सर्ग-5
अंतिम भाग
पञ्च-रत्न
शादी होती सोम से, शांता का आभार |
कौला दालिम खुश हुए, पाती रूपा प्यार ||
चाहत की कीमत मिली, अहा हाय हतभाग ।
इक चितवन देती चुका, तड़पूं अब दिन रात ।
परम बटुक को मिल रहा, राजवैद्य का नेह |
साधक आयुर्वेद का, करता अर्पित देह ||
कौशल्या उत्सुक बड़ी, कन्याशाला घूम |
मन को हर्षित कर गई, बालाओं की धूम ||
गोदी की इक बालिका, आकर करे कमाल |
संस्कारित शिक्षित करे, दो सौ ललना पाल ||
हर बाला इक वंश है, फूले-फले विशाल |
होवे देवी मालिनी, हरी भरी हर डाल ||
पैरों पर होना खड़े, सीखो सखी जरुर ।
आये जब आपात तो, होना मत मजबूर ।
शाळा को नियमित मिले, सौ पण का अनुदान |
कौशल्या कहकर चली, बिटिया बड़ी महान ||
राम-लखन के साथ में, शांता समय बिताय |
दूल्हा-दुल्हन की डगर, हक़ से छेके जाय ||
स्वर्णाभूषण त्याग दी, आडम्बर सब त्याग |
भौतिकता से है नहीं, दीदी को अनुराग ||
दीदी बोली कीजिये, शर्त दूसरी पूर |
शाळा हरदिन जायगी, रूपा सखी जरूर ||
जिम्मेदारी दीजिये, खींचों नहीं लकीर |
शक्ति नारि में है बड़ी, बदल सके तक़दीर ||
कन्याएं दो सौ वहां, अभिभावक दो एक |
शाला की चिंता हरे, रूपा मेरी नेक ||
बना व्यवस्था चल पड़ी, वह शाळा की ओर |
आत्रेयी को सौंपती, पञ्च-रत्न की डोर ||
आचार्या करने लगी, प्रश्न-पत्र तैयार |
कई चरण की जाँच से, होना होगा पार ||
नियत समय पर आ रहे, लेकर सब उम्मीद |
कन्याशाला में टिके, पढ़ उद्धृत-ताकीद ||
पहला दिन आराम का, हुई न कोई जाँच |
नगर भ्रमण कोई करे, कोई पुस्तक बाँच ||
कोई बैठा बाग़ में, कोई गंगा तीर |
खेल करे मैदान में, कई सयाने वीर ||
मिताहार कोई वहां, मिताचार से प्यार |
कुछ तो भोजन भट्ट हैं, और कई लठमार ||
सूची इक जारी हुई, बाइस वापस जाँय |
इक्कावन अब देह की, रहे जाँच करवाय ||
तेरह इसमें छट गए, अड़तिस गंगा तीर |
डूबी पानी में उधर, ग्यारह की तकदीर ||
सत्ताइस की लेखनी, बाइस हों उत्तीर्ण |
पाँच जनों के हो रहे, ऐसे भाग-विदीर्ण ||
राज महल में मिल गया, सबको एकल कक्ष |
अपने अपने विषय में, थे ये पूरे दक्ष ||
बाइस पहले जो छटे, शाला के प्रति द्वेष |
शिक्षा के प्रति रूचि नहीं, उनमें रही विशेष ||
राजकाज के काम दो, दिए एक से जाँय |
तीन दिनों में एक को, आना है निपटाय ||
प्रतिवेदन प्रस्तुत करो, लिखकर वापस आय |
एक परीक्षा फिर बचे, तेरह को बिलगाय ||
गुप्तचरों की सूचना, वा प्रस्तुत आलेख |
चुने महामंत्री सजग, प्रतिभागी नौ देख ||
अगले दिन दरबार में, बैठे अंग नरेश |
नौ के नौ आयें वहां, धर दरबारी भेष ||
साहस संयम शिष्टता, अनुकम्पा औदार्य |
मितव्ययी निर्बोधता, न्याय-पूर्ण सद्कार्य ||
क्षमाशीलता सादगी, सहिष्णुता गंभीर |
सच्चाई प्रफुल्लता, निष्कपटी मन धीर ||
स्वस्ति बुद्धि हो शुद्धता, हो चारित्रिक ऐक्य |
दानशील आस्तिक सभी, अग्र-विचारी शैक्य ||
सर्वगुणी सब विधि भले, सब के सब उत्कृष्ट |
अंगदेश को गर्व है, गर्व करे यह सृष्ट ||
जाँच-परखकर कर रहे, सबको यहाँ नियुक्त |
एक वर्ष के बाद में, होंय चार जन मुक्त ||
तीन मास बीते यहाँ, आया फिर वैशाख |
शांता सृन्गेश्वर चली, मन में धीरज राख ||
कन्याओं से मिल लिया, पुष्पा-पुत्तुल पास |
रमणी को देकर चली, एक हिदायत ख़ास ||
बटुक रमण फिर से चला, दीदी को ले साथ |
शिक्षा विधिवत फिर करे, जय हो भोले नाथ ||
आश्रम की रौनक बढ़ी, सास-ससुर खुश होंय |
सृंगी अपने शोध में, रहते हरदम खोय ||
शांता सेवा में जुटी, परम्परा निर्वाह |
करे रसोईं चौकसी, भोजन की परवाह ||
शिष्य सभी भोजन करें, पावें नित मिष्ठान |
करें परिश्रम वर्ग में, नित-प्रति बाढ़े ज्ञान ||
वर्षा-ऋतु में पूजती, कोसी को धर ध्यान |
सृन्गेश्वर की कृपा से, उपजे बढ़िया धान ||
शांता की बदली इधर, पहले वाली चाल |
धीरे धीरे पग धरे, चलती बड़ा संभाल ||
खान-पान में हो रहा, थोडा सा बदलाव |
खट्टी चीजें भा रहीं, बदल गए अब चाव ||
सासू माँ रहने लगीं, चीजें सभी सहेज ||
समय चक्र चलने लगा, अबतो किंचित तेज ||
पुत्री सुन्दर जन्मती, बाजे आश्रम थाल |
जच्चा बच्चा की रखे, मैया सदा सँभाल ||
तीन वर्ष पूरे हुए, शिक्षा पूरी होय |
दीदी से मिलकर चले, बटुक अंग फिर रोय ||
फिर पूरे परिवार से, करके नेक सलाह |
माँ दादी को साथ ले, पकड़ें घर की राह ||
आश्रम इक सुन्दर बना, करते हैं उपचार |
साधुवाद है वैद्य जी, बहुत बहुत आभार ||
तीन वर्ष बीते इधर, मिला राज सन्देश |
वैद्यराज का रिक्त पद, तेरे लिए विशेष ||
क्षमा-प्रार्थना कर बचे, नहीं छोड़ते ग्राम |
आश्रम फिर चलता रहा, प्रेम सहित अविराम ||
रक्षाबंधन पर मिली, शांता घर पर आय |
भागिनेय दो गोद में, दीदी रही खेलाय ||
पुत्तुल के संग वो रखी, पाणिग्रहण प्रस्ताव |
मेरी सहमति है सदा, पुत्तुल की बतलाव ||
लिया बटुक को साथ में, चम्पानगरी जाय |
पुत्तुल के इनकार पर, रही उसे समझाय ||
नश्वर जीवन कर दिया, इस शाळा के नाम |
बस नारी उत्थान हित, करना मुझको काम ||
पुष्पा से एकांत में, मिलती शांता जाय |
वैद्य बटुक से व्याह हित, मांगी उसकी राय ||
शरमाई बाहर भगी, मिला मूल संकेत |
मंदिर में शादी हुई, घरवाला अनिकेत ||
रूपा से मिलकर हुई, दीदी बड़ी प्रसन्न |
गोदी में इक खेलता, दूजा है आसन्न ||
पञ्च रत्न की सब कथा, पूछी फिर चितलाय |
डरकर नकली असुर से, भाग चार जन जाँय ||
पञ्च-रतन को एक दिन, दे अभिमंत्रित धान |
खेती करने को कहा, देकर पञ्च-स्थान ||
बढ़िया उत्पादन हुआ, मन सा निर्मल भात |
खाने में स्वादिष्टतम, हुआ न कोई घात ||
राज काज मिल देखते, पंचरत्न सह सोम |
महासचिव का साथ है, कुछ भी नहीं विलोम ||
पिताश्री ने एक दिन, सबको लिया बुलाय |
पंचरत्न में चाहिए, स्वामिभक्त अधिकाय ||
चाटुकारिता से बचो, इंगित करिए भूल |
राजधर्म का है यही, सबसे बड़ा उसूल ||
औरन की फुल्ली लखैं , आपन ढेंढर नाय
ऐसे मानुष ढेर हैं, चलिए सदा बराय||
निर्बुद्धि की जिन्दगी, सुख-दुःख से अन्जान |
निर्बाधित जीवन जिए, बिना किसी व्यवधान ||
श्रमिक बुद्धिवादी बड़ा, पाले घर परिवार |
मूंछे ऐठें रुवाब से, बैठे पैर पसार ||
बुद्धिजीवियों का बड़ा, है रोचक अन्दाज |
जिभ्या ही करती रहे, राज काज आवाज ||
बुद्धियोगियों का हृदय, लेकर चले समाज |
करे जगत का वह भला, दुर्लभ हैं पर आज ||
लेकर सेवा भावना, देखो भाग विभाग |
पैदा करने में लगो, जनमन में अनुराग ||
मात-पिता से पूछ के, कुशल क्षेम हालात |
वहां सही संतुष्टि पा, शांता वापस जात ||
कुशल व्यवस्थापक बनी, हुई भगवती माय |
पाली नौ - नौ पुत्रियाँ, आठो पुत्र पढाय ||
बने एक से एक से, संतति सब गुणवान |
शोध भाष्य करते रहे, पढ़ते वेद - पुरान ||
वैज्ञानिक वे श्रेष्ठ सब, मन्त्रों पर अधिकार |
अपने अपने ढंग से, सुखी करें संसार ||
सास-ससुर सब सौंप के, गए देव अस्थान |
राजकाज सब साध के, देकर के वरदान ||
वन खंडेश्वर को गए, महाराज ऋषिराज |
आश्रम साजे भिंड का, करे वहां प्रभु-काज ||
आठ पौत्रों से मिले, सब है बेद-प्रवीन |
बड़े भिंड के हो गए, आश्रम में आसीन ||
सौंपें सारे ज्ञान को, बाबा बड़े महान |
स्वर्ग-लोक जाकर बसे, छोड़ा यह अस्थान ||
भिन्डी ऋषि के रूप में, हुए विश्व विख्यात |
सात राज्य में जा बसे, पौत्र बचे जो सात ||
एक अवध में जा बसे, सरयू तट के पास |
बरुआ सागर आ गया, एक पुत्र को रास ||
विदिशा जाकर बस गए, सबसे छोटे पूत |
पुष्कर की शोभा बढ़ी, बाढ़ा वंश अकूत ||
आगे जाकर यह हुए, छत्तीस कुल सिंगार |
छ-न्याती भाई यहाँ, अतुलनीय विस्तार ||
बसे हिमालय तलहटी, चौरासी सद्ग्राम |
वंशज सृंगी के यहाँ, रहते हैं अविराम ||
सृंगी दक्षिण में गए, पर्वत बना निवास |
ज्ञान बाँट करते रहे, रही शांता पास ||
वंश-बेल बढती रही, तरह तरह के रूप |
कहीं मनीषी बन रमे, हुए कहीं के भूप ||
मंत्र-शक्ति अतिशय प्रबल, तंत्रों पर अधिकार |
कलियुग के प्रारब्ध तक, करे वंश व्यवहार ||
हुए परीक्षित जब भ्रमित, कलियुग का संत्रास |
स्वर्ण-मुकुट में जा घुसा, करे बुद्धि का नाश ||
सरिता तट पर एक दिन, लौटे कर आखेट |
लोमस ऋषि से हो गई, भूपति की जब भेंट ||
बैठे रहे समाधि में, राजा समझा धूर्त |
मरा सर्प डाला गले, जैसे शंकर मूर्त ||
वंशज देखें सृंग के, भर अँजुरी में नीर |
मन्त्रों से लिखते भये, सात दिनों की पीर ||
यही सर्प काटे तुम्हें, दिन गिनिये अब सात |
गिरे राजसी कर्म से, सहो मृत्यु आघात ||
मन्त्रों की इस शक्ति का, था राजा को भान |
लोमस के पैरों पड़ा, वह राजा नादान ||
लेकिन भगवत-पाठ सुन, त्यागा राजा प्रान |
यह पावन चर्चित कथा, जाने सकल जहान ||
मत्तगयन्द सवैया
संभव संतति संभृत संप्रिय, शंभु-सती सकती सतसंगा ।
संभव वर्षण कर्षण कर्षक, होय अकाल पढ़ो मन-चंगा ।
पूर्ण कथा कर कोंछन डार, कुटुम्बन फूल फले सत-रंगा ।
स्नेह समर्पित खीर करो, कुल कष्ट हरे बहिना हर अंगा ।।
जय जय भगवती शांता परम
अदभुद
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना आज के विशेषांक ईंजीनियर श्री दिनेश चन्द्र गुप्त 'रविकर' में "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 23 फरवरी 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDelete