने में सक्षम हुईं, अपने जोड़ -घटाव |
दिन बीते कुल तीन सौ, पाई नया पड़ाव ||
आई श्रावण पूर्णिमा, राखी हैं तैयार |
सूत कात के रुई से, ताक रही हैं द्वार ||
मात-पिता के साथ में, भाई कुल दो-चार |
सब कन्याएं लें मना, राखी का त्योहार ||
स्नेह-सूत्र को बाँध के, बालाएं अकुलायं |
बापू उनको फिर कहीं, वापस लेकर जाँय ||
दो कन्याएं रो रहीं, मिला नहीं परिवार |
कैसे हैं माता-पिता, कैसे गए विसार ??
पता किया जब हाल तो, मिला दुखद सन्देश |
दक्षिण दिश को थे गए, असुरों के परदेश ||
आंसू आंशुक-जल सरिस, हरे व्यथा तन व्याधि ।
समय समय पर ले निकल, आधा करते *आधि । |
लाचारी में जिंदगी, कल बढ़िया था दौर |
समय बदलता जा रहा, कुछ बदलेगा और |
शांता अब देने लगी, उनपर वेशी ध्यान |
कैसे भी पूरे करूँ, इनके सब अरमान ||
अपने गहने भी किये, इस शाळा को भेंट |
दो कपड़ों में रह रही, खुद को रही समेट ||
बारह बाला घर गईं, थी जो दस से पार |
कर के सब की वंदना, देकर के उपहार ||
नीति नियम रक्खी बना, दस तक शिक्षा देत |
कथा जुबानी दे सिखा, प्रति अधिकार सचेत ||
दस की बाला को सिखा, निज शरीर के भेद |
साफ़ सफाई अहम् है, काया स्वच्छ सुफेद ||
वाणी मीठी हो सदा, हरदम रहे सचेत |
चंडी बन कर मारती, दुर्जन-राक्षस प्रेत ||
जाने वह अच्छी तरह, सद-स्नेहिल स्पर्श |
गन्दी नजरें भापती, भूले न आदर्श ||
सालाना जलसा हुआ, आये अंग-नरेश |
प्रस्तुतियां सुन्दर करें, भाँति-भाँति धर भेस ||
इक नाटक में था दिखा, निपटें कस दुर्भिक्ष |
तालाबों की महत्ता, रोप-रोप के वृक्ष ||
जब अकाल को झेलता, अपना सारा देश |
कालाबाजारी विकट, पहुंचाती है ठेस ||
बर्बादी खाद्यान की, ध्यान लगाकर रोक |
जल को अमृत जानिये, बोले कन्या श्लोक ||
गुरुकुल के आचार्य का, प्रस्तुत है उद्बोध ||
नारी शिक्षा पर रखें, अपने शाश्वत शोध ||
दस शिक्षक के तुल्य है, इक आचार्य महान |
सौ आचार्यों से बड़ा, पिता तुम्हारा जान ||
लेकिन गुना हजार है, रविकर माँ का ज्ञान |
शिक्षा शाश्वत सर्वथा, सर्वोत्तम वरदान ||
गार्गी मैत्रेयी सरिस, आचार्या कहलांय |
गुरु पत्नी आचार्यिनी, कही सदा ही जाँय ||
कात्यायन की वर्तिका, में सीधा उल्लेख |
महिला लिखती व्याकरण, श्रेष्ठ प्रभावी लेख ||
महिला शिक्षा पर करे, जो भी खड़े सवाल |
पढ़े पतंजलि-ग्रन्थ जब, मिटे ग्रंथि जंजाल ||
शांता जी ने है किया, बड़ा अनोखा कार्य |
शुभाशीष शुभ-कामना, दे उनका आचार्य ||
भेजूंगा कल पाठ्यक्रम, पांच साल का ज्ञान |
तीन वर्ष में ये करें, कन्या गुण की खान ||
अब राजा अनुदान को, चार गुना कर जाँय |
शांता सन्यासिन बनी, जीवन रही बिताय ||
शाळा की चिंता लिए, साधे दूरानिभूति |
सृंगी से पाने लगी, तरह तरह की सूक्ति ||
दफनाती सारे सपन, सरल समस्या-पूर्ति ।
त्याग प्रेम बलिदान की, नारी सच प्रतिमूर्ति ।
सेहत से हत-भाग्य सखी, सितकारत सेवत स्वामि सदा |
कीमत सेंदुर की मत पूछ, चुकावत किन्तु न होय अदा |
रंग-गुलाल उड़ावत लोग, उड़ावत रंग बढ़े विपदा |
लालक लाल लली लहरी लखिमी कय किस्मत काह बदा ??
सेहत से हत-भाग्य सखी, सितकारत सेवत स्वामि सदा |
कीमत सेंदुर की मत पूछ, चुकावत किन्तु न होय अदा |
रंग-गुलाल उड़ावत लोग, उड़ावत रंग बढ़े विपदा |
लालक लाल लली लहरी लखिमी कय किस्मत काह बदा ??
विस्तृत चर्चा हो गई, एक पाख ही हाथ |
छूटेगा सचमुच सकल, कन्याओं का साथ ||
करे व्यवस्था रोज ही, सुदृढ़ अति मजबूत |
सृन्गेश्वर की शिक्षिका, पाती शक्ति अकूत ||
आचार्या बनकर प्रमुख, लिया व्यवस्था हाथ |
सौजा कौला साथ में, रूपा का भी साथ ||
आत्रेयी ब्रह्म-वादिनी, करे अग्नि शुभ होत्र |
बालाओं की बन रही, संस्कार की स्रोत्र ||
साध्यवधू शांता करे, सृन्गेश्वर का ध्यान |
सखियों के सहयोग से, कार्य हुए आसान ||
सर्ग-4
भाग-6
शांता-सृंगी विवाह
इन्तजार इस व्याह का, करते राजा-रंक |
अति लम्बे दुर्भिक्ष का, झेला दारुण-डंक ||
इन्तजार की इन्तिहा, इम्तिहान इतराय ।
गरह कटे अब तो सही, विरह सही नहिं जाय ।।
वरुण देव करते रहे, मिटटी महा पलीद |
रिस्य रिसर्चर सृंग से, जागी अब उम्मीद ||
शांता के सद्कर्म से, होवे जग कल्याण |
तड़प-तड़प जीते रहे, बच जायें जो प्राण ||
रीति-कर्म होने लगे, संस्कार व्यवहार |
पाणिग्रहण के निमित्त अब, जुटती भीड़ अपार ||
भंडारे में आ रहे, दूर दूर से लोग |
पांच दिनों से खा रहे, सारे नियमित भोग ||
सृन्गेश्वर में सज गई, शंकर सी बारात |
परम बटुक लेकर चला, वर्षा की सौगात ||
दूल्हे संग इक पोटली, रही बगल में साज |
तरह तरह के साज से, गुंजित मधु-आवाज ||
दस बारह दिन से यहाँ, गरजें बादल खूब |
बेमतलब के नाट्य से, रही शांता ऊब ||
गरज हमारी देख के, गरज-गरज घन खूब ।
बिन बरसे वापस हुवे, धमा-चौकड़ी ऊब ।।
जैसे चंपा नगर में, दूल्हा करे प्रवेश |
भूरे बादल छा गए, पाए ज्यूँ आदेश ||
सादर अगवानी करे, राजा राजकुमार |
विविन्डक ऋषि का सभी, प्रकट करें आभार ||
होय मंगलाचार इत, उत पानी बुंदियाय |
दादुर टर-टर बोलते, जीव-जंतु हर्षाय ||
रचना ईश्वर ने रची, तन मन मति अति-भिन्न |
प्राकृत के विपरीत यदि, करे खिन्न खुद खिन्न |
इधर बराती चापते, छक के छप्पन भोग |
परम बटुक ढूंढे उधर, अच्छा एक सुयोग ||
साधारण से वेश में, पीयर धोती पाय |
धीरे धीरे शांता, बैठी मंडप आय ||
दृष्टि-भेद से उपजते, अपने अपने राम |
सत्य एक शाश्वत सही, वो ही है सुखधाम ।।
जमे पुरोहित उभय पक्ष, सुन्दर लग्न विचार |
गठबंधन करके भये, फेरे को तैयार ||
पहले फेरे के वचन, पालन-पोषण खाद्य |
संगच्छध्वम मंत्रिता, मंगल-मंजुल वाद्य ||
संभृत स्वस्थ समृद्धता, त्रि-आयामी स्वास्थ |
भौतिक तन अध्यात्म मन, मिले मानसिक आथ ||
धन-दौलत संसृष्टि शक्ति, ख़ुशी कदाचित दर्द |
भोगे मिलकर संग में, दोनों औरत-मर्द ||
इक दूजे का नित करें, आदर प्रति-सम्मान |
परिवारों के प्रति रहे, इज्जत एक समान ||
सुन्दर योग्य बलिष्ठ हो, कीर्तियुक्त संतान |
कहें पाँचवा वचन सुन, बुद्धिमान इंसान ||
शान्ति-दीर्घ जीवन मिले, नहिं भूलें परमार्थ |
सिद्ध सदा करते रहें, इक दूजे के स्वार्थ ||
रहे भरोसा परस्पर, समझदार-साहचर्य |
प्रेमपुजारी बन रहें, बने रहें आदर्य ||
सातों वचनों को करें, दोनों अंगीकार |
बारिश की लगती झड़ी, होय मूसलाधार ||
वर्षा होती एक सी, उर्वर लेती सोख |
ऊसर सर सर दे बहा, रहती बंजर कोख |
तीन दिनों तक अनवरत, भारी वर्षा होय |
घुप्प अँधेरा छा रहा, धरती धरे भिगोय ||
किच-किच होता महल में, लगे ऊबने लोग |
भोजन की किल्लत हुई, खलता यह संयोग ||
सूर्य-देवता ने दिया, दर्शन चौथे रोज |
मस्ती में सब झूमते, नव- आशा नव-ओज ||
वैवाहिक सन्दर्भ में, शुरू हुई फिर बात |
विधियाँ सब पूरी हुईं, विदा होय बारात ||
शांता ने सादर कहा, सुनिए प्रिय युवराज |
कन्याशाळा के भवन, का कैसा है काज ||
मुझे देखनी है प्रगति, ले चलिए शुभ-थान |
सृंगी-रूपा भी चले, आत्रेयी मेहमान ||
आधा से ज्यादा बना, दो एकड़ फैलाव |
सृंगी बोले बटुक से, वह थैली ले आव ||
गीली थैली जब तलक, बटुक वहां पर लाय |
चार क्यारियाँ स्वयं ही, सृंगी रहे बनाय ||
शांता ने रुद्राक्ष के, बदले भेजा धान |
औषधियेय प्रभाव से, डाली इसमें जान ||
मन्त्रों से ये सिद्ध हैं, उच्च-कोटि के धान |
अन्नपूर्णा की कृपा, सदा सर्वदा मान ||
चार क्यारियों में इन्हें, रोपें स्त्री चार ||
बारह-मासी ये उगें, जस जिसका व्यवहार ||
कन्याओं को नित मिले, मन-भर बढ़िया भात ||
द्रोही गर इनको छुवे, होय तुरत आघात ||
आत्रेयी रूपा सहित, शांता रमणी जाय |
अपनी अपनी क्यारियाँ, सुन्दर देत सजाय ||
बोलें भैया सोम्पद, इक-हजार अनुदान |
नियमित मिलिहै कोष से, रुके नहीं अभियान ||
दीदी मैंने शर्त ये, पूरी कर दी आज |
दूजी अपनी शर्त का, खोलो अबतो राज |
जुटे बहुत से लोग हैं, रहे राज अब राज |
कभी बाद में मैं कहूँ, क्या तुमको एतराज ||
दीदी मैं तो आपका, अपना छोटा भाय |
हर इच्छा पूरी करूँ, गंगे सदा सहाय ||
सृंगी के आशीष से, बहुरे मंगल-मोद |
हरी भरी होने लगी, अंगदेश की गोद ||
रूपा के सानिध्य में, चंचल राजकुमार |
सबकी आँखों से बचा , करता आँखें चार ||
घनाक्षरी
नयन से चाह भर, वाण मार मार कर
ह्रदय के आर पार, झूरे चला जात है |
नेह का बुलाय लेत, देह झकझोर देत
झंझट हो सेत-मेत, भाग भला जात है |
बेहद तकरार हो, खुदी खुद ही जाय खो
पग-पग पे कांटे बो, प्रेम गीत गात है |
मार-पीट करे खूब, प्रिय का धरत रूप
नयनों से करे चुप, ऐसे आजमात है ||
दर्पण बोले झूठ कब, कब ना खोले भेद |
साया छोड़े साथ कब, यादें जरा कुरेद |
शांता से छुपता नहीं, लेकिन यह व्यवहार |
रमणी को वह सौंपती, रूपा का सब भार ||
मिलन आस का वास हो, अंतर्मन में ख़ास
सुध-बुध बिसरे तन-बदन, गुमते होश-हवाश ।
विधाता छंद
बड़ी बेचैन लगती है, परेशानी उठाती है।
बता री जिन्दगी कैसे, समय अपना बिताती है।
विचारों का लगे ताँता, तभी तो नींद उड़ जाती।
नसीबा सो रहा जैसे, ख़ुशी तो मुँह चिढ़ाती है ।।
विधाता छंद
बड़ी बेचैन लगती है, परेशानी उठाती है।
बता री जिन्दगी कैसे, समय अपना बिताती है।
विचारों का लगे ताँता, तभी तो नींद उड़ जाती।
नसीबा सो रहा जैसे, ख़ुशी तो मुँह चिढ़ाती है ।।
मुश्किल में, दिल में मिले, बढ़े आत्म-विश्वास |
कंटक-पथ पर बढ़ चले, साथ मिले जो ख़ास |
बीस वर्ष का हो गया, लम्बा यहाँ प्रवास |
शांता आगे बढ़ चली, फिर से नए निवास ||
बिडम्बना कैसी भला, नारी जैसे धान |
बार-बार बोई गई, रविकर भिन्न स्थान ||
धान कूट के फिर मिले, चावल निर्मल-श्वेत |
खेत खेत यात्रा चले, हो जाये फिर खेत ||
अरसात सवैया
शांत शरिष्ठ शशी सम शीतल, शारित शिक्षित शीकर शान्ता ।
वाम विहारक वाहन वाजि वनौध विषाद विभीत विभ्रान्ता ।
स्नेह दिया शुभ कर्म किया, खुशहाल हुवे कुल दोउ विश्रान्ता ।
भीषण-काल अकाल पड़ा, तब कष्ट हरे बन सृन्गिक-कान्ता ।।
सर्ग-4
भाग -7
कौला का वियोग
अंग-अवध छूटे सभी, सृंगी के संग सैर |
शांता साध्वी सी सदा, चाहे सबकी खैर ||
कौला मुश्किल से सहे, हुई शांता गैर |
खट्टे-मिट्ठे दृश्य सब, गए आँख में तैर ||
चौपाई
रावण की दारुण अय्यारी | कौशल्या पर पड़ती भारी ||
कौशल्या का हरण कराये | पेटी में धर नदी बहाए ||
दशरथ संग जटायू धाये | पेटी सागर तट पर पाए ||
नारायण जप नारद आये | कौशल्या संग व्याह कराये ||
अवध नगर में खुशियाँ छाये | खर-दूषण योजना बनाये |
कौशल्या का गर्भ गिराया | पल-पल रावण रचता माया ||
सुग्गासुर आया इक पापी | गिद्धराज ने गर्दन नापी ||
नव-दुर्गा में खीर जिमाये | नन्हीं-मुन्हीं कन्या आये ||
रानी फिर से गर्भ धारती | कौला विपदा विकट टारती ||
कौशल्या का छद्म वेश धर | सात मास मैके में जाकर ||
रावण के षड्यंत्र काटती | कौशल्या को ख़ुशी बांटती ||
शांता खुशियाँ लेकर आये | कौला को भी पास बुलाये ||
खुशियों पर ग्रहण लग जाता | शांता का इक पैर पिराता ||
नीमसार में सारे आते | दूर-दूर से वैद्य बुलाते ||
दशरथ कौशल्या सम गोती | गोतज से बीमारी होती ||
कन्या को अब गोद दीजिये | औषधि का नित लेप कीजिये ||
अंगदेश के राजा आते | शांता को ले गोद खिलाते ||
चम्पारानी खुब हरसाती | सूनी बगिया खिल-खिल जाती ||
दशरथ सुन्दर नाव सजाते | दास दासियाँ भी भिजवाते ||
कौला बच्ची को बहलाती | रस्ते में दालिम को पाती ||
दालिम सौजा का सौतेला | लड़े बाघ से निपट अकेला ||
उससे भाई एक बचाए | एक पूत को बाघ मिटाए ||
राजा देता ग्राम निकाला | किन्तु स्वयं ही उसे संभाला ||
शांता का रक्षक बन जाता | किस्मत पर अपनी मुस्काता ||
शांता अंगदेश आ जाती | कौला औषधि रोज लगाती ||
नामकरण में दशरथ आये | शांता पहला कदम बढाए ||
चम्पारानी गोद खिलाती | पुत्र सोम प्यारा सा पाती ||
कौला भी बन जाती माता | रूपा और बटुक का नाता ||
शांता से ज्यादा गहराता | बटुक पास में उसके जाता ||
गुरुकुल पढ़ने सोम जा रहे | नियमित घर आचार्य आ रहे ||
शांता को वे रोज पढ़ाते | रूपा और बटुक भी जाते ||
आठ साल में पूरी शिक्षा | शांता करती पास परीक्षा ||
वन विहार को शांता जाती | किन्तु महल में नहीं बताती ||
रूपा और बटुक भी जाए | काका अपनी जान लड़ाए ||
मिली ताड़का घेरी काका | काका बोला भाग तडाका ||
जान बची तो लाख उपाया | कई दिनों में काका आया ||
सृन्गेश्वर में सृंगी मिलते | दोनों के मन-हृदय पिघलते ||
शोध पे लम्बी चर्चा होती | पुत्रकाम का सूत्र पिरोती ||
दशरथ यग्य कराते द्वारे | चार पुत्र पा जाते प्यारे ||
पड़े मुसीबत राम सहारा | भरत लखन शत्रुघ्न दुलारा ||
शांता की जागी इक इच्छा | शुरू कराऊं नारी शिक्षा ||
कौशल्या शाला वह खोले | आचार्या बाला की हो ले ||
सूखा और अकाल अंग में | मरते जैसे लोग जंग में ||
पूरे साल सूखती धरती | शांता जन-जन के दुःख हरती ||
घनाक्षरी
धरती के वस्त्र पीत, अम्बर की बढ़ी प्रीत
भवरों की हुई जीत, फगुआ सुनाइये ।
जीव-जंतु हैं अघात, नए- नए हरे पात
देख खगों की बरात, फूल सा लजाइये ।
चांदनी शीतल श्वेत, अग्नि भड़काय देत
कृष्णा को करत भेंट, मधुमास आइये ।
धीर जब अधीर हो, पीर ही तकदीर हो
उनकी तसवीर को , दिल में बसाइए ।।
दोहे
रो-गाकर करते विदा, छूटा फिर से देस |
किस्मत में उसके लिखा, बार बार परदेस ||
सभी हितैषी छूटते, रिश्ते बने नवीन |
परम बटुक ही है यहाँ, शिक्षा में लवलीन ||
पेटी इक श्रृंगार की, संग में मंगल-हार |
इक माला रुद्राक्ष की, सृंगी का उपहार ||
प्रियवर मैं समझी नहीं, भेजा जो रुद्राक्ष |
धारण करने से कहीं, काक होय ताम्राक्ष ||
समझे बिन कैसे धरी, फिर सन्यासिन रूप |
सुख सुविधा सारी तजी, त्याग भूप का कूप ||
निश्छल शांता की हँसी, लेती तब मन -मोह |
प्रतिदिन उनकी प्रीत है, करती सद-आरोह ||
शाळा को अर्पित किया, सारा मंगल कोष |
मंगल-मंगल हो रहा, मंगलमय संतोष ||
कन्या हर परिवेश में, पाए शिक्षा दान |
शिक्षित माता दे बना, सचमुच देश महान ||
आधी आबादी अगर, पाए न अधिकार |
सारे शासक-वर्ग को, है सौ-सौ धिक्कार ||
मैंने भेजा धान जब, हमको था यह भान |
रिस्य बूझ कर के करें, उचित मान सम्मान ||
एक कदम आगे बढे, करवाया एहसास |
चार क्यारियों से किया, मात-पिता के पास ||
सर्ग-4
भाग-8
आश्रम में शांता
दो दिन का करके सफ़र, पहुंची कोसी तीर |
आश्रम में स्वागत हुआ, मिटी पंथ की पीर ||
अगला दिन अति व्यस्त था, अति-प्रात: उठ जाय |
आज्ञा लेकर सास की, नित्य कर्म निबटाय ||
कोशी की पूजा करे, कुलदेवी के बाद |
सृन्गेश्वर को पूजती, मन में अति-अह्लाद ||
सास ससुर के छू चरण, बना रही पकवान |
आश्रम के सब जन बने, शांता के मेहमान ||
बड़ी रसोई में जले, चूल्हे पूरे सात |
दही बड़े जुरिया बनी, उरद-दाल सह भात ||
आलू-गोभी की पकी, सब्जी भी रसदार |
मेवे वाली खीर से, छाई वहाँ बहार ||
दस पंगत लम्बी लगी, कुल्हड़ पत्तल साज |
भोजन लगी परोसने, अन्नपूर्णा आज ||
परम बटुक संग में लगा, रिस्य सृंग पद भूल |
अतिथि हमारे देवता, सबको किया क़ुबूल ||
परम बटुक से खुश सभी, शारद सदा सहाय |
एक बार के पाठ से, गूढ़ विषय आ जाय ||
पढ़े चिकित्सा शास्त्र वो, विषय बहुत ही गूढ़ ||
परंपरा के ज्ञान पर, होकर के आरूढ़ ||
मन मानव कल्याण में, धन दौलत को भूल |
दीन-दुखी बीमार की, सेवा बने उसूल ||
नए शोध पर रख रहा, अपनी तीक्ष्ण निगाह |
कम होगी कैसे भला, रुग्ण मनुज की आह|
दीदी की ससुराल में, बनकर सच्चा भाय |
सेवा सुश्रुषा करे, गुरुकुल को महकाय ||
दूर-दूर से आ रहे, याचक-दाता द्वार |
रोगी भी करवा रहे, आश्रम में उपचार ||
कुछ प्रतिनिधि विनती करें, कृपा कीजिये नाथ |
घाटी की बिगड़ी दशा, नहीं सूझता पाथ ||
देव हिमाचल भूमि में, बिगढ़ रहे हालात |
वर्षा ऋतु आधी गई, हुई नहीं बरसात ||
खाने के लाले पड़े, नंगे होंय पहाड़ |
हिंसक जीवों की वहाँ, गूंजे गरज दहाड़ ||
देव मनुज गन्धर्व सब, ऋषिवर जन-गन तोर |
घाटी की विपदा हरो, जन जन रहा अगोर ||
ऋषी बिबंडक ने कहा, रखिये मन में धीर |
करते शीघ्र उपाय हम, मिटे त्रिशुच की पीर ||
सृंगी से कहने लगे, हुआ पूर्ण इक साल |
शांता को भिजवाइए, अब अपनी ससुराल ||
कार्य यहाँ के पूर्ण कर, करिए शीघ्र पयान |
बड़ी समस्या का करें, जाकर उचित निदान ||
हाथ जोड़कर बोलते, सृंगी मन की बात |
सहमत ऋषिवर हो गए, बतिया बड़ी सुहात ||
जाय संभालो राज को, शांता को ले जाव |
पड़े रास्ते में अवध, भाई से मिलवाव ||
मात पिता के चरण छू, परम बटुक ले साथ |
रामचंद्र को भेंटते , देव भूमि के पाथ ||
चरण छुवे भ्राता सभी, पाते आशीर्वाद |
शांता को आते रहे, पूरे रस्ते याद ||
दशरथ, तीनों रानियाँ, आवभगत में लाग |
इन अभिनव मेहमान से, भाग अवध के जाग ||
सारी जनता आ जमी, करती जय जयकार |
उपहारों का लग गया, बहुत बड़ा अम्बार ||
सृंगी शांता बोलते, हम सन्यासी लोग |
करे नहीं हम संचयन, करे नहीं अति भोग ||
कृपा करके दीजिये, अनुमति हे श्रीमान |
ढूंढ़ जरूरतमंद को, बांटो यह सामान ||
कौशल्या मानी नहीं, मेवा फल मिष्ठान |
दो दिन खातिर संग में, बाँधीं कुछ पकवान ||
पलकों पर बैठा रहे, देवभूमि के लोग |
भीगी आँखें से दिखे, वर्षा का संयोग ||
राजकाज में जा फंसे, रिस्य सृंग महराज |
सभी प्रमुख आने लगे, प्रेम-पालकी साज ||
कर सबको आश्वस्त तब, रिस्य रिसर्चर राज |
कर्म गूढ़ करने लगे, सिरमौरी को साज ||
रिस्य गुफा में कर रहे, बैठ लोक-कल्यान |
बटुक परम चढ़ता रहा, शिक्षा के सोपान ||
उधर अंग में मच रहा, उथल-पुथल गंभीर |
रूपा को लग ही गए, कामदेव के तीर ||
अंगराज अब स्वस्थ हैं, मंत्रि-मण्डली संग |
मुश्किल हल करते रहे, प्रगति-पंथ पर अंग ||
शाला में बाला बढीं, नया भवन बनवाय |
आचार्या बारह नई, माली श्रमिक बुलाय ||
इंतजाम उत्तम किया, फैले यश चहुँ ओर |
पुंड्रा बंग विदेह जन, शाला रहे अगोर ||
परिवर्तन आया सुखद, आगे बढ़ता अंग |
नीति-नियम से चल रही, शाला नूतन ढंग ||
सोम सदा आता रहा, कन्या-शाला पास |
रूपा से करता रहे, बातें चुप-चुप ख़ास ||
राजमहल जाने लगी, रूपा भी दो बार |
गंगा तट पर ले विचर, आई नई बहार ||
लम्बे-लम्बे इन्तजार से मन तड़पाते हो |
गोदी में सिर रखकर प्रियतम गीत सुनाते हो |
देरी से आने की झूठी गाथा गाते हो,
पलकें पोल खोलती फिर भी बात बनाते हो |
चाहे उन्हें पुकारना, पर रहती चुपचाप |
कैसा अंतर्द्वंद यह, कैसा यह संताप |
सोम फ़िदा उसपर हुए, मीठीं बातें बोल |
रूपा के तन में रहे, रोज प्रेम-रस घोल ||
रूपा को व्याकुल करे, शांता सखी विछोह |
भटके मन वह बावली, करे सोम से मोह ||
तरुण सोम चंचलमना, चल शाळा की ओर |
मानो कोई खींचता, कठपुतली की डोर ||
शांता नित करती रही, कन्या-शाळा याद |
प्राकृति पहुंचाई वहाँ, रूपा का उन्माद ||
अनमयस्क सी शांता, रहने लगी उदास |
कार्य सिद्ध करके ऋषी, लौटे शांता पास ||
बारिस की बूंदें गिरीं, बीत रहा इक माह |
मैके जाना चाहिए, शांता करे सलाह ||
फेरे की इक रस्म है, करिए उसको पूर |
नदी मार्ग से जाइए, अंगदेश अति दूर ||
हुई पालकी में विदा, ऊँचीं नीची राह |
धीरे-धीरे छूटते, अचल कन्दरा गाह ||
तेज धार धीमी हुई, आया सम मैदान |
नाविक गण थामे वहाँ, यात्रा हेतु कमान ||
निश्चित तिथि पर चल पड़ी, परम बटुक के साथ |
नाव सजा के बैठती, गंगा जल ले माथ ||
मंगल भावों का उदय, छाये परमानंद |
शुभ शुभ योगायोग है, विरह अग्नि हो मंद |
सर्ग-4
भाग-9
नाव-यात्रा
हरी भरी अति उर्वरा, शुभ गंगा वरदान |
प्रभु की महिमा से भरा, यह चौरस मैदान ||
गंगा माँ में मिल रहीं, छोटी नदियाँ आय |
यमुना आई दूर से, देख गंग हरषाय ||
इड़ा पिंगला साध लें, मिले सुषुम्ना गेह ।
बरस त्रिवेणी में रहा, सुधा समाहित मेह ।..
सरस्वती भी हैं यहाँ, त्रिवेणी का धाम |
सुन्दर होती आरती, करे मुग्ध हर शाम ||
भक्त पापधी पानि-शत, करें प्रदूषित पानि ।
पानिप घटती पानि की, बनता बड़ा सयानि ।
रात यहीं विश्राम कर, सुबह बढ़ाई नाव |
काशी में दर्शन करे, भक्ति-भाव हर ठाँव ||
गंगा उत्तर वाहिनी, थी अथाह जलरास |
नाव चलाने में मगर, बड़े कुशल सब दास ||
धीरे धीरे हो गया, सरयू संगम पार |
गंगा जी के पाट का, बढ़ा और विस्तार ||
जल-धारा अनुकूल पा, चले जिंदगी नाव ।
धूप-छाँव लू कँपकपी, मिलते गए पड़ाव ।।
आश्विन में बूंदें पड़े, बढे रात में शीत |
नाविक आगे बढ़ रहे, मनभावन संगीत ||
अनजाने ही नींद ने, लिया उन्हें भी घेर |
बालू भित्ती में फंसे, होने लगी कुबेर ||
दोपहर भी बीती वहां, नहीं लग रहा दाँव |
हिकमत करके हारते, नहीं निकलती नाव ||
टकराने से खुल गया, महत्वपूर्ण इक जोड़ |
पानी अन्दर घुस रहा, उलचें बाहें मोड़ ||
छेद नाव में अटके-नौका, कभी नहीं नाविक घबराये ।
जल-जीवन में गहरे गोते, सदा सफलता सहित लगाये ।
इतना लम्बा जीवन-अनुभव, नाव किनारे पर आएगी -
पतवारों पर अटल भरोसा, भव-रस्ता भी पार कराये ।।
पूछतांछ करते पता, एक कोस पर गाँव |
यथाशीघ्र जाओ वहाँ, कारीगर ले आव ||
इक नाविक के संग में, परम बटुक अगवान |
शांता देती एक पण, लाने को सामान ||
दोनों तेजी से गए, घरी दो घरी बाद |
दो ही आते दीखते, फिर छाया अवसाद ||
मानव मानव की करे, मदद सदा हरसाय |
मीठी बोली पर सखे, माटी मोल बिकाय ||
चले मरम्मत बिन नहीं, आगे मेरी नाव |
शांता बोली नाविकों, तम्बू यहीं लगाव ||
आगंतुक को देखकर, शांता है हैरान |
परम बटुक उनमें नहीं, लगे निकलने प्रान ||
नाविक बोला माँ सुनों, भाई बड़ा महान |
महारुजा से ले बचा, तीन जनों की जान ||
घोर संक्रमण से ग्रसित, हुवे गाँव के लोग |
बदन तपे खुब ज्वर चढ़े, जाने कैसा रोग ||
कारीगर चरणन पड़ा, बचा लीजिये ग्राम |
शांता देकर सांत्वना, बोले भज हरिनाम ||
चार घरी में कर दिया, पूर्ण मरम्मत काम |
हाथ जोड़ अनुनय करे, रात करें विश्राम ||
अगले दिन प्रात: वहाँ, तट पर आये लोग |
गन्ना गुड़ चूड़ा चढ़ा, चढ़ा रहे सब भोग ||
साध्वी शांता के छुवें, आदर से सब पाँव |
एक वृद्ध से जब सुनी, गाँव सुपरिचित नाँव ||
क्या दालिम को जानते, वही रमण के भाय |
अंगदेश जाकर बसे, महाराज ले जाय ||
जय हो देवी शांता, जय जय जय जयकार |
दालिम का ही पूत है, करे वहाँ उपचार ||
भरी दुपहरी में दिखा, बटुक तनिक घबरात |
शांता को खुश देखकर, फिर थोडा मुस्कात ||
पीड़ा सहकर भी करो, दूजे का कल्याण |
यही चिकित्सक कर्म है, मत जाने दो प्राण ||
बटुक परम ज्यों जानता, यह बाबा का ग्राम |
बड़े बुजुर्गों को करे, छूकर पैर प्रणाम ||
औषधि सबको दी बता, दिया सफाई सीख |
मुखिया को समझा दिया, ग्राम आश्वस्त दीख ||
विदा विदाई हो गई, चली दुबारा नाव |
पाल ठीक से बाँध के, थोड़ा वेग बढ़ाव ||
इक पण तुमको था दिया, कहाँ गए तुम भूल |
रमण बिचारा कर रहा, अपनी भूल कुबूल ||
वापस पण करने लगा, शांता दी मुसकाय |
भाई रख ले पास में, काम समय पर आय ||
बटुक कहे दीदी रखो, मुझे पड़े न काम |
मैं तो हूँ शिक्षार्थी, भिक्षाटन हरिनाम ||
जब नाविक को चढ़ गया, मध्य रात में ताप |
जड़ी बटुक की झट करे, कम उसका संताप ||
रिश्तों से रिसता रहे, दंभ स्वार्थ शठ-नीत ।
दोनों मन विश्वास हो, श्रृद्धा प्रेम पुनीत ।
पानी ढोने का करे, जो बन्दा व्यापार |
मुई प्यास कैसे भला, सकती उसको मार ||
लहरों के संग खेलना, लहरें जीवन देत |
लहरें ही हैं जिंदगी, यही बैल हल खेत ||
गंगा उत्तरवाहिनी, सुन्दर पवन घाट |
नाव किनारे पर लगा, घूमी शांता हाट ||
परम बटुक करने लगे, राजनीति पर बात |
कितना होना चाहिए, कर का सद-अनुपात ||
उत्तरदायी राज्य-प्रति, या राजा प्रति होय |
मंत्री का क्या कार्य है, कहिये दीदी सोय ||
विधिसम्मत कैसे रहे, होय न्याय का राज |
राज-पुरुष के दोष पर, उठे कहाँ आवाज ||
प्रमुख विराजें ग्राम में, अंकुश का क्या रूप |
जन कल्याणी कार्य के, कैसे होंय स्वरूप ||
लम्बी चर्चा हो रही, विद्वानों की राय |
राज पक्ष प्रस्तुत करे, दीदी दे समझाय ||
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